आज जब दुनिया मानवाधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र की बातें करती है, तब बांग्लादेश की ज़मीन पर हो रहे अत्याचारों पर सबने चुप्पी साध रखी है। यह वही बांग्लादेश है, जिसका जन्म 1971 में उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ हुआ था। लेकिन आज हालात यह हैं कि हिंदुओं और गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए यह भूमि नर्क में बदल चुकी है।
1971 से शुरू हुई त्रासदी
पाकिस्तान काल में ही हिंदुओं को “भारत समर्थक” बताकर उनकी ज़मीनें छीनी गईं, घर जलाए गए और बड़े पैमाने पर पलायन कराया गया। 1971 के मुक्ति संग्राम में लाखों हिंदुओं ने बलिदान दिया और भारत ने अपने सैनिकों का खून बहाकर बांग्लादेश को आज़ाद कराया।
लेकिन आज यही सवाल खड़ा होता है: क्या यह बलिदान व्यर्थ गया? क्योंकि जिस देश की नींव सेक्युलर पहचान पर रखी गई थी, वही आज मजहबी कट्टरता का गढ़ बन गया है।
अल्पसंख्यक हिंदू लगातार निशाने पर
1947 में जहां हिंदुओं की आबादी 28–30% थी, वहीं आज यह 8% से भी कम रह गई है। यह केवल जनसंख्या का उतार-चढ़ाव नहीं, बल्कि एक सुनियोजित ‘एथनिक क्लीनज़िंग’ का सबूत है। ढाका स्थित मानवाधिकार संगठन ऐन ओ सलीस केंद्र (ASK) की ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि साल 2025 की पहली तिमाही में 342 बलात्कार के मामले दर्ज हुए। इनमें से 87% पीड़िताएं 18 वर्ष से कम उम्र की थीं और 40 मामले तो नवजात और छह वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के थे।
यह तो केवल दर्ज मामलों की गिनती है। असलियत इससे कहीं ज्यादा भयावह है। अधिकांश परिवार पुलिस और प्रशासन से डरकर शिकायत तक दर्ज नहीं कराते।
राजनीतिक प्रतिशोध या धार्मिक कट्टरता?
हर बार कहा जाता है कि यह हिंसा “राजनीतिक प्रतिशोध” का नतीजा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या लगातार महीनों तक मासूम बच्चियों का बलात्कार और परिवारों का पलायन राजनीति है? या फिर यह मजहबी कट्टरता की वह सच्चाई है जिसे छिपाने की कोशिश की जाती है? सच यही है कि बांग्लादेश में हिंदू होना ही सबसे बड़ा अपराध है।
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के योद्धाओं तक पर हमले
विडंबना यह है कि अब 1971 के युद्ध के नायक भी निशाने पर हैं। हाल ही में ढाका की अदालत ने 16 लोगों को आतंकवाद विरोधी कानून के तहत जेल भेजा। इनमें 70 वर्ष से अधिक उम्र के पूर्व सैनिक और नेता शामिल थे। इनमें पूर्व मंत्री अब्दुल लतीफ सिद्दीकी, प्रोफेसर हाफिजुर रहमान, और पत्रकार मांजरुल आलम पाना जैसे नाम भी शामिल हैं।
सोचने वाली बात है कि जिन लोगों ने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई लड़ी, उन्हें आज “फासीवादी” और “आतंकवादी” कहा जा रहा है। यह बताता है कि कट्टरपंथियों ने शासन व्यवस्था पर कितना गहरा कब्ज़ा जमा लिया है।
ऐसे समझें, बांग्लादेश में हिंदुओं की स्थिति
1947 – विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में हिंदुओं की आबादी लगभग 28–30%।
1951–1970 – पाकिस्तान शासनकाल: हिंदुओं पर ज़ुल्म, ज़मीन जब्ती, पलायन।
1971 – मुक्ति संग्राम: लाखों हिंदुओं का कत्लेआम, भारत ने दिलाई आज़ादी। हिंदुओं की आबादी 22%।
1980 – इस्लाम राज्य धर्म घोषित, हिंदुओं पर हमले तेज़।
2001 – चुनावों के बाद हिंदू घरों और मंदिरों पर बड़े हमले।
2013 – अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण के फैसलों के बाद कट्टरपंथी हिंसा।
2021 – दुर्गापूजा दंगे: चांदपुर, नोआखाली और रंगपुर में मंदिर जलाए गए।
2025 – ASK रिपोर्ट: 3 महीने में 342 बलात्कार, 87% नाबालिग पीड़िताएं।
आज – हिंदुओं की आबादी घटकर 8% से भी कम।
भारत की खामोशी और अंतरराष्ट्रीय चुप्पी
भारत ने 1971 में लाखों शरणार्थियों को आश्रय दिया और अपने सैनिकों का बलिदान देकर बांग्लादेश को जन्म दिया। लेकिन आज भारत चुप है। न तो कोई बड़ा आंदोलन दिखता है, न कोई ठोस राजनीतिक पहल। संयुक्त राष्ट्र और पश्चिमी दुनिया, जो गाज़ा और रोहिंग्या के लिए आवाज़ उठाती है, उन्हें ढाका और चटगांव के हिंदुओं की चीख सुनाई नहीं देती। यह दोहरा चरित्र हिंदुओं के लिए गहरी पीड़ा है।
हिंदुओं की पीड़ा – भारत की जिम्मेदारी
हिंदू न तो धर्मांतरण कर लेने वाली कौम है और न ही अपनी आस्था छोड़ सकती है। यही कारण है कि वे कट्टरपंथियों के लिए सबसे बड़ा निशाना बन जाते हैं।
भारत के लिए यह केवल पड़ोसी देश की आंतरिक समस्या नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक जिम्मेदारी है। बांग्लादेश के हिंदू हमारी साझा सभ्यता के प्रतीक हैं। यदि वे समाप्त हो गए, तो यह पूरी क्षेत्रीय अस्मिता का अंत होगा।
आगे का रास्ता
भारत को स्पष्ट नीति अपनानी होगी – शरणार्थियों को सुरक्षा और नागरिकता मिले।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर आवाज उठे – ढाका पर दबाव बने।
कट्टरपंथियों पर कार्रवाई – मंदिरों और हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।
समाज को जागरूक किया जाए – ताकि इस मुद्दे को दबाया न जा सके।
बांग्लादेश का सच यही है कि अब वहां हिंदुओं के लिए जीवन असंभव होता जा रहा है। बच्चियों का बलात्कार, मंदिरों की तोड़फोड़, घर जलाना और मुक्ति संग्राम के नायकों को जेल भेजना, यह सब बताता है कि यह देश अपनी आत्मा खो चुका है। भारत को अब चुप नहीं रहना चाहिए। हिंदुओं की सुरक्षा केवल उनका ही नहीं, बल्कि हमारी राष्ट्रीय जिम्मेदारी है। क्योंकि अगर हम आज बांग्लादेश के हिंदुओं की चीख को अनसुना करेंगे, तो कल वही त्रासदी हमारे लिए भी खड़ी हो सकती है।