17 वर्ष की प्रतीक्षा, 6200 से अधिक दिन और 1 अनकहा नैरेटिव—जिसे सत्ता, मीडिया और राजनीति ने मिलकर गढ़ा था। मालेगांव विस्फोट मामले में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर समेत सातों आरोपितों को न्यायालय ने बाइज्जत बरी कर दिया। यह निर्णय मात्र एक अदालती फैसला नहीं, बल्कि उस समूचे विचारधारा के लिए चरम लज्जा और आत्मालोचना का दर्पण है, जिसने “भगवा आतंकवाद” जैसा शब्द गढ़ा था। भारत की आधुनिक राजनीति में 2004 के बाद का कालखंड “सांप्रदायिकता बनाम सेक्युलरिज्म” के नाम पर खूब खेला गया। लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस सत्ता में गहरी होती गई, सेक्युलरिज्म का अर्थ “हिंदू-विरोध” बनता चला गया।
सितंबर 2006 में महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए विस्फोट में 31 लोगों की जान गई। शुरुआती जांच में पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकी संगठनों के नाम सामने आए। लेकिन राजनीति ने दिशा पलट दी। पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में विस्फोट। हर प्रमाण पाकिस्तान की ISI की ओर इशारा करता रहा, परंतु… तब के गृहमंत्री शिवराज पाटिल और बाद में पी. चिदंबरम ने “हिंदू आतंक” की थ्योरी को पुष्ट करना शुरू किया। हैदराबाद की मक्का मस्जिद में ब्लास्ट के बाद ATS के कुछ अफसरों ने निष्कर्ष निकालने में अधिक रुचि दिखाई, सत्य खोजने में नहीं। तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने एक प्रेस कांफ्रेंस में बाकायदा “भगवा आतंकवाद” शब्द का उपयोग किया। यह भारतीय राजनीति में विचारधारा के विरुद्ध आतंकवाद का प्रथम कलंक था। और फिर, सबसे शर्मनाक मोड़ – बटला हाउस एनकाउंटर (2008) दिल्ली के जामिया नगर इलाके में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई के दौरान एक पुलिस इंस्पेक्टर शहीद हो गया, लेकिन कांग्रेस के बड़े नेताओं की आँखें नम थीं आतंकियों के लिए। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने तो इस एनकाउंटर को “फर्जी” बताने में भी देर नहीं लगाई।
एक तरफ पाकिस्तान से आए आतंकी थे, दूसरी ओर थे भगवा वस्त्रधारी साधु-संत—और कांग्रेस ने तय कर लिया कि वोट-बैंक किसका है। सत्ता समर्थित मीडिया ने भी नैरेटिव की सुई “हिंदू नाम = आतंकी नाम” पर फिक्स कर दी।
एनडीटीवी हो, या द हिन्दू , सभी ने “भगवा आतंकवाद” को सच मान लिया था और वो भी बिना किसी ठोस सबूत के।
जिन्हें साधु कहा जाता था, उन्हें मीडिया ने “फिदायनी” घोषित कर दिया। लेकिन न्याय में देर है, अंधेर नहीं 2024 में विशेष NIA न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि सभी आरोपी दोषमुक्त हैं। कोई सबूत नहीं, कोई साजिश नहीं, बस सियासी स्क्रिप्ट थी और मीडिया की माइक। अब प्रश्न यह नहीं है कि ये लोग निर्दोष क्यों निकले, प्रश्न यह है कि… “17 साल तक इन्हें दोषी किसने बनाए रखा?”
न हिंदू पतितो भवेत्… पर राजनीति सर्वदा पतितो भवेत्…
“न हिंदू पतितो भवेत्” यह केवल मात्र उद्घोष नहीं, आज भारतीय न्यायपालिका की भी मुहर है।
लेकिन कांग्रेस की राजनीति को कौन पूछे? वह तो “सत्ता के लिए सती” भी बना दे और “वोट के लिए विघटन” भी करा दे। इतिहास इस बात का साक्षी है कि कांग्रेस ने अपने फायदे के लिए हर तरह के विघटन को और हर तरह के बंटवारे को स्वीकार किया है, बल्कि अगर यह कहा जाए कि काँग्रेस ने देश के माथे पर विघटन और बटवारा थोपा है तो वह भी गलत नहीं होगा।
आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, यह कांग्रेस कहती रही। लेकिन जब भगवा पर शक हो, तो धर्म सबसे पहले जोड़ देती थी। और जब आतंकवाद में ‘मुहम्मद’ या ‘हाफिज़’ जुड़ जाए, तो उसे “गरीबी”, “अशिक्षा” और “भटके नौजवान” का जामा पहनाया जाता था। अब जब सत्य स्पष्ट है, क्या होगा आत्मचिंतन? क्या कांग्रेस पार्टी कभी इस पर माफी माँगेगी? क्या ‘हिंदू आतंक’ का नैरेटिव गढ़ने वाले पत्रकार सार्वजनिक तौर पर क्षमायाचना करेंगे? क्या 17 साल तक एक सन्यासी स्त्री को “आतंकी” कहने वाले मीडिया चैनल कभी उसका पुनर्वास करेंगे? शायद नहीं। क्योंकि सच्चाई को स्वीकार करना सत्ता की राजनीति का हिस्सा नहीं होता, वहाँ केवल “वोट” मायने रखता है। सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं यह लेख केवल न्याय की जीत नहीं, उस सांस्कृतिक प्रतिशोध का दस्तावेज़ है जिसमें एक पूरे समाज को आतंकवादी साबित करने की चेष्टा की गई।
लेकिन जैसे ही न्यायालय का निर्णय आया, हर झूठ की दीवार दरक गई। अब आवश्यकता है कि हम, भारत के नागरिक, आंख मूंदकर किसी भी नैरेटिव को सच मानने से पहले प्रश्न पूछें, जवाब माँगें, और सच के साथ खड़े हों। क्योंकि एक बात तो सत्य सिद्ध हुई कि हिन्दू कभी आतंकी नहीं हो सकता और हिन्दू आंतक या भगवा आतंक का नैरेटिव झूठा था ।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)