भारत की बार-बार की गई कूटनीतिक कोशिशों के बावजूद बांग्लादेश सरकार ने मायमनसिंह स्थित विश्वप्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे के पुश्तैनी घर को ढहाने की प्रक्रिया तेज कर दी है। यह कदम, भारत द्वारा संरक्षण और पुनर्निर्माण में सहयोग की पेशकश के बावजूद उठाया गया है, जो केवल बांग्लादेश की सांस्कृतिक विरासत के प्रति असंवेदनशीलता ही नहीं, बल्कि भारत-बांग्लादेश की साझा सांस्कृतिक धरोहर के प्रति अवमानना भी दर्शाता है।
सत्यजीत रे के दादा, उपेंद्रकिशोर रे चौधरी, बंगाल के साहित्यिक और कलात्मक पुनर्जागरण के प्रमुख स्तंभों में से एक थे। फिर भी, ढाका प्रशासन उनकी इस ऐतिहासिक विरासत को मिटाने पर जोर दे रहा है। उनकी जगह अब एक सादा, बहुउद्देश्यीय, अर्ध-पक्का ढांचा बनेगा, जो सांस्कृतिक पहचान की जगह निर्जीव निर्माण को प्राथमिकता देने का संकेत है।
एक सदी पुरानी पहचान ख़तरे में
यह ऐतिहासिक घर मायमनसिंह के हरिकिशोर रे चौधरी रोड पर स्थित था, जो ढाका से लगभग 120 किलोमीटर उत्तर में है। इसे एक सदी से अधिक पहले उपेंद्रकिशोर रे चौधरी द्वारा बनवाया गया था, जो एक प्रतिष्ठित ज़मींदार, लेखक और चित्रकार थे। वर्ष 1989 से यह घर मायमनसिंह शिशु अकादमी के रूप में इस्तेमाल होने लगा था, जिससे यह शिक्षा और सांस्कृतिक विरासत का केंद्र बन गया।
मंगलवार को भारत के विदेश मंत्रालय (MEA) ने इस विध्वंस को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की और इसे भारत-बांग्लादेश की साझा सांस्कृतिक पहचान पर आघात बताया। नई दिल्ली ने इस भवन को साहित्य संग्रहालय में परिवर्तित करने के लिए सहयोग की पेशकश की थी, लेकिन बांग्लादेश प्रशासन ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए न केवल भारत की पेशकश को नजरअंदाज़ किया, बल्कि विध्वंस की प्रक्रिया भी तेज कर दी। इसके स्थान पर एक अर्ध-कंक्रीट बच्चों की अकादमी बनाए जाने की योजना घोषित कर दी गई है।
भारत-बांग्लादेश सांस्कृतिक संबंधों में दरार
इस ऐतिहासिक भवन का ध्वस्तीकरण केवल एक संरचना का अंत नहीं है, यह भारत और बांग्लादेश के बीच दशकों से चली आ रही सांस्कृतिक साझेदारी को भी प्रभावित करता है। यह घर उपेंद्रकिशोर रे का था, जिनकी रचनात्मक परंपरा उनके बेटे सुकुमार रे और पोते सत्यजीत रे तक चली जो बंगाली साहित्य, हास्य और सिनेमा के दिग्गज माने जाते हैं।
भारत सरकार ने बांग्लादेश से अपील की कि वह इस भवन को साहित्यिक संग्रहालय के रूप में संरक्षित करे, क्योंकि यह बंगाल के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक है। परंतु ढाका प्रशासन भारतीय सहयोग को आपसी साझेदारी के बजाय हस्तक्षेप के रूप में देखता प्रतीत होता है, जो साझा विरासत के प्रति असंवेदनशीलता और बढ़ती राष्ट्रवादी प्राथमिकताओं की ओर संकेत करता है।
सुरक्षा बनाम विरासत का मिटाया जाना
स्थानीय अधिकारियों, जैसे मायमनसिंह के उपायुक्त मोफिदुल आलम और ज़िला बाल कल्याण समिति ने इस फैसले को बच्चों की सुरक्षा के दृष्टिकोण से उचित ठहराया। उन्होंने बताया कि भवन में छतों में दरारें थीं और कुछ कमरे असुरक्षित हो चुके थे। पुरातत्व विभाग ने भी संरचना की जर्जर स्थिति की पुष्टि की और बताया कि यह भवन 1947 के विभाजन के बाद सरकार के स्वामित्व में आ गया था, जिसे 1989 में बाल शिक्षा केंद्र के रूप में रूपांतरित किया गया।
हालांकि, कई बांग्लादेशी नागरिकों और साहित्यिक हस्तियों ने सवाल उठाया है कि क्या यह विध्वंस वास्तव में आवश्यक था या फिर यह केवल संरक्षण की लागत से बचने का आसान रास्ता था। कवि शमीम अशरफ़ ने दुख व्यक्त करते हुए कहा, “यह घर वर्षों से उपेक्षित पड़ा रहा, स्थानीय लोगों ने बार-बार इसके संरक्षण की मांग की, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई।” आलोचकों का मानना है कि संरचनात्मक मरम्मत द्वारा सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती थी, जबकि सांस्कृतिक विरासत को भी बचाया जा सकता था।
धरोहर की हानि: केवल एक इमारत नहीं, एक पहचान का नुक़सान
इस घर का टूटना सिर्फ एक इमारत का गिरना नहीं है, बल्कि यह हमारी साझा यादों का खो जाना है। सत्यजीत रे की वैश्विक पहचान कहीं न कहीं उनके पारिवारिक, सांस्कृतिक और रचनात्मक जड़ों से जुड़ी हुई थी। इस भौतिक पहचान के बिना, भावी पीढ़ियाँ बंगाल के साहित्यिक इतिहास की उस गहराई को नहीं समझ पाएंगी, जो सीमाओं से परे जाकर दोनों देशों को जोड़ती है।
जहां एक ओर एक सदी पुरानी ऐतिहासिक इमारत ढहा दी जाएगी, उसकी जगह अब एक सुरक्षित किंतु इतिहासविहीन कंक्रीट संरचना बनाई जाएगी। शिक्षा निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है, लेकिन जब शिक्षा को अतीत की अनदेखी के ज़रिए आगे बढ़ाया जाए, तो यह दृष्टिकोण विरासत को बाधा मानने जैसा हो जाता है, न कि सेतु।
विनाश नहीं, पुनर्निर्माण की ज़रूरत थी
सत्यजीत रे के पुश्तैनी घर का विध्वंस, भारत की ईमानदार सहयोग की पेशकश के बावजूद बांग्लादेश में सांस्कृतिक दूरदर्शिता की कमी को दर्शाता है। यह सिर्फ इमारत का नुकसान नहीं है, बल्कि एक सोच की गलती है, जहां थोड़े समय की आसानी के लिए हमारी सांस्कृतिक विरासत को महत्व नहीं दिया गया। ऐसी ऐतिहासिक संपत्तियों को नष्ट करना, जिनका महत्व सीमाओं से परे है, सार्वजनिक ज़िम्मेदारी को क्षीण करता है और भविष्य की द्विपक्षीय साझेदारी को कमजोर करता है। यदि वास्तव में सुरक्षा चिंता का विषय था, तो भारत या किसी अंतरराष्ट्रीय विरासत संगठन के सहयोग से पुनर्स्थापन का रास्ता अपनाया जा सकता था।
बांग्लादेश को इस विध्वंस की प्रक्रिया को रोकते हुए एक बहुस्तरीय संरक्षण परियोजना शुरू करनी चाहिए, जो इस स्थल को साझा बंगाली संस्कृति के संग्रहालय में बदल दे। वरना उपेंद्रकिशोर रे चौधरी का यह घर केवल एक संरचनात्मक धरोहर नहीं खोएगा, यह बंगाल पुनर्जागरण का एक अहम अध्याय और भारत-बांग्लादेश सांस्कृतिक एकता की स्मृति भी हमेशा के लिए मिटा देगा।