मुरुगन सम्मेलन की सफलता से घबराई DMK!, फिर छेड़ा भाषा विवाद

तमिल अस्मिता के नाम पर राजनीतिक बचाव, विकास नहीं विवादों में उलझी सत्ताधारी पार्टी

डीएमके

मुरुगन सम्मेलन की सफलता से घबराई डीएमके, फिर छेड़ा भाषा विवाद

मदुरै में आयोजित हिंदू मुन्‍नानी के मुरुगन भक्‍त सम्‍मेलन ने ज़बर्दस्‍त जनसमर्थन हासिल किया और तमिल समाज के साथ इसकी सांस्कृतिक जुड़ाव को एक बार फिर साबित किया। इस कार्यक्रम की सफलता और खासकर युवाओं में भगवा दल के बढ़ते प्रभाव से चिंतित डीएमके ने एक बार फिर भाषा आधारित विवाद को हवा देकर जनता का ध्यान राज्य में बिगड़ती क़ानून-व्यवस्था से भटकाने की कोशिश की है।

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने एक आरटीआई रिपोर्ट के आधार पर केंद्र सरकार पर तमिल भाषा के साथ भेदभाव करने और संस्कृत को प्राथमिकता देने का आरोप लगाया है। लेकिन इस आरोप का समय और लहजा कई सवाल खड़े करता है, खासकर तब जब डीएमके खुद 2006 से 2014 तक केंद्र सरकार (यूपीए) में शामिल रही है।

थका हुआ राग: डीएमके का बार-बार का भाषा-आधारित हमला

डीएमके ने सालों से भाषा राजनीति को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है, जिससे वह अपनी प्रशासनिक विफलताओं को छुपा सके। यह पहली बार नहीं है जब पार्टी ने केंद्र पर भाषायी पक्षपात का आरोप लगाया हो। चाहे वह नीट परीक्षा का विरोध हो, नई शिक्षा नीति हो या अब आरटीआई खुलासा- डीएमके नियमित रूप से तमिल पहचान की दुहाई देकर मतदाताओं को विभाजित करती है और असल मुद्दों से ध्यान हटाती है।

विडंबना यह है कि जब डीएमके यूपीए सरकार का हिस्सा थी, तब 2006 से 2014 के बीच तमिल भाषा के लिए केवल ₹75.05 करोड़ आवंटित किए गए, जबकि संस्कृत के लिए ₹675.36 करोड़। तब यह “भाषाई असमानता” क्यों नहीं दिखाई दी? उस समय तमिल विश्वविद्यालय अन्य राज्यों में क्यों नहीं बनाए गए या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तमिल केंद्र क्यों स्थापित नहीं किए गए?

यहां तक कि 2023 में डीएमके सरकार के अधीन तमिलनाडु स्कूल शिक्षा विभाग ने संस्कृत भाषा के विकास के लिए ₹11.68 करोड़ आवंटित किए। अगर संस्कृत “उत्तर भारतीय थोपाव” है, तो यह दोहरापन क्यों?

तथ्य-जांच: आरटीआई डेटा असल में क्या दिखाता है

आरटीआई आधारित रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार ने 2014 से 2025 के बीच संस्कृत के लिए ₹2,532.59 करोड़ आवंटित किए, जबकि तमिल को ₹113.48 करोड़ मिले। लेकिन जैसा कि भाजपा नेता के. अन्नामलाई ने बताया, यह अंतर बुनियादी ढांचे की वजह से है, देश में संस्कृत के लिए 18 विश्वविद्यालय हैं, लेकिन तमिल के लिए केवल एक। केंद्र सरकार तमिल को मनमाने ढंग से फंड से वंचित नहीं करती; राज्यों को व्यावहारिक परियोजनाएँ और संस्थाएं प्रस्तावित करनी होती हैं।

इसी बिंदु पर अन्नामलाई ने स्टालिन से पूछा कि जब डीएमके सत्ता में थी, तब उसने तमिल के लिए क्या किया? उन्होंने आरोप लगाया कि डीएमके केवल “तमिल देशभक्ति के वड़े तलती है”, लेकिन वास्तविक प्रयासों से कोसों दूर है।

प्रधानमंत्री मोदी: वैश्विक मंचों पर तमिल गौरव की निरंतर आवाज़

जहां डीएमके का तमिल प्रेम चुनावी मौसम में ही प्रकट होता है, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार तमिल भाषा और संस्कृति को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सम्मान दिया है। चाहे वह संयुक्त राष्ट्र में तिरुक्कुरल का उल्लेख हो, ‘मन की बात’ में संगम साहित्य की प्रशंसा हो या सौराष्ट्र तमिल संगमम और काशी तमिल संगमम जैसे आयोजन, मोदी सरकार की प्रतिबद्धता केवल दिखावटी नहीं, ठोस प्रयासों में दिखाई देती है।

सौराष्ट्र तमिल संगमम (सोमनाथ) और काशी तमिल संगमम (वाराणसी) जैसे आयोजनों में हजारों तमिल भाषी विद्वानों, छात्रों और तीर्थयात्रियों ने भाग लिया और सांस्कृतिक आदान-प्रदान किया। ये पहलें भारत की भाषायी एकता और सांस्कृतिक समरसता को दर्शाती हैं।

चुनिंदा देशभक्ति: तमिल पहचान पर डीएमके की राजनीति

यह ध्यान देने योग्य है कि डीएमके का तमिल प्रेम ज़्यादातर चुनावों या राजनीतिक असफलताओं के समय ही ज़ोर पकड़ता है। दशकों तक सत्ता में रहने के बावजूद पार्टी ने तमिल भाषा को राज्य से बाहर फैलाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की। उत्तर भारत में तमिल सांस्कृतिक केंद्र कहाँ हैं? पूरे देश में तमिल-केंद्रित संस्थाएं क्यों नहीं स्थापित की गईं?

इसके बजाय, डीएमके बार-बार भाषा विवादों को उकसाकर जनता को अधूरी जानकारियों से भ्रमित करती है और अपने अतीत के निष्क्रियता को छिपाती है।

तमिल गौरव को राजनीतिक फुटबॉल न बनाएं

तमिल भाषा के प्रति सच्चा प्रेम विवाद खड़े करने या बार-बार केंद्र को दोष देने में नहीं, बल्कि नई शैक्षणिक संस्थाएं बनाने, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार करने, और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने में है। मोदी सरकार के प्रयास जहाँ समावेशिता और सांस्कृतिक कूटनीति के उदाहरण हैं, वहीं डीएमके की राजनीति केवल विभाजन और सतही नारों तक सीमित दिखती है।

जैसे-जैसे तमिलनाडु आगामी चुनावों की ओर बढ़ रहा है, जनता को यह पूछना चाहिए: क्या डीएमके की तमिल राजनीति वास्तव में ईमानदार है, या फिर यह केवल अपनी असफलताओं को छुपाने का तरीका है? जवाब नारों में नहीं, कार्यों में छिपा है।

 

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