जुलाई की उमस भरी शाम थी। बक्सर ज़िले के सहार थाना क्षेत्र का छोटा-सा गाँव बथानी टोला हमेशा की तरह अपनी धीमी रफ़्तार में था। गरीब दलित और मुस्लिम मज़दूर दिनभर खेतों में काम करके लौटे थे। बच्चे खेल रहे थे, औरतें चूल्हे पर रोटियाँ सेक रही थीं, और आदमी अपने-अपने घरों की चौखट पर बैठकर बातचीत में डूबे थे। लेकिन उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि कुछ ही देर बाद इस गाँव की मिट्टी खून से लाल हो जाएगी और बिहार की राजनीति में “जंगलराज” शब्द हमेशा के लिए दर्ज हो जाएगा।
शाम ढलते ही दूर से आती तेज़ कदमों और बूटों की आहट ने गाँव को असहज कर दिया। अचानक गोलियों की गूँज सुनाई दी। रणवीर सेना के हथियारबंद लोग बथानी टोला में घुस आए थे। उनके हाथों में रायफलें और देसी कट्टे थे, आँखों में नफरत और क्रूरता। यह हमला अचानक नहीं था। यह सुनियोजित और सोची-समझी जातीय हिंसा थी। देखते ही देखते गोलीबारी शुरू हो गई, चीख-पुकार मच गई। बच्चे अपनी माँओं की गोद में छिप गए, औरतें दरवाज़ों को बंद करने लगीं, लेकिन हथियारबंद लोग किसी को छोड़ने वाले नहीं थे।
करीब दो घंटे तक गाँव में मौत का तांडव चलता रहा। रणवीर सेना ने 21 निर्दोष लोगों को बेरहमी से मार डाला। उनमें औरतें थीं, छोटे-छोटे बच्चे थे, यहाँ तक कि छह महीने का शिशु भी था। गाँव की मिट्टी में लहू बह रहा था, हवा चीखों से भर गई थी। बथानी टोला का यह नरसंहार सिर्फ हत्या नहीं था, यह संदेश था—जब तक बिहार में जंगलराज है, ऐसा ही होगा। दलित सवर्णों को मारेंगे तो सवर्ण भी दलितों को। लालू राज इसी रोटी को सेकते हुए चलता रहा।
इस घटना की पृष्ठभूमि गहरी थी। बिहार के गाँवों में सदियों से ज़मींदार और दलित-गरीबों का टकराव चलता आया था। 1990 के दशक में यह टकराव और तेज़ हुआ। एक ओर दलित और पिछड़े वर्ग के लोग भूमि सुधार और बेहतर मजदूरी की माँग कर रहे थे। नक्सल आंदोलन ने गरीब किसानों को आवाज़ दी थी। दूसरी ओर ज़मींदार वर्ग, खासकर भूमिहार, इस आंदोलन को कुचलने के लिए रणवीर सेना जैसी निजी सशस्त्र सेनाओं का सहारा ले रहे थे। रणवीर सेना का नाम सुनते ही गरीबों में डर बैठ जाता था। वे दलित बस्तियों पर धावा बोलते, आग लगाते, औरतों को मारते-पीटते और गाँव के गाँव खौफ़ के साए में डाल देते।
लेकिन बथानी टोला का मामला अलग था। यहाँ मारे गए लोग सिर्फ दलित नहीं थे, बल्कि उनमें मुसलमान भी थे। यानी यह हमला जातीय और साम्प्रदायिक दोनों स्तरों पर किया गया था। यह उस राजनीति का हिस्सा था, जिसमें सत्ता और जाति का गठजोड़ गरीबों को कुचलने के लिए एक साथ खड़ा था।
उस समय बिहार पर लालू प्रसाद यादव की सरकार थी। वे “सामाजिक न्याय” के नायक कहलाते थे। उनके शासन की सबसे बड़ी ताकत यही थी कि उन्होंने पिछड़ों और दलितों को आवाज़ दी। लेकिन बथानी टोला ने इस दावे को खोखला कर दिया। लोग पूछने लगे कि अगर यह सामाजिक न्याय का राज है, तो गरीबों की हत्याएँ कौन रोक रहा है? पुलिस क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठी रही? रणवीर सेना जैसे संगठन इतने निडर होकर गाँवों में कत्लेआम कैसे कर रहे थे?
घटना के बाद लालू सरकार ने बयान दिए, अफसरों का दौरा हुआ, जाँच कमिटी बनी, लेकिन सच्चाई यह थी कि प्रशासन की भूमिका संदिग्ध रही। पुलिस हमलावरों को पकड़ने में नाकाम रही, और जिनको गिरफ्तार किया भी गया, वे अदालत में आसानी से छूट गए। गवाहों को डराया-धमकाया गया, कई ने बयान बदल दिए। निचली अदालत ने कुछ दोषियों को सज़ा सुनाई, लेकिन पटना हाईकोर्ट ने सबूतों की कमी बताकर अधिकतर को बरी कर दिया। पीड़ित परिवारों ने न्याय के लिए वर्षों तक अदालतों की चौखट पर सिर पटका, लेकिन उन्हें केवल निराशा मिली।
बथानी टोला नरसंहार ने सिर्फ़ 21 जिंदगियाँ नहीं छीनीं, उसने पूरे राज्य के दिल में खौफ़ भर दिया। गाँव-गाँव में यह चर्चा होने लगी कि बिहार में कानून का राज नहीं, बल्कि अपराधियों और जातीय सेनाओं का राज है। यहीं से “जंगलराज” शब्द बिहार की राजनीति से चिपक गया। अखबारों और टीवी चैनलों ने लालू शासन को “जंगलराज” कहना शुरू किया, और यह छवि इतनी गहरी बनी कि बाद के चुनावों में भी यही विपक्ष का सबसे बड़ा हथियार रहा।
आज भी जब बथानी टोला का नाम लिया जाता है तो लोगों की रूह काँप जाती है। बुज़ुर्ग बताते हैं कि उस रात की चीखें अब भी उनके कानों में गूँजती हैं। पीड़ित परिवार अब भी गरीबी और न्याय की तलाश के बीच जी रहे हैं। कई परिवार गाँव छोड़कर कहीं और चले गए। सरकारें बदलती रहीं, मुख्यमंत्री बदलते रहे, लेकिन बथानी टोला का दर्द जस का तस रहा।
यह नरसंहार बिहार की राजनीति का वह काला पन्ना है, जिसे पलटा नहीं जा सकता। इसने दिखा दिया कि जब सत्ता और अपराध मिल जाते हैं, तो इंसाफ़ कितनी आसानी से कुचल दिया जाता है। यह घटना इस बात का सबूत है कि जंगलराज सिर्फ अपराध नहीं था, बल्कि सत्ता की मिलीभगत और जातीय राजनीति की विफलता थी। बथानी टोला की त्रासदी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि लोकतंत्र में अगर सबसे गरीब और बेबस नागरिक भी सुरक्षित नहीं है, तो फिर उस लोकतंत्र की असलियत क्या रह जाती है। बिहार ने जंगलराज का सबसे खौफ़नाक चेहरा उसी दिन देखा था, और शायद इतिहास कभी इस कलंक को मिटा नहीं पाएगा।