सऊदी–पाकिस्तान रक्षा समझौता: भारत क्यों चिंतित नहीं?

भारत और सऊदी अरब का रिश्ता सिर्फ कूटनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि अर्थव्यवस्था, ऊर्जा और मानव संसाधन तक फैला हुआ है।

सऊदी–पाकिस्तान रक्षा समझौता: भारत क्यों चिंतित नहीं?

भारत के लिए यह परिदृश्य कोई चुनौती नहीं है।

पाकिस्तान इस समय जिस तथाकथित “रणनीतिक रक्षा समझौते” का ढोल पीट रहा है, उसकी असलियत कुछ और है। इस्लामाबाद इसे ऐसे पेश कर रहा है मानो सऊदी अरब ने भारत के खिलाफ उसके लिए सुरक्षा गारंटी जारी कर दी हो। पाकिस्तानी मीडिया के सुर हैं कि अब जंग के हालात बने तो सऊदी के F-15 और यूरोफाइटर पाकिस्तान के लिए आसमान से बरसेंगे। लेकिन हकीकत यह है कि यह समझौता न भारत के खिलाफ है और न ही सऊदी अरब भारत से अपने रिश्तों को दांव पर लगाएगा। असल खेल कहीं और है-मध्य-पूर्व की राजनीति और इस्लामिक दुनिया के भीतर संतुलन।

भारत–सऊदी रिश्तों की असली ताक़त

भारत और सऊदी अरब का रिश्ता सिर्फ कूटनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि अर्थव्यवस्था, ऊर्जा और मानव संसाधन तक फैला हुआ है। वर्ष 2024–25 में भारत–सऊदी व्यापार 41.88 अरब डॉलर तक पहुँच गया-यानी भारत, रियाद का दूसरा सबसे बड़ा साझेदार है। वहीं, पाकिस्तान–सऊदी व्यापार मुश्किल से 3–4 अरब डॉलर का है। यह असमानता ही बताने के लिए काफी है कि रियाद किसे प्राथमिकता देगा।

सऊदी अरब में लाखों भारतीय कामगार रहते हैं, जो न केवल वहां की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा हैं, बल्कि भारत के लिए भारी मात्रा में रेमिटेंस भी भेजते हैं। यह ‘लोगों के बीच का रिश्ता’ किसी भी रक्षा समझौते से कहीं ज़्यादा मजबूत है। रियाद ने साफ कहा है-“हमारे भारत के साथ रिश्ते पहले से कहीं मज़बूत हैं और आगे और बढ़ेंगे।” यह बयान पाकिस्तान की उम्मीदों पर सीधे चोट है।

असली निशाना: इज़राइल न कि भारत

इस समझौते के पीछे सबसे बड़ा कारण भारत नहीं बल्कि इज़राइल है। हाल ही में ग़ज़ा और क़तर पर हुए इज़राइली हमलों ने अरब देशों को हिला दिया। अमेरिका पर पूरी तरह भरोसा करने से झिझक रहे सऊदी अब एक वैकल्पिक “मुस्लिम छत्रछाया” चाहते हैं। पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम वर्षों से रियाद की दिलचस्पी का विषय रहा है। माना जाता है कि सऊदी ने इसके लिए वित्तीय मदद भी दी थी। इसलिए, यह समझौता रियाद की उस रणनीति का हिस्सा है जिसमें वह इज़राइल के संभावित खतरे के जवाब में एक मुस्लिम बहुल परमाणु शक्ति को साथ दिखाना चाहता है।

भारत के लिए यह परिदृश्य कोई चुनौती नहीं है। भारत–इज़राइल रक्षा सहयोग लगातार मज़बूत हो रहा है और सऊदी अरब के लिए भारत, ऊर्जा सुरक्षा और निवेश का सबसे भरोसेमंद साझेदार है। ऐसे में इस्लामाबाद के लिए यह समझौता एक “कागज़ी ढाल” से अधिक कुछ नहीं।

पाकिस्तान के लिए उल्टा बोझ

दिलचस्प यह है कि यह समझौता पाकिस्तान के लिए फायदे से ज्यादा नुकसान ला सकता है। अगर “एक पर हमला = दोनों पर हमला” की शर्त सच में लागू होती है, तो पाकिस्तान को सऊदी के क्षेत्रीय संघर्षों में कूदना पड़ सकता है। ईरान-समर्थित हूथी विद्रोहियों ने सालों से सऊदी पर मिसाइल और ड्रोन हमले किए हैं। अब यह जिम्मेदारी पाकिस्तानी सैनिकों पर भी आ सकती है।

पहले भी 2015 में पाकिस्तान ने यमन युद्ध में सैनिक भेजने से इनकार कर दिया था, जिससे रियाद–इस्लामाबाद रिश्ते में खटास आई थी। लेकिन अब अगर सऊदी दबाव बनाए तो पाकिस्तान के पास “ना” कहने का विकल्प शायद न रहे। यानी भारत से सुरक्षा मिलने के बजाय, पाकिस्तान को ऐसे संघर्षों में फंसना पड़ेगा जिनसे उसका कोई लेना-देना नहीं।

भारत के लिए संदेश साफ

नई दिल्ली ने इस पूरे घटनाक्रम पर संयमित प्रतिक्रिया दी है। भारत जानता है कि यह समझौता प्रतीकात्मक है और सऊदी अरब का असली झुकाव उसकी बढ़ती अर्थव्यवस्था और वैश्विक कद की तरफ है। भारत आज ऊर्जा, प्रौद्योगिकी और सुरक्षा साझेदारी में सऊदी के लिए अपरिहार्य है।

सऊदी की रणनीति साफ है—पाकिस्तान से धार्मिक–ऐतिहासिक जुड़ाव बनाए रखना, लेकिन असली दांव भारत पर लगाना। यही कारण है कि रियाद हर बयान में साफ कर रहा है कि भारत के साथ रिश्ते उसकी प्राथमिकता हैं।

पाकिस्तान की जीत सिर्फ़ मृगतृष्णा

पाकिस्तान चाहे जितना शोर मचा ले, सऊदी–पाकिस्तान रक्षा समझौता उसके लिए किसी सुरक्षा गारंटी से कम और बोझ से ज़्यादा साबित होगा। यह न भारत को चुनौती देता है और न ही दक्षिण एशिया की शक्ति–संतुलन में कोई बदलाव लाता है।

भारत की अर्थव्यवस्था, वैश्विक साझेदारियाँ और रणनीतिक ताक़त इस्लामाबाद के “फंतासी समझौते” से कहीं ऊपर खड़ी हैं। असलियत यही है कि पाकिस्तान जिस ‘नाटो-स्टाइल’ सुरक्षा का सपना देख रहा है, वह महज कल्पना है। रियाद के लिए असली साझेदार भारत ही रहेगा-अब भी और आने वाले समय में भी।

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