भारत के इतिहास में 11 अगस्त 1893 की तारीख केवल एक दंगे की कहानी नहीं है, बल्कि यह वह दिन था जब हिंदू समाज ने पहली बार महसूस किया कि सांप्रदायिक हिंसा और अंग्रेजी हुकूमत की मिलीभगत के खिलाफ अब संगठित होना ही एकमात्र रास्ता है। मुंबई के पायधोनी इलाके में हनुमान मंदिर के बाहर धार्मिक संगीत को लेकर भड़के इस दंगे ने हिंदुओं को आत्मरक्षा की राह दिखाई और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसे हिंदू जागरण का आधार बना दिया। इसी से जन्म हुआ उस सार्वजनिक गणेशोत्सव का, जिसने न सिर्फ महाराष्ट्र बल्कि पूरे भारत में हिंदू चेतना को जगाया और अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिलाकर रख दी।
हिंदुओं को मजबूरन उठानी पड़ी लाठी
हनुमान मंदिर के बाहर बजते संगीत पर आपत्ति जताना और हिंसा भड़काना केवल एक बहाना था। सच्चाई यह थी कि अंग्रेजी सरकार ने मुस्लिम असामाजिक तत्वों को खुली छूट दे रखी थी। जब हिंदू शांतिपूर्वक पूजा-पाठ कर रहे थे, तब उन पर हमला किया गया। स्थिति इतनी बिगड़ी कि सैकड़ों लोग घायल हुए और 75 हिंदू-मुस्लिम नागरिकों की जान चली गई। लेकिन सवाल यह था कि अंग्रेजी प्रशासन कहां था?
जवाब स्पष्ट था कि अंग्रेज हिंदू विरोधी थे। वे जानते थे कि बंटा हुआ हिंदू समाज कभी उनके शासन को चुनौती नहीं दे सकता। इसलिए वे मुसलमानों को ढाल बनाकर हिंदुओं को दबाते रहे। यही कारण है कि तिलक ने लिख डाला “जब सरकार निष्पक्ष नहीं है, तो आत्मरक्षा हिंदुओं का अधिकार है।”
तिलक: हिंदू जागरण के नायक
इस दंगे ने तिलक को निर्णायक सोच दी। उन्होंने समझ लिया कि अगर हिंदू समाज घरों की चौखट तक सीमित रहेगा, तो उसकी शक्ति कभी सामने नहीं आ पाएगी। इसीलिए 1893 के बाद उन्होंने संकल्प लिया कि गणेश उत्सव अब केवल परिवार का नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज का उत्सव होगा।
पुणे से शुरुआत हुई और जल्द ही यह आंदोलन मुंबई, विदर्भ, हैदराबाद और सेंट्रल प्रांत तक फैल गया।
घर-घर का गणपति अब गली-मोहल्लों और शहरों की सड़कों पर आ गया। हर पंडाल में राजनीतिक भाषण, देशभक्ति नाटक और औपनिवेशिक शासन-विरोधी गीत गूंजने लगे। यह था तिलक का मास्टरस्ट्रोक। उन्होंने गणेशोत्सव को हिंदू संगठन और राष्ट्रीय आंदोलन का शक्तिशाली हथियार बना दिया।
अंग्रेजों पर सीधा प्रहार
तिलक का संदेश साफ था कि अंग्रेज हिंदू समाज के दुश्मन हैं। हिंदू अगर संगठित हों तो अंग्रेजी हुकूमत टिक नहीं सकती। उन्होंने स्पष्ट संदेश दिया कि पूजा-पाठ और भक्ति को केवल धार्मिक न मानो, इसे हिंदू अस्मिता और राष्ट्रीय गौरव का हथियार बनाओ। उनके इस संदेश ने मजदूर से लेकर व्यापारी, ब्राह्मण से लेकर गैर-ब्राह्मण तक हर हिंदू को जोड़ दिया। तिलक पहली बार वह नेता बने, जिन्होंने संपूर्ण हिंदू समाज को एकजुट कर दिया।
गणेशोत्सव ने लिया सांप्रदायिकता से राष्ट्रवाद रूप
इस दौरान कुछ जगहों पर शुरू में मुस्लिम तत्वों ने जुलूसों पर हमला किया, लेकिन तिलक ने इस उत्सव पर सांप्रदायिक रंग नहीं चढ़ने दिया। उन्होंने इसे पूरी तरह अंग्रेजों के खिलाफ मोड़ दिया। गणेशोत्सव में गाए जाने वाले गीतों और खेले जाने वाले नाटकों में अंग्रेजों की गुलामी को तोड़ने का आह्वान किया जाने लगा। जुलूसों में लोगों को बताया जाता कि भगवान गणेश की मूर्ति के सामने सिर्फ पूजा नहीं करनी है, बल्कि राष्ट्रमुक्ति की प्रतिज्ञा लेनी है। इतिहासकार जेवी नाइक ने ठीक ही लिखा है कि गणेशोत्सव का मूल उद्देश्य मुस्लिम विरोध नहीं, बल्कि अंग्रेज विरोध था।
हिंदुओं के लिए सबक
1893 का दंगा हिंदुओं के लिए एक करारा सबक था। उस समय बिखरा हिंदू समाज अंग्रेजों और उनके पाले हुए तत्वों का आसान शिकार बना हुआ था। लेकिन जब वही हिंदू एकजुट हुआ तो उसने न केवल अपनी रक्षा की, बल्कि अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती भी दी। तिलक ने इसे साबित कर दिखाया। अब गणेशोत्सव हिंदू संगठन का पर्याय बन गया।
आंदोलन से घबरा गए अंग्रेज भी
इस आंदोलन ने अंग्रेजों को इतना विचलित कर दिया कि 1894 में मुंबई पुलिस को पहली बार सशस्त्र शाखा बनानी पड़ी और बलों में आग्नेयास्त्र शामिल करने पड़े। यह साफ इशारा था कि अंग्रेज समझ गए थे कि हिंदू समाज अब चुप नहीं बैठेगा।
गणेशोत्सव हिंदू शक्ति का प्रतीक
आज हम जो भव्य गणेशोत्सव देखते हैं, उसकी नींव उसी 1893 के दंगे में रखी गई थी। यह त्योहार केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है। यह हिंदू समाज की एकता, आत्मरक्षा, और राष्ट्रीय चेतना का ज्वलंत प्रतीक है।लोकमान्य तिलक ने इस उत्सव को नया जीवन दिया और इसे हिंदू जागरण की ज्वाला बना दिया। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि हिंदू यदि संगठित हों तो अंग्रेजी साम्राज्य जैसी महाशक्ति भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। यही कारण है कि गणेशोत्सव केवल महाराष्ट्र का त्योहार नहीं, बल्कि हिंदू शक्ति और भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का जीवंत प्रतीक है।
तिलक का स्पष्ट संदेश
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इस दौरान स्पष्ट संदेश दिया कि हिंदू अगर बिखरे रहेंगे, तो इतिहास उन्हें बार-बार रौंदेगा। लेकिन अगर संगठित हो जाएंगे, तो वे ही इतिहास लिखेंगे और यही था 1893 के दंगे और गणेशोत्सव का सबसे बड़ा सबक।