बिहार, जिसे भारतीय इतिहास और संस्कृति का धनी राज्य कहा जाता है, जहां चाणक्य की राजनीति जन्मी, जहां बुद्ध ने ज्ञान का प्रकाश फैलाया और जहां से जेपी आंदोलन ने देश की लोकतांत्रिक धारा को नई दिशा दी—उसी बिहार को 1990 के दशक में “जंगलराज” के नाम से बदनाम किया गया। यह सिर्फ़ एक राजनीतिक नारा नहीं था, बल्कि जनता की सामूहिक स्मृति में दर्ज भय और अराजकता का पर्याय बन गया।
इस “जंगलराज” की जड़ें कहां थीं? क्यों बिहार अपराध और भ्रष्टाचार का अड्डा बन गया? और कैसे इसने आने वाली पूरी राजनीति को आकार दिया? यही सवाल इस अध्याय का केंद्र है।
लालू प्रसाद यादव का उभार और सामाजिक न्याय का वादा
1990 में लालू प्रसाद यादव का सत्ता में आना बिहार की राजनीति के लिए ऐतिहासिक मोड़ था। मंडल आयोग की रिपोर्ट ने पिछड़ों को राजनीतिक चेतना दी थी और लालू यादव ने इसका पूरा लाभ उठाया। उनका नारा था—“भूरा बाल साफ करो” (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला)—यानी सदियों से राजनीति पर हावी ऊंची जातियों को सत्ता से बेदखल करना।
शुरुआती दिनों में यह आंदोलन सामाजिक न्याय और हाशिये पर खड़े समुदायों की आवाज़ बना। गाँव-गाँव में गरीबों और पिछड़ों ने पहली बार महसूस किया कि कोई नेता उनकी भाषा बोल रहा है। लेकिन यही आंदोलन धीरे-धीरे जातिवाद की आग में बदल गया।
अपराध और राजनीति का गठजोड़
लालू यादव का शासन बढ़ते-बढ़ते अपराधियों के लिए खुला दरवाज़ा बन गया। चुनाव जीतने के लिए बाहुबलियों को टिकट दिया गया, जो बाद में सत्ता और प्रशासन पर हावी हो गए। अपराधी नेताओं को खुला संरक्षण मिलता। हत्या, लूट, डकैती और अपहरण की घटनाएं आम हो गईं। कई बार इन घटनाओं में सीधे ruling पार्टी से जुड़े नाम आते, लेकिन कार्रवाई के बजाय अपराधियों को राजनीतिक कवच मिल जाता। इससे एक नई राजनीतिक श्रेणी बनी—“बाहुबली नेता”। ये लोग जेल से चुनाव लड़ते, विधानसभा पहुंचते और मंत्री तक बन जाते। सत्ता और अपराध की यह साझेदारी ही जंगलराज की नींव थी।
अपहरण उद्योग: भय का दूसरा नाम
1990 के दशक के मध्य तक बिहार में “अपहरण उद्योग” फलने-फूलने लगा।
डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर और उद्योगपति अपहरण के शिकार हुए।
बच्चों तक को अगवा कर फिरौती मांगी जाती।
रेलवे स्टेशन और हाईवे से सीधा लोगों को उठा लिया जाता।
अखबारों के पहले पन्ने पर रोज़ ऐसे समाचार छपते। लोग शाम ढलते ही घरों में कैद हो जाते। निवेश ठप हो गया। व्यापारी अपना कारोबार समेटकर दिल्ली, कोलकाता और मुंबई भागने लगे।एक समय तो हालात ऐसे बने कि मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों के प्रोफेसर तक अपहरण कर लिए गए। इसका सीधा असर बिहार की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था पर पड़ा।
महिलाओं और आम जनता का डर
जंगलराज की सबसे भयावह तस्वीर महिलाओं की असुरक्षा थी। सड़क पर निकलना, बस पकड़ना, कॉलेज जाना—हर चीज़ डर से जुड़ी थी। कई रिपोर्ट्स में दर्ज है कि शाम के बाद पटना की सड़कों पर महिलाएं लगभग गायब हो जाती थीं। गांवों में ज़मीनी विवादों को निपटाने का तरीका था—हत्या या सामूहिक हमला। साधारण किसान से लेकर शिक्षक तक, कोई भी सुरक्षित नहीं था।
प्रशासन और पुलिस की नाकामी
कानून-व्यवस्था पूरी तरह चरमराई हुई थी। पुलिस अक्सर अपराधियों की गिरफ्तारी के बजाय सत्ता के दबाव में केस दबा देती। थाने और ब्लॉक ऑफिस भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए। कहा जाता था कि अगर किसी मामले में अपराधी का राजनीतिक संरक्षण है, तो न्याय की उम्मीद करना बेकार है। यही वह दौर था जब जनता का विश्वास राज्य व्यवस्था से उठ गया और हर व्यक्ति खुद को अपने हाल पर छोड़ दिया गया।
पलायन: बिहार की सबसे बड़ी त्रासदी
इस जंगलराज की सबसे बड़ी कीमत बिहार ने अपने मानव संसाधन से चुकाई। लाखों युवाओं ने पढ़ाई और नौकरी के लिए राज्य छोड़ दिया। व्यापारी वर्ग दूसरे राज्यों में बस गया। मजदूरों का पलायन पंजाब, दिल्ली और मुंबई की फैक्ट्रियों की ओर बढ़ा। बिहार का नाम आते ही देशभर में “जंगलराज” का ताना सुनने को मिलता। जो राज्य कभी ज्ञान और संस्कृति का प्रतीक था, वह अब अपराध और पिछड़ेपन का पर्याय बन गया।
“जंगलराज” शब्द का जन्म
राजनीतिक शब्दकोश में “जंगलराज” पहली बार विपक्ष और मीडिया के जरिए गढ़ा गया। यह उस दौर का सही प्रतीक बन गया जहां कानून नहीं, बल्कि ताकतवर का राज चलता था। जिसके पास बंदूक और राजनीतिक संरक्षण था, वही मालिक था। बाकी जनता सिर्फ़ शिकार। धीरे-धीरे यह शब्द इतना प्रचलित हुआ कि बिहार की राजनीति का स्थायी नैरेटिव बन गया।
राजनीति पर असर
लालू यादव के शासनकाल की यही छवि आगे चलकर बीजेपी और नीतीश कुमार के लिए सबसे बड़ा चुनावी हथियार बनी। 2005 में जब नीतीश कुमार ने सत्ता संभाली, तो उन्होंने खुद को “सुशासन बाबू” के रूप में पेश किया—यानी जंगलराज का अंत और विकास का नया दौर। भाजपा ने हर चुनाव में “जंगलराज” शब्द का इस्तेमाल करके आरजेडी को घेरने की रणनीति बनाई। आज भी जब चुनावी माहौल बनता है, तो “जंगलराज” का भूत जनता के मन में तैरने लगता है।
अतीत की परछाई और भविष्य का सवाल
बिहार का जंगलराज सिर्फ़ अपराध और भ्रष्टाचार की कहानी नहीं, बल्कि यह इस बात का सबक है कि जब राजनीति जातिवाद और अपराध से समझौता करती है, तो समाज का ताना-बाना कैसे बिखर जाता है। यह वह दौर था जिसने एक पूरी पीढ़ी को भय, पलायन और असुरक्षा में झोंक दिया। लेकिन इसी दौर ने भाजपा और नीतीश कुमार जैसे नेताओं को मौका दिया कि वे कानून-व्यवस्था और विकास के नाम पर जनता का विश्वास जीतें। आज सवाल यह है कि क्या बिहार ने सचमुच उस दौर से सबक लिया है, या सत्ता बदलते ही इतिहास खुद को दोहराने की तैयारी कर रहा है?