अपनी पत्नी को घूंघट में रखने वाले खान सर, राखी के नाम पर हिंदुओं को क्यों लुभाने की कोशिश कर रहे है?

असल बात खान सर की शादी में घूंघट, क्लास में मजाक या मेल-जोल के दिखावे की नहीं है। असली चिंता उस सोच की है जो हमारे समाज को कमजोर कर रही है।

अपनी पत्नी को घूंघट में रखने वाले खान सर, राखी के नाम पर हिंदुओं को क्यों लुभाने की कोशिश कर रहे है?

आजकल भारत में कुछ लोगों को “धर्मनिरपेक्ष हीरो” बनाने का अजीब शौक हो गया है। सोशल मीडिया और वायरल वीडियो के दौर में पटना के खान सर को ऐसा ही एक नया चेहरा बना दिया गया है। एक हंसते-मुस्कराते मुस्लिम टीचर जो UPSC और SSC जैसे मुश्किल विषयों को बहुत आसान और मजेदार तरीके से समझाते हैं, जैसे कोई दोस्त चाय पर बातचीत कर रहा हो।

उनकी छवि को इस तरह दिखाया जा रहा है कि वो एक आम, जमीन से जुड़ा इंसान हैं जिसे हिंदू और मुस्लिम दोनों छात्र पसंद करते हैं। उनके यूट्यूब वीडियो में देशभक्ति और समाज को जोड़ने की बातें दिखाई जाती हैं।

लेकिन जब इस चमक-दमक को हटाकर गहराई से सोचते हैं, तो सवाल उठता है, आखिर हिंदू समाज को खान सर की मंजूरी की जरूरत क्यों लगती है? और क्या एक ऐसे व्यक्ति को, जिस पर कभी-कभी कट्टर सोच रखने के आरोप लगे हैं, सही में मेल-जोल और एकता का चेहरा बनाया जाना चाहिए? क्या ये सच में दिल से किया गया मेलजोल है, या फिर सिर्फ अपनी छवि को अच्छा दिखाने का एक पुराना तरीका?

‘शादी के घूंघट’ की चर्चा

कई लोगों की राय में खान सर को लेकर सोच तब बदली जब बात उनकी पढ़ाई या क्लास की नहीं, बल्कि उनकी शादी की एक वीडियो से जुड़ी हुई थी। उस वीडियो में उनकी पत्नी की तस्वीरें वायरल हो गईं, जिनमें उन्होंने पूरा घूंघट किया हुआ था। इसके बाद सोशल मीडिया पर कुछ लोग भड़क गए और बोले –”जो अपनी पत्नी का चेहरा तक नहीं दिखाता, वो धर्मनिरपेक्ष आदर्श कैसे हो सकता है?”

खान सर के समर्थकों का मानना है कि ये बात बेकार का विवाद है। उनके मुताबिक, घूंघट करना उनकी पत्नी की अपनी पसंद थी, जो उन्होंने बचपन से सपना देखा था और शादी में पूरा किया।लेकिन आलोचकों को ये बात सही नहीं लगती। उनका कहना है कि ये सिर्फ एक महिला की पसंद नहीं, बल्कि पुरानी और बंद सोच की निशानी है।

मेल-जोल या दिखावा

खान सर रक्षाबंधन जैसे हिंदू त्योहार मनाते हैं, क्लास में हिंदू शास्त्रों की बातें करते हैं और हर धर्म के छात्रों से आसानी से बात करते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि ये उनकी सच्ची सोच है और वो सभी धर्मों को मानते हैं। लेकिन कुछ आलोचक कहते हैं कि ये सब सिर्फ अपनी अच्छी छवि दिखाने के लिए किया जा रहा है।

कुछ हिंदू सोचते हैं कि खान सर जानबूझकर “दोस्ताना मुस्लिम” बनकर हिंदुओं के बीच प्रसिद्ध हो रहे हैं और बाद में अपनी असली सोच दिखा सकते हैं।
दूसरी ओर, कुछ मुसलमान मानते हैं कि वो बहुसंख्यक लोगों को खुश करने के लिए अपनी असली पहचान और विचारों से समझौता कर रहे हैं।

इस तरह दोनों तरफ के लोग उनके इरादों पर शक कर रहे हैं, बस नजरिया अलग है।

जब दिखावे को ही सच्चाई समझ लिया जाए

असल बात खान सर की शादी में घूंघट, क्लास में मजाक या मेल-जोल के दिखावे की नहीं है। असली चिंता उस सोच की है जो हमारे समाज को कमजोर कर रही है। ये मान लेना कि हिंदू बहुसंख्यक तब तक ठीक महसूस नहीं कर सकते जब तक कोई मुस्लिम शख्सियत उन्हें मंजूरी न दे।

यह सोच सिर्फ बेकार नहीं, बल्कि नुकसानदायक भी है।

अगर खान सर का सबके साथ जुड़ना सच्चा है, तो उसे समय के साथ और कठिन हालात में भी वैसा ही दिखना चाहिए, सिर्फ दिखावे से नहीं। और अगर ये सब एक सोची-समझी छवि बनाने की कोशिश है, तो उसे उसी रूप में देखा और समझा जाना चाहिए,  एक दिखावा, न कि देश को जोड़ने की कोशिश।

असली पहचान दिखावे के परे होती है

हिंदुओं को किसी की मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है, और न ही ऐसी तारीफों की जो झूठी कहानियों पर बनी हों। किसी की स्वीकार्यता के पीछे भागना एक फंसाने वाला जाल है। जितनी जल्दी हम इस से बाहर निकलेंगे, उतनी जल्दी हम लोगों को उनके असली रूप में समझ पाएंगे।  दिखावे से ऊपर, मुस्कुराहट के पीछे, और घूंघट के आगे।

 

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