दिल्ली: रेप के आरोपी अबुज़ैर सैफी ने ज़मानत पर बाहर आकर पीड़िता को मारी गोली

घटना से पहले कई दिनों तक कर रहा था पीछा, पुलिस ने आरोपी को हथियार के साथ किया गिरफ्तार

दिल्ली: रेप के आरोपी अबुज़ैर सैफी ने ज़मानत पर बाहर आकर पीड़िता को मारी गोली

दिल्ली के वसंत विहार में एक बेहद चिंताजनक घटना सामने आई है, जो महिलाओं की सुरक्षा और हमारे सुरक्षा तंत्र की खामियों पर गंभीर सवाल खड़े करती है। एक महिला, जो एक सैलून की मैनेजर है, को सीने में गोली मारी गई और यह गोली उसी व्यक्ति ने चलाई जिसे उसने एक साल पहले रेप के आरोप में फँसाया था और जो फिलहाल अंतरिम ज़मानत पर बाहर था। आरोपी की पहचान 30 वर्षीय अबुज़ैर सैफी के रूप में हुई है।

घायल महिला को AIIMS ट्रॉमा सेंटर में भर्ती कराया गया है, जहां वह स्थिर बताई जा रही है। लेकिन उसकी चोटें सिर्फ शारीरिक नहीं हैं, वह उस न्याय व्यवस्था से भी आहत है, जिसने उसे सुरक्षा देने का वादा किया था।

ज़मानत पर बाहर आया आरोपी, फिर की वारदात

बताया जा रहा है कि अबुज़ैर सैफी अपने साथी अमन शुक्ला के साथ काले रंग की मोटरसाइकिल पर आया और महिला पर गोली चला दी। सैफी को पिछले साल महिला द्वारा दर्ज कराए गए बलात्कार के मामले में ज़मानत मिली थी। लेकिन ज़मानत मिलने के बाद उसने कानून का सम्मान करने या अदालत में केस लड़ने के बजाय महिला को चुप कराने की कोशिश की।

पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज और डिजिटल तकनीक की मदद से अमन शुक्ला को पकड़ लिया। अबुज़ैर सैफी को पुलिस ने अगले दिन उस बंदूक के साथ गिरफ्तार किया, जिससे गोली चलाई गई थी। अब दोनों के खिलाफ हत्या की कोशिश, मिलकर साजिश रचने और हथियार रखने से जुड़ी धाराओं में केस दर्ज किया गया है।

यह घटना हमें एक बड़ा सवाल सोचने पर मजबूर करती है- जब एक बलात्कार पीड़िता वह सब कुछ करती है जो कानून और न्याय प्रणाली उससे अपेक्षा करते हैं, जैसे कि एफआईआर दर्ज कराना, जांच में सहयोग देना तो क्या उसे वाकई सुरक्षा मिलती है? या वह बदले की आग में झुलसने के लिए अकेली छोड़ दी जाती है?

ज़मानत न देने की सीमा रेखा क्या होनी चाहिए?

बलात्कार जैसे गंभीर मामलों में ज़मानत न दिए जाने की कसौटी क्या होनी चाहिए? क्या हमारी न्याय व्यवस्था आरोपियों को दी जाने वाली आज़ादी और पीड़ितों की सुरक्षा के बीच सही संतुलन बना पा रही है? या यह संतुलन लगातार पीड़ितों के ही खिलाफ झुका रहता है?

क्या वर्तमान सुरक्षा उपाय पर्याप्त हैं?

क्या हमारे पास पीड़ितों के लिए ऐसे पर्याप्त उपाय हैं, जो उन्हें सचमुच सुरक्षित रख सकें? या हम लगातार यह कम करके आंकते हैं कि आरोपी व्यक्ति बदला लेने की नीयत और क्षमता दोनों रखता है?

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, पीड़िता ने सैफी के लगातार संपर्क करने के प्रयासों को नज़रअंदाज़ कर दिया था। यह एक ऐसा निर्णय है जिसे कोई भी न्यायालय आत्म-संरक्षण के तौर पर देखेगा। लेकिन पुलिस का कहना है कि इन्हीं अनदेखी की गई कोशिशों ने सैफी के गुस्से को और बढ़ा दिया। नतीजा यह हुआ कि वह ज़मानत पर बाहर आकर हथियार लेकर पहुंचा और महिला को गोली मार दी।

न्याय की प्रक्रिया धीमी है, लेकिन उस देरी की कीमत कौन चुकाता है?

न्यायिक प्रक्रिया धीमी होती है, क्योंकि उसे निष्पक्ष होना होता है। लेकिन बलात्कार जैसे मामलों में यह देरी सिर्फ एक प्रक्रिया नहीं, बल्कि खतरा बन जाती है। इससे पीड़िता एक तरह से ‘कानूनी अधर’ में जीती है, जहां उसकी सुरक्षा उसी व्यक्ति की मर्ज़ी पर निर्भर होती है, जिसे उसने अदालत में कटघरे में खड़ा किया है।nयह सिर्फ एक हिंसक घटना नहीं है, यह हमारे न्यायिक सिस्टम पर एक कठोर टिप्पणी है।

जब किसी महिला को केस दर्ज कराने के लिए गोली खानी पड़े, तो अगली पीड़िता क्या सोचेगी?

सबसे गंभीर सवाल यह है, जब कोई महिला हिम्मत करके अपराध दर्ज कराती है और बदले में गोली खाती है, तो अगली महिला जो सामने आने की सोच रही है, वह क्या संदेश पाएगी? अगर बलात्कार रिपोर्ट करने के बाद भी सुरक्षा की गारंटी नहीं है, अगर चुप्पी न्याय से ज़्यादा सुरक्षित लगती है, तो फिर कहीं न कहीं हमारी पूरी व्यवस्था में कोई बुनियादी खामी है।

 

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