कुछ दिन पहले ही केरल के स्कूलों में ज़ुम्बा फिटनेस क्लासेस शुरू करने पर इस्लामिक समूहों ने यह कहकर विरोध जताया था कि यह “इस्लामी सिद्धांतों के खिलाफ़” है। अब वही कट्टर मानसिकता एक बार फिर सक्रिय हो गई है, इस बार कारण है स्कूल के समय में केवल 30 मिनट की बढ़ोतरी। समस्त केरल जेम-इयातुल उलमा और उसकी संबद्ध संस्था समस्त केरल मदरसा मैनेजमेंट एसोसिएशन (SKMMA) का ताज़ा विरोध ना तो शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर है, ना ही छात्र हितों या शिक्षक कल्याण से जुड़ा है। यह विरोध सिर्फ़ इस बात को लेकर है कि ये समय बढ़ोतरी उनकी मदरसा पढ़ाई के कार्यक्रम से टकरा रही है। एक बार फिर, प्रगतिशील बदलाव को धार्मिक कट्टरता की गिरफ्त में लेने की कोशिश की जा रही है।
शिक्षा सुधार बनाम धार्मिक वर्चस्व की लड़ाई
केरल सरकार ने कक्षा 8 से 10 तक के छात्रों के लिए स्कूल समय में 30 मिनट का इज़ाफा किया है। ये निर्णय RTE (राइट टू एजुकेशन एक्ट) और केरल शिक्षा नियमों के अनुसार लिया गया है, जिससे साल भर में 220 कार्य दिवस और 1,100 घंटे की पढ़ाई सुनिश्चित की जा सके। नया टाइमटेबल सभी सरकारी, सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों पर लागू होगा। इसमें सुबह और दोपहर में 15-15 मिनट अतिरिक्त जोड़े गए हैं, शुक्रवार को छोड़कर। लेकिन इस शैक्षणिक सुधार को स्वागत मिलने के बजाय, इस्लामी संगठनों की ओर से तेज विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
SKMMA ने ज़िला, क्षेत्रीय और राज्य स्तर पर विरोध प्रदर्शन की घोषणा कर दी है। उनका दावा है कि ये समय उनकी मदरसा पढ़ाई में दखल है, जहां लाखों छात्र हर सुबह धार्मिक शिक्षा लेते हैं। आलोचकों का कहना है कि ये मुद्दा समय का नहीं, बल्कि राज्य की शिक्षा नीतियों पर धार्मिक वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश है।
ज़ुम्बा विवाद: इसी कट्टर सोच की पहली झलक
ये पहली बार नहीं है जब इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों ने केरल में शिक्षा सुधारों का विरोध किया है। कुछ समय पहले स्कूलों में ज़ुम्बा क्लासेस शुरू करने पर भी यही समूह विरोध में खड़े हो गए थे। उनका कहना था कि ज़ुम्बा “इस्लामिक संस्कृति के खिलाफ” है और “पश्चिमी पतनशीलता” को बढ़ावा देता है। ज़ुम्बा जैसी स्वास्थ्य और मानसिक लाभ देने वाली गतिविधि को भी जब धार्मिक उल्लंघन बताकर रोका गया, तो अब तो 30 मिनट की बढ़ोतरी को भी धार्मिक हमले के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। यह मानसिकता बार-बार दिखाती है कि कैसे केरल की शिक्षा प्रणाली को धार्मिक सोच के आधार पर रोका जा रहा है।
क्या धार्मिक पढ़ाई, संविधान से ऊपर है?
SKMMA का दावा है कि लगभग 12 लाख मुस्लिम छात्र हर सुबह मदरसा पढ़ाई में हिस्सा लेते हैं और नया स्कूल शेड्यूल उनकी उस व्यवस्था में खलल डालेगा। लेकिन बड़ा सवाल यह है, क्या धार्मिक पढ़ाई को संविधान के तहत मिलने वाले सर्वजन शिक्षा के अधिकार से ऊपर रखा जाना चाहिए? SKMMA के महासचिव मुईदीन फैज़ी ने तो यहां तक कह दिया कि सरकार ने कोर्ट के आदेश के बहाने धार्मिक भावनाओं की अनदेखी की है। IUML के सांसद हारीस बीरन ने भी इसे धार्मिक पहचान मिटाने और नवउदारवादी सोच को थोपने की कोशिश बताया।
हालांकि, आलोचकों का मानना है कि इस तरह की बातें सिर्फ़ भावनाएं भड़काने के लिए कही जा रही हैं, और इनका मक़सद तर्कसंगत बहस नहीं, बल्कि धार्मिक कट्टरता को हवा देना है।
प्रगति को प्राथमिकता देने का समय आ गया है
इतिहास गवाह है कि ऐसे धार्मिक संगठन पहले भी कई शैक्षणिक सुधारों का विरोध कर चुके हैं जैसे लैंगिक शिक्षा, आधुनिक ड्रेस कोड, और पाठ्यक्रम में बदलाव। यही समूह ज़ुम्बा को नैतिक खतरा बताते हैं, और अब स्कूल समय को इस्लाम पर हमला बताते हैं। कई शैक्षणिक संस्थानों और अभिभावकों ने इस दोहरी सोच की आलोचना की है। समस्त के महासचिव एम.टी. अब्दुल्ला मुसलियार ने तो यहां तक कहा कि सरकार को धार्मिक शिक्षा में कोई दखल नहीं देना चाहिए। यह बयान इस बात की ओर संकेत करता है कि धर्म और सरकार के बीच टकराव की रेखा कितनी गहरी होती जा रही है।
केरल, जिसे भारत में शिक्षा और सामाजिक प्रगति का आदर्श राज्य माना जाता है, अब कट्टर सोच के आगे झुकने का खतरा झेल रहा है। सरकार का उद्देश्य मात्र यह है कि छात्रों को राष्ट्रीय स्तर के बराबर शिक्षा मिले। अगर मदरसा शिक्षा इतनी ज़रूरी है, तो उसे समय के अनुसार खुद को ढालना चाहिए, न कि सरकारी स्कूल व्यवस्था को रोकने की कोशिश करनी चाहिए। शिक्षा कोई धर्म नहीं है, यह मुक्ति का माध्यम है। राज्य को इस विचार पर अडिग रहना चाहिए तर्क, कानून और बच्चों के भविष्य के पक्ष में।