महाराष्ट्र की महायुति सरकार ने हाल ही में उर्दू साहित्य अकादमी को मुंबई के प्रतिष्ठित फोर्ट इलाके में स्थित उसके पुराने सरकारी दफ्तर से बेदखल करने का फैसला लिया है। सरकार ने अकादमी को नोटिस भेजकर यह जगह खाली करने को कहा है। इस फैसले ने सियासी हलकों में हलचल मचा दी है। एक खास तबके के लोग इसे संस्कृति पर हमला बता रहे हैं तो कई इसे देर से लिया गया लेकिन ज़रूरी फैसला मान रहे हैं। जानकारों का कहना है कि यह अकादमी सालों से सिर्फ राजनीतिक तुष्टीकरण का जरिया बनी रही, जिसे बार-बार खास सुविधाएं दी गईं लेकिन काम के नाम पर ज़मीन पर कुछ ठोस दिखाई नहीं दिया। ऐसे में अब जब सरकार ने इस विशेषाधिकार को वापस लिया है, तो इसे एक जिम्मेदार और ज़रूरी कदम के तौर पर देखा जा रहा है।
उर्दू साहित्य अकादमी की स्थापना वर्ष 1975 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण के नेतृत्व में कांग्रेस शासन के दौरान की गई थी। उस समय इसे उर्दू साहित्य को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक सांस्कृतिक मंच के रूप में प्रस्तुत किया गया था। लेकिन आने वाले वर्षों में यह संस्थान समावेशिता के नाम पर दिए गए विशेषाधिकारों और राजनीतिक संरक्षण का पर्याय बन गया। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) की सरकारों ने अकादमी को लगातार रियायतें दीं जिनमें मुंबई के महंगे इलाकों में स्थित एक हेरिटेज सरकारी भवन में बिना किराया चुकाए लंबे समय तक संचालन की सुविधा शामिल थी। दूसरी भाषाओं से जुड़ी संस्थाएं जहां बुनियादी संसाधनों के लिए जूझती रहीं, वहीं उर्दू अकादमी पुराने कस्टम हाउस जैसी बेशकीमती संपत्ति से पांच दशकों तक संचालित होती रही। हालांकि, उसका साहित्यिक योगदान बहुत सीमित ही रहा था।