वॉशिंगटन से आई इस खबर ने भारत की विदेश नीति पर मुहर लगा दी है। अमेरिकी विदेश विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने साफ कहा है कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान का द्विपक्षीय मामला है और अमेरिका इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। यही नहीं, उन्होंने इस साल के अंत या अगले साल की शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मुलाकात की पुष्टि भी कर दी है।
अमेरिका का यह संदेश केवल एक राजनयिक औपचारिकता नहीं है। यह उस बदले हुए भू-राजनीतिक परिदृश्य की तस्वीर है, जिसमें भारत अब नियम मानने वाला देश नहीं, बल्कि नियम तय करने वाला साझेदार बन चुका है। यही भारत और पीएम मोदी के नैरेटिव की सबसे बड़ी जीत है। हालांकि, ट्रंप कब क्या करें, यह कहा नहीं जा सकता।
पाकिस्तान को गहरा झटका
बता दें कि बीते वर्षों में पाकिस्तान ने हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर मुद्दे को उठाने की कोशिश की। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान से लेकर विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो तक, हर कोई इसके लिए वॉशिंगटन से मदद की गुहार करता रहा। खुद ट्रंप ने भी 2019 और फिर इस साल मई में मध्यस्थता की पेशकश कर दी थी।
लेकिन भारत ने साफ कर दिया कि कश्मीर पर किसी तीसरे देश का कोई अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद तो यह रुख और भी दृढ़ हो गया। अमेरिका का नया बयान पाकिस्तान के लिए यह संदेश है कि उसकी तमाम कोशिशों के बावजूद दुनिया अब भारत का पक्ष ही स्वीकार कर रही है।
बीजेपी नेताओं का कहना है कि यह मोदी सरकार की दृढ़ विदेश नीति का नतीजा है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर बार-बार कहते रहे हैं कि “भारत के हित सर्वोपरि हैं” और आज अमेरिका का बदला रुख उसी सिद्धांत की सफलता को दर्शाता है।
मोदी की कूटनीति का असर
2014 के बाद से भारत–अमेरिका रिश्तों में एक खास बदलाव आया है। जहां मनमोहन सिंह सरकार के दौर में संबंध अधिकतर संकोची सहयोग तक सीमित थे, वहीं मोदी सरकार ने इन्हें रणनीतिक साझेदारी में बदल दिया।
2014 में मोदी का अमेरिका दौरा और मैडिसन स्क्वायर गार्डन में भारतीय समुदाय को संबोधन ने नई शुरुआत की।
2017 में ह्यूस्टन का ‘Howdy Modi’ आयोजन, जिसमें ट्रंप ने मोदी का हाथ थामकर कहा था कि “भारत का दोस्त अमेरिका का दोस्त है,” ने रिश्तों को राजनीतिक ऊर्जा दी।
डिफेंस, टेक्नोलॉजी और ऊर्जा सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में करारों ने भारत और अमेरिका के साझेदारी को गहराई दी।
आज अमेरिका की “इंडो-पैसिफिक” रणनीति के केंद्र में भारत है। वॉशिंगटन भलीभांति जानता है कि चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने में भारत की भूमिका निर्णायक है। यही कारण है कि अमेरिका भारत के रुख को गंभीरता से ले रहा है—चाहे वह रूस से तेल खरीद का मामला हो या कश्मीर जैसा संवेदनशील मुद्दा।
QUAD और हिंद-प्रशांत
अमेरिकी अधिकारी ने संकेत दिया है कि QUAD देशों का शिखर सम्मेलन जल्द तय होगा। भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया का यह गठबंधन अब केवल संवाद का मंच नहीं, बल्कि सुरक्षा और सामरिक संतुलन की धुरी बन चुका है।
भारत ने बार-बार कहा है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता तभी संभव है जब सभी देश स्वतंत्र और समान अधिकार से काम करें। चीन की विस्तारवादी नीति के सामने यह साझेदारी बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती है। अमेरिका भी मानता है कि भारत के बिना यह ढांचा अधूरा है। इधर, मोदी सरकार ने भारत को “नेट सिक्योरिटी प्रोवाइडर” की भूमिका में ला खड़ा किया है। यानी अब भारत केवल अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं करता, बल्कि क्षेत्रीय शांति का गारंटर भी बनता है।
रूस से ऊर्जा खरीद: स्वतंत्र नीति
अमेरिका ने माना है कि भारत की रूस से ऊर्जा खरीद को लेकर बातचीत सकारात्मक दिशा में है। इसका मतलब साफ है कि भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों से समझौता नहीं किया। जब यूरोप और अमेरिका रूस पर प्रतिबंध लगाने की अपील कर रहे थे, तब भारत ने साफ कहा कि वह अपने नागरिकों के लिए सस्ती ऊर्जा खरीदता रहेगा। उर्जा सुरक्षा और भारत का हित हमारी प्राथमिकता है।
यह वही स्वतंत्र विदेश नीति है, जिसे भारत “स्ट्रैटेजिक ऑटोनॉमी” कहता है। यानी किसी भी शक्ति-गुट का अंधानुकरण नहीं, बल्कि अपने हितों के आधार पर फैसले। अमेरिका का अब इसे स्वीकार करना भारत की बढ़ती ताकत का संकेत है।
भारत का बढ़ता कद
इस मामले को लेकर भाजपा नेताओं का कहना है कि कश्मीर पर अमेरिका का पीछे हटना भारत की कूटनीति की विजय है। पाकिस्तान का अलग-थलग पड़ना उसकी नीतियों की असफलता है।QUAD और हिंद-प्रशांत में भारत की सक्रिय भूमिका उसके बढ़ते वैश्विक कद का सबूत है। रूस से ऊर्जा खरीद पर स्वतंत्र रुख भारत की संप्रभुता को दर्शाता है। मोदी सरकार ने दिखा दिया कि भारत अब मांगने वाला नहीं, शर्तें तय करने वाला राष्ट्र है।
भारत और अमेरिका के रिश्तों में उतार-चढ़ाव भले ही हों, लेकिन दिशा साफ है-दोनों साझेदारी को और गहराई देंगे। पाकिस्तान के लिए यह साफ संदेश है कि कश्मीर पर उसकी दलीलों का अब कोई अंतरराष्ट्रीय खरीदार नहीं बचा।
ट्रंप–मोदी मुलाकात न सिर्फ दोनों नेताओं की व्यक्तिगत केमिस्ट्री को आगे बढ़ाएगी, बल्कि यह प्रतीक भी होगी कि भारत की आवाज़ अब वैश्विक राजनीति में निर्णायक है। दुनिया के बदलते समीकरणों के बीच एक बात साफ है-भारत अब पिछली कतार का खिलाड़ी नहीं, बल्कि शक्ति-संतुलन की धुरी बन चुका है।