साल 1999 की ठंडी शाम। सीवान की गलियों में दीपावली के बाद की चहल-पहल धीरे-धीरे थम रही थी। चंचल अपने दोनों भाइयों—गिरीश और सतीश—के साथ घर लौटा ही था। तीनों की हंसी-ठिठोली अब भी हवा में गूंज रही थी, लेकिन अगले कुछ घंटों में यह हंसी हमेशा के लिए ख़ामोशी में बदल जाने वाली थी। दरवाज़े पर आहट हुई। कुछ लोग आए और कहा-“साहब बुला रहे हैं।” गांव में सब समझते थे कि ‘साहब’ कौन हैं। यह नाम कोई खुलकर नहीं लेता था, मगर हर घर के दिल में डर बनकर धड़कता था-मोहम्मद शहाबुद्दीन।
चंचल और उसके भाइयों पर शक था कि उन्होंने शहाबुद्दीन के घर से मोबाइल चुराया है। बस इतना ही। मगर, इस मामूली शक का अंजाम इतना भयानक होगा, इसका अंदाज़ा किसी को नहीं था। रात ढली। गांव में सन्नाटा पसरा। कुछ घंटों बाद चंचल लहूलुहान हालत में घर लौटा। उसकी आंखों में खौफ, होंठों पर कांपते शब्द-“उन्होंने मेरे भाइयों को तेज़ाब से नहला दिया… जिंदा जला दिया।” उसकी यह चीख पूरे बिहार के माथे पर दाग बनकर रह गई।
चंचल की कहानी, बिहार की कहानी
चंचल की मां बार-बार बेहोश हो जातीं। गली-मोहल्ले की औरतें छाती पीट-पीटकर रो रही थीं। मगर कोई पुलिस थाने जाने की हिम्मत नहीं करता। सब जानते थे कि पुलिस भी उसी की है, जो सीवान का असली शासक है। चंचल ने अकेले हिम्मत जुटाई और बयान दिया। उसने साफ कहा कि यह सब शहाबुद्दीन के आदमी कर रहे थे। लेकिन महीनों तक मुकदमा रजिस्टर नहीं हुआ। गवाहों को धमकियां मिलीं, परिवार पर दबाव पड़ा। गांव का माहौल डर से पथरा गया।
मगर मीडिया ने इस घटना को छुपने नहीं दिया। हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा-“सिवान में सांसद के इशारे पर दो युवकों को तेज़ाब से जलाया गया।” बीबीसी ने रिपोर्ट किया-“सिवान अब कानून का नहीं, अपराध का गढ़ बन चुका है।”
जंगलराज का साया
उस समय बिहार में यह कोई अकेली घटना नहीं थी। अपहरण, रंगदारी और हत्या का ऐसा दौर था कि लोग इसे ‘जंगलराज’ कहने लगे। माता-पिता बच्चों को स्कूल भेजने से डरते थे। व्यापारी अपने घरों से निकलने से पहले भगवान से दुआ करते। और चुनावों के समय बूथ कैप्चरिंग को लोग सामान्य मान चुके थे।
सीवान में तो हालात और भी भयावह थे। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 2002 में लिखा-“शहाबुद्दीन केवल सांसद नहीं, पूरे जिले का शासक है। प्रशासन और पुलिस उसकी इजाज़त से सांस लेते हैं।” तेज़ाब कांड इस जंगलराज की भयावहता का प्रतीक बन गया।
पत्रकारिता पर भी तेजाब
इस मामले की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को धमकियां मिलीं। सिवान के पत्रकारों ने बताया कि अखबार छापने से पहले सोचते थे-“कल जिंदा रहेंगे या नहीं।” 2016 में, जब तेज़ाब कांड के गवाह चंचल अभी भी इंसाफ की लड़ाई लड़ रहा था, उसी दौरान हिंदुस्तान अखबार के पत्रकार राजदेव रंजन की गोली मारकर हत्या कर दी गई। अखबारों ने लिखा-“सिवान में कलम चलाना मौत को न्योता देने जैसा है।”
अदालत की धीमी चाल, मगर जीत इंसाफ की
तेज़ाब कांड की फाइल सालों तक धूल फांकती रही। गवाह बदलते रहे, जिरह होती रही। लेकिन चंचल ने हार नहीं मानी। उसने अपने भाइयों के लिए लड़ाई जारी रखी। आख़िरकार 2016 में पटना हाईकोर्ट ने शहाबुद्दीन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। फैसले में लिखा गया-“यह मामला बताता है कि जब राजनीति और अपराध मिल जाते हैं तो न्याय तक पहुँचना कठिन हो जाता है। मगर कानून का राज अंततः कायम रहता है।”
उस दिन चंचल की आँखों में आंसू थे। यह खुशी के नहीं, बल्कि थके हुए दिल के आंसू थे। उसने कहा-“मेरे भाइयों को तो मैं कभी नहीं लौटा सकता, लेकिन अब कम से कम यह सुकून है कि सच हार नहीं गया।”
बिहार की आत्मा पर लगा दाग
तेज़ाब कांड केवल दो भाइयों की हत्या की कहानी नहीं है, यह उस दौर की कहानी है जब बिहार का लोकतंत्र अपराधियों की जेब में था। जब संसद के गलियारों में ऐसे लोग घूमते थे जिनसे गाँव के बच्चे डरते थे। 2005 में नीतीश कुमार ने जब ‘सुशासन’ का नारा दिया, तो लोगों ने राहत की सांस ली। शहाबुद्दीन जैसे बाहुबलियों पर शिकंजा कसा गया। मगर बिहार की आत्मा पर लगा यह दाग आज भी मिटा नहीं है।
चंचल की कहानी हमें यह सिखाती है कि लोकतंत्र केवल चुनाव जीतने का नाम नहीं। यह उस छोटे लड़के की सुरक्षा का भी वादा है, जो डर के साए में जी रहा है। बिहार ने जंगलराज का अंधेरा देखा है, तेज़ाब कांड जैसी भयावह त्रासदी झेली है। यह अतीत बार-बार याद दिलाता है कि अगर सत्ता अपराधियों की ढाल बन गई, तो इंसाफ तक पहुंचने का रास्ता लंबा और खतरनाक हो जाता है।
फिर भी, चंचल की आंखों से देखा जाए तो यह कहानी अधूरी नहीं है। क्योंकि अंततः अदालत ने कहा-“कानून का राज ही जीतेगा।”