कम्युनिस्टों का रामभजन से डर: जन्माष्टमी यात्रा पर हमला और केरल की बदलती तस्वीर

केरल में जन्माष्टमी कोई साधारण पर्व नहीं है। बालगोपाल और बालगोपालिनी के वेश में हजारों बच्चे हर साल शोभा यात्राओं में भाग लेते हैं।

कम्युनिस्टों का रामभजन से डर: जन्माष्टमी यात्रा पर हमला और केरल की बदलती तस्वीर मासूमियत पर बरसा लाल आतंक

कोझिकोड की जन्माष्टमी यात्रा पर हमला केवल एक घटना नहीं, बल्कि चेतावनी है।

केरल में जन्माष्टमी कोई साधारण पर्व नहीं है। बालगोपाल और बालगोपालिनी के वेश में हजारों बच्चे हर साल शोभा यात्राओं में भाग लेते हैं। 14 सितंबर की शाम, कोझिकोड जिले के नारिप्पट्टा गांव की गलियां भक्ति और उल्लास से गूंज रही थीं। जन्माष्टमी का पर्व था, और गांव के बच्चे मोरपंख, पीताम्बर और मुकुट धारण किए हुए छोटे-छोटे कृष्ण और राधा बने सड़कों पर निकले थे। उनके साथ हजारों भक्त शोभा यात्रा में शामिल थे। ढोल-नगाड़ों की थाप और शंख की ध्वनि वातावरण में गूंज रही थी।

जुलूस आगे बढ़ रहा था कि अचानक लाउडस्पीकर पर रामभजन बजा—“राम नाम गुन गाइए”। जैसे ही भजन गूंजा, दृश्य बदल गया। भीड़ में घुस आए सीपीएम कार्यकर्ताओं ने लाठियों और डंडों से हमला बोल दिया। पल भर में आनंदमयी यात्रा चीखों और अफरा-तफरी में बदल गई। छोटे-छोटे बच्चों पर वार हुए, कई माता-पिता लहूलुहान हो गए। जिनके हाथों में माखन-मटकी थी, वे अब अपने घायल बच्चों को बचाने के लिए दौड़-भाग कर रहे थे। यह दृश्य केवल हिंसा का नहीं, बल्कि उस कटु सच्चाई का प्रतीक था—जहाँ भक्ति-गीत बजाना भी अपराध बना दिया गया है।

त्योहारों पर लगातार हमले: क्या यह संयोग है?

केरल में जन्माष्टमी कोई साधारण पर्व नहीं है। बालगोपाल और बालगोपालिनी के वेश में हजारों बच्चे हर साल शोभा यात्राओं में भाग लेते हैं। यह केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और सामाजिक समरसता का उत्सव है। लेकिन अब इन यात्राओं पर हमले एक खतरनाक पैटर्न का रूप ले चुके हैं।

कन्नूर का उदाहरण: चित्तरिपरम्बु में सीपीएम कार्यकर्ताओं ने खुलेआम क्षेत्र को “आरएसएस-मुक्त क्षेत्र” घोषित कर शोभा यात्रा को रोकने की कोशिश की।

अलप्पुझा की घटना: डाईएफआई कार्यकर्ताओं ने चे ग्वेरा के झंडे लहराते हुए यात्रा को बाधित किया। इसमें कई लोग घायल हुए, जिनमें एक छोटी बच्ची के कान पर गंभीर चोट लगी।

सबरीमाला विवाद: जब परंपरा को तोड़ने की कोशिश की गई, तब भी हिंसा और आस्था का अपमान खुलेआम हुआ।

यह घटनाएं दिखाती हैं कि यह महज़ राजनीतिक विरोध नहीं, बल्कि सुनियोजित हमला है। हिंदू परंपराएँ और त्योहार बार-बार निशाने पर लिए जा रहे हैं।

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य: त्योहारों पर हमले का पैटर्न

केवल केरल ही नहीं, पूरे भारत में धार्मिक आयोजनों को हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। सरकारी आंकड़े इस पैटर्न की पुष्टि करते हैं। 2020 में भारत में 857 साम्प्रदायिक हिंसा के मामले दर्ज हुए। 2021 में यह संख्या करीब 378 रही। 2024 में स्थिति और चिंताजनक रही—59 साम्प्रदायिक दंगों में से 26 दंगे धार्मिक त्योहारों या शोभा यात्राओं के दौरान भड़के। यह आंकड़े बताते हैं कि त्योहार और धार्मिक जुलूस अक्सर असहिष्णुता और हिंसा का केंद्र बन जाते हैं। और दिलचस्प है कि इनमें अधिकतर झड़पें हिंदू त्योहारों के दौरान ही होती हैं।

केरल की पृष्ठभूमि: आस्था और हिंसा का इतिहास

केरल की धरती सांस्कृतिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता की प्रतीक रही है, लेकिन यहां भी सांप्रदायिक तनाव की गहरी परतें हैं।

Marad Massacre (2003): कोझिकोड जिले के मराड में 8 हिंदू मछुआरों की हत्या कर दी गई थी। अदालत ने इस मामले में दोषियों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई।

सबरीमाला प्रकरण (2018): भगवान अयप्पा मंदिर की परंपरा तोड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद जबरन प्रवेश करवाने की कोशिश हुई, जिसके चलते पूरे राज्य में भारी असंतोष और झड़पें हुईं।

ये घटनाएं दिखाती हैं कि केरल में धार्मिक आस्था और राजनीतिक विचारधारा का टकराव कोई नया नहीं है।

भक्ति से घृणा क्यों?

इस हमले का सबसे विचलित करने वाला पहलू यह है कि हिंसा का ट्रिगर केवल एक राम भजन था। आखिर एक भक्ति गीत इतना असहनीय क्यों लग गया। सीपीएम की वैचारिक राजनीति में आस्था को “पिछड़ेपन” का प्रतीक मान लिया गया है। लेकिन बात केवल विचारधारा तक सीमित नहीं है। इस तरह के हमले यह संकेत देते हैं कि हिंदू परंपराओं के सार्वजनिक प्रदर्शन से वामपंथी राजनीति असहज होती है। उन्हें डर है कि यदि हिंदू समाज अपनी सांस्कृतिक जड़ों से मजबूत हुआ तो उनकी विचारधारा कमजोर पड़ जाएगी।

यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है: क्या वे ऐसी हिम्मत किसी अन्य धर्म के त्योहार के खिलाफ दिखा सकते हैं? क्या वे मुहर्रम की ताजिया या ईस्टर की शोभायात्रा को रोक सकते हैं? शायद नहीं। क्योंकि वहाँ वोटबैंक का दबाव है। हिंदू समाज को वे “सॉफ्ट टारगेट” मानते हैं—जहाँ मारो और चुप रहो की राजनीति चलती है।

राजनीतिक मौन और मीडिया की चुप्पी

हिंसा जितनी भयावह थी, उतनी ही खामोश रही राजनीति और मीडिया। जिन चैनलों पर छोटी सी घटना पर “ब्रेकिंग न्यूज़” चलती है, वहाँ बच्चों पर हमले की यह खबर हाशिए पर डाल दी गई।मुख्यधारा के अखबारों और टीवी चैनलों ने या तो इसे छोटा बनाकर दिखाया या पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। यही मौन उन हमलावरों को और ताकत देता है। राजनीति भी अपने हिसाब से चुप है। सत्ता में बैठी सीपीएम सरकार के लिए यह “अस्वस्थ करने वाला सवाल” है, जबकि विपक्ष भी इस पर केवल प्रतीकात्मक बयान तक सीमित रहता है। क्योंकि किसी को अपने वोटबैंक की चिंता है, किसी को “सेक्युलर छवि” की। यह वही मीडिया और राजनीति है, जिसने सबरीमाला आंदोलन को “कट्टरता बनाम प्रगतिशीलता” का तमाशा बना दिया था। लेकिन जब निर्दोष बच्चों पर हमले होते हैं, तब वही “प्रगतिशीलता” मौन हो जाती है।

धर्म पर सीधा प्रहार

यह हमला केवल लोगों के शरीर पर नहीं था, बल्कि यह आस्था पर सीधा प्रहार था। त्योहार केवल पूजा या अनुष्ठान नहीं, बल्कि समाज की आत्मा और संस्कृति का उत्सव होते हैं। जब उन पर हमला होता है तो दरअसल पूरी सभ्यता को चोट पहुँचाई जाती है। सीपीएम का यह रवैया बताता है कि उनकी राजनीति अब वर्ग संघर्ष से आगे बढ़कर सांस्कृतिक संघर्ष पर केंद्रित हो गई है। और यह संघर्ष खतरनाक है क्योंकि यह लोगों की पहचान और परंपरा से सीधा टकराता है।

कानूनी दृष्टि और धार्मिक स्वतंत्रता

भारत का संविधान धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। फिर भी बार-बार यह सवाल उठता है कि क्या बहुसंख्यक समुदाय वास्तव में इस स्वतंत्रता का लाभ उठा पा रहा है? Religious Institutions (Prevention of Misuse) Act, 1988 को लेकर केरल हाई कोर्ट में याचिकाएं दाखिल हुई हैं, जिनमें मांग की गई कि मंदिरों को राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखा जाए। अमेरिका की 2023 की धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में कभी-कभी हिंदू त्योहारों की सार्वजनिक शोभा यात्राओं को लेकर झड़पें होती हैं, खासकर तब जब वे दूसरे समुदाय-बहुल क्षेत्रों से गुजरती हैं। यानी कानूनी ढांचा मौजूद है, लेकिन उसका पालन और व्यावहारिक असर कमजोर पड़ रहा है।

केरल की सांस्कृतिक आत्मा पर हमला

केरल कभी “देवभूमि” कहा जाता था। यहां की संस्कृति, मंदिर और त्योहार समाज को जोड़ने वाले सूत्र थे। लेकिन अब हालात यह हैं कि बच्चे कृष्ण और राधा बनकर भी सुरक्षित नहीं रह सकते। त्योहारों पर हमले केवल हिंसा नहीं हैं; यह केरल की आत्मा पर हमला है। यह उस धारा को काटने की कोशिश है जिसने इस भूमि को हजारों वर्षों से जीवित रखा।

क्या हिंदू समाज मौन रहेगा?

सबसे बड़ा सवाल यही है: क्या हिंदू समाज इस पर मौन रहेगा? क्या बार-बार अपने त्योहारों पर हमले झेलकर भी वह “सहिष्णुता” का बोझ ढोता रहेगा? इतिहास गवाह है—जब समाज अपनी संस्कृति की रक्षा नहीं करता, तब उसकी पहचान मिट जाती है। अगर आज जन्माष्टमी यात्रा पर हमला सह लिया गया, तो कल दीपावली, दुर्गा पूजा और गणेशोत्सव भी निशाने पर होंगे।

मौन तोड़ने का समय

कोझिकोड की जन्माष्टमी यात्रा पर हमला केवल एक घटना नहीं, बल्कि चेतावनी है। यह संकेत है कि यदि आज आवाज़ नहीं उठाई गई तो कल भक्ति और संस्कृति के सारे प्रतीक खतरे में होंगे। त्योहार केवल धार्मिक रस्में नहीं, बल्कि समाज की आत्मा और पहचान का आईना होते हैं। उन पर हमला केवल लाठियों से नहीं, बल्कि पूरी सभ्यता पर हमला होता है। आज यह सवाल हर हिंदू से है: क्या वह इस सब पर चुप रहेगा, या अपनी आस्था और संस्कृति की रक्षा के लिए आवाज़ उठाएगा?

क्योंकि जन्माष्टमी के मासूम बालकृष्णों पर बरसी लाठियां केवल उनके शरीर पर नहीं पड़ीं; वह चोट सीधे धर्म, संस्कृति और पहचान पर पड़ी है। यही वजह है कि इस घटना को केवल “हिंसा” नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आक्रमण समझना होगा।

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