इतिहास में कुछ लोगों की मृत्यु ऐसी होती है जो सवाल बन जाती है, दर्द बन जाती है और पीढ़ियों तक लोग जिसके सच की तलाश में भटकते रहते हैं। ऐसी ही एक मृत्यु आज ही के दिन (23 जून) 1953 में जम्मू-कश्मीर की जेल में हुई थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत को यूं तो सरकारी फाइलों में हार्ट अटैक बताया गया लेकिन आज भी यह गुत्थी अनसुलझी ही है। आज़ादी के बाद देश की एकता की सबसे प्रबल आवाज़ों में शामिल मुखर्जी को पहले गिरफ्तार किया जाना और उनका फिर जेल से ही दुनिया छोड़कर यूं चले जाना कोई इत्तेफाक नहीं हो सकता है, या था भी तो इसकी जांच नहीं की गई। इस लेख में हम जानेंगे कि मुखर्जी की मौत की जांच को लेकर उनकी मां ने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से क्या कहा था और उस पर नेहरू का क्या जवाब था।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी: व्यक्ति से विचार तक
6 जुलाई 1901 को कोलकाता में जन्मे श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के उन महान राष्ट्र निर्माताओं में से एक थे जिन्होंने स्वतंत्र भारत की एकता, अखंडता और सांस्कृतिक स्वावलंबन के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी एक प्रसिद्ध शिक्षाविद थे। श्यामा प्रसाद ने कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक की और इंग्लैंड से पढ़कर वे बैरिस्टर बन गए थे। बीजेपी की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक, 33 वर्ष की उम्र में ही वह विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए और वह उस समय दुनिया के सबसे युवा कुलपति थे। अपने कार्यकाल में उन्होंने कई रचनात्मक सुधार किए और इस दौरान वह ‘कोर्ट एंड काउंसिल ऑफ इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बैंगलोर’ तथा इंटर यूनिवर्सिटी बोर्ड के सक्रिय सदस्य भी रहे।
इसके बाद वह राजनीति में आए और कांग्रेस प्रत्याशी और कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल विधान परिषद के सदस्य चुने गए, इसके बाद वह 1946 में भारत की संविधान सभा के सदस्य भी बने। स्वतंत्रता के बाद पंडित नेहरू की अंतरिम सरकार में उन्हें उद्योग और आपूर्ति मंत्री बनाया गया लेकिन नीतियों से असहमति होने के कारण 1950 में उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उन्होंने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की और यही आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का आधार बना। उनका उद्देश्य ‘एक देश, एक विधान, एक प्रधान और एक निशान’ था। मुखर्जी लगातार जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 का विरोध कर रहे थे।
जम्मू-कश्मीर जाने के लिए 1950 के दशक में केंद्र सरकार से परमिट लिया जाता था। कोई भी भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता था। मुखर्जी इसके सख्त खिलाफ थे और इस नियम का विरोध करने के लिए उन्होंने बिना परमिट लिए ही जम्मू-कश्मीर जाने का फैसला कर लिया। 8 मई 1953 को मुखर्जी ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से एक पैसेंजर ट्रेन में अपनी यात्रा की शुरुआत की। इसके बाद वह अम्बाला पहुंचे और यहां से उन्होंने शेख अब्दुल्ला को अपने आने की सूचना दे दी। मुखर्जी ने शेख अब्दुल्ला को भेजे तार में कहा, “मैं जम्मू जा रहा हूं, बिना परमिट के। मेरा वहां जाने का प्रयोजन वहां की परिस्थिति का अवलोकन कर किसी प्रकार शांति स्थापित करना है।” शेख अब्दुल्ला ने उन्हें उत्तर दिया, “मैं आपके जम्मू जाने से कुछ उपयोगी कार्य सिद्ध होने की आशा नहीं करता।”
श्यामा प्रसाद मुखर्जी की गिरफ्तारी
शिव कुमार गोयल ने ‘श्यामा प्रसाद मुखर्जी: जीवन यात्रा’ पुस्तक में लिखा है, “पठानकोट में भी अपार भीड़ ने उनका हार्दिक स्वागत किया। डिप्टी कमिश्नर ने उनसे मिलकर कहा- ‘मुझे आदेश मिला है कि मैं आपको बिना परमिट जम्मू की ओर जाने दूं’। शाम 4 बजे उनकी जीप रावी पुल के इस ओर माधेपुर पोस्ट पर पहुंची, जहां पठानकोट तथा गुरुदासपुर के रेजीडेंट मजिस्ट्रेट पुलिस बल के साथ उपस्थित थे। जब जीप के लिए परमिट मांगा गया तो उत्तर मिला- ‘पुल के उस पार लखनपुर पोस्ट तक पहुंचें परमिट वहां मिल जाएगा’।”
जैसे ही जीप रावी नदी के पुल के आधे भाग तक पहुंची वहां उन्होंने कठुआ के SP ने रास्ता रोक कर जम्मू-कश्मीर पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल का आदेश दिया। इस आदेश में लिखा था, “डॉ. मुखर्जी ऐसा कार्य कर रहे हैं, जिससे जनता की सुरक्षा और शांति खतरे में पड़ने की आशंका है, इसलिए उनके जम्मू-कश्मीर में प्रवेश को प्रतिबंधित किया जाता है।” इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, यह 11 मई का दिन था। मुखर्जी ने अपनी गिरफ्तारी को केंद्र सरकार व जम्मू-कश्मीर सरकार का षड्यंत्र बताया था।
इसके अगले दिन 12 मई को मुखर्जी और उनके दो साथियों को श्रीनगर के निशात बाग के पास के एक छोटी की उजड़ी हुई झोपड़ी में ले जाकर नज़रबंदी की स्थिति में रखा गया था। पांचवें दिन 17 मई को मुखर्जी को हल्का बुखार आया और दाएं पैर में दर्द हुआ जिसके बाद उन्हें बैलाडोना का प्लास्टर लगाकर दवाई दे दी गई। 4 जून को फिर उनकी तबियत खराब हुई। इसके बाद 19 जून को उनकी कमर में दर्द हुआ और 20 जून को जेल सुपरिन्टेंडेंट डॉ. अली मुहम्मद को साथ लेकर आए। शाम को मुखर्जी के विरोध के बावजूद ‘स्ट्रैप्टोमाइसीन’ का इंजेक्शन लगाया था।
मुखर्जी की रहस्यमयी मृत्यु
22 जून को सुबह 4 बजे मुखर्जी की नींद खुली तो उन्हें दिल के पास के हिस्से में पीड़ा हो रही थी और सांस भी रुकने लगी थी। वैद्य गुरुदत्त ने उन्हें दवाई दी जिसके बाद उन्हें थोड़ी राहत मिली। 7:30 बजे तक डॉक्टर आए और उन्हें ‘कोरामीन’ का इंजेक्शन दिया गया, डॉक्टर ने उन्हें नर्सिंग होम में भर्ती कराने की सलाह दी। उनके सहयोगियों ने भी साथ अस्पताल चलने को कहा तो उन्हें वहीं रोक दिया गया।
संसद सदस्य उमाशंकर त्रिवेदी नज़रबंदी के खिलाफ याचिका डालना चाहते थे और वे जब मुखर्जी से मुलाकात के लिए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पास पहुंचे तो उन्हें बताया गया है कि वे मुखर्जी से मिल सकते हैं लेकिन उनकी उपस्थिति में ही। इस पर उन्होंने केस कर दिया तो त्रिवेदी को अकेले मुलाकात की छूट दे दी गई। 17 जून को त्रिवेदी ने मुखर्जी से मुलाकात की और हाईकोर्ट में उनका केस पेश कर दिया। 22 जून को जब मुखर्जी अस्पताल में भर्ती थे तो त्रिवेदी उनसे मिलने आए और याचिका पर हस्ताक्षकर कराकर लौट गए। 23 जून को त्रिवेदी को अल-सुबह होटल से अस्पताल ले जाया गया। वहां पहुंचने पर उन्होंने बताया गया कि मुखर्जी का रात निधन हो गया है। मुखर्जी की अचानक हुई रहस्यमय मृत्यु का समाचार मिलते ही पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई।
मुखर्जी की मौत की जांच की मांग पर क्या बोले नेहरू?
24 मई को लाखों लोग उनकी शव यात्रा में शामिल हुए और जगह-जगह सभाएं करक उन्हें श्रद्धांजलि दी गईं। इसके साथ ही उनकी मृत्यु को रहस्यमयी बताकर जांच कराये जाने की मांग भी की जाने लगीं। पंडित नेहरू ने मुखर्जी की मृत्यु पर श्रद्धांजलि संदेश भेजा जिसके जवाब में मुखर्जी की मां जोगमाया देवी ने नेहरू को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा। जोगमाया देवी ने लिखा, “आपकी किसी भी शोक संवेदना की प्रतीक्षा मुझे नहीं है। मैं तो सिर्फ न्याय की मांग करती हूं। मेरा बेटा कैद में मरा-एक ऐसी कैद, जिसके लिए किसी भी तरह की न्यायिक प्रक्रिया नहीं थी। आपने अपनी चिट्ठी में प्रभावित करने की कोशिश करते हुए लिखा है कि कश्मीर सरकार ने वह सब किया, जो किया जाना चाहिए था। आप अपने आश्वासन के आधार पर अपना प्रभाव छोडना चाहते हैं तथा सूचनाएं वही हैं, जो आपने पायी हैं।”
उन्होंने आगे लिखा, “मैं पूछती हूं कि इस तरह की सूचना का क्या मोल है, जब यह उस व्यक्ति द्वारा दी जाती है, जो स्वयं ही जांच पड़ताल के घेरे में है? आप कहते हैं कि आपने मेरे बेटे की कैद के दौरान कश्मीर का दौरा किया था। आप उसके प्रति अपने स्नेह की बात करते हैं, लेकिन मैं चकित हूं कि आपको वहां उससे व्यक्तिगत तौर पर मिलने से रोका किसने था तथा उसकी सेहत को लेकर संतुष्ट होने तथा उसकी व्यवस्था करने से आपको मना किसने किया था ?”
5 जुलाई को नेहरू ने जोगमाया देवी को इस पत्र का उत्तर लिखा, इसमें नेहरू ने मृत्यु की जांच कराने से इनकार कर दिया था। नेहरू ने लिखा, “मैं एक मां के दुःख को अच्छी तरह समझ सकता हूं तथा प्यारे बेटे की मौत पर उनकी मानसिक पीड़ा को महसूस कर सकता हूं। मेरे पास ऐसा कोई शब्द नहीं, जो इस आघात को कम कर सके, जिस आघात को आप महसूस कर रही होंगी।”
नेहरू ने आगे लिखा, “डॉ. मुखर्जी की कैद तथा मौत के मामले में काफी सावधानीपूर्वक पूछताछ किए बिना मैंने आपको लिखने का जोखिम पहले नहीं उठाया। मैंने हालांकि कई लोगों से इस बारे में आगे पूछताछ की है, जो मौके पर मौजूद थे और जिनके पास कुछ ठोस जानकारियां थीं। मैं इतना ही कह सकता हूं कि मैं स्पष्ट और ईमानदार निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि इसमें कोई राज नहीं है तथा यह कि डॉ. मुखर्जी का हर तरह से ध्यान रखा गया।”