युद्ध की शुरुआत में, 6 सितंबर को ही 3 JAT ने डोगराई पर हमला कर पाकिस्तान को चौंका दिया। उन्होंने न केवल कस्बा क़ब्ज़ा किया बल्कि इच्छोगिल नहर भी पार कर ली। यह पल भारतीय सेना के लिए रोमांचक और निर्णायक था। सितंबर 1965 की ठंडी रात थी। अंधेरे की चादर में लिपटा लाहौर का बाहरी इलाका सन्नाटे में डूबा था। लेकिन इस सन्नाटे के पीछे तनाव और इंतजार की लहरें दौड़ रही थीं। भारतीय सेना की 3 जाट बटालियन उस रात इतिहास रचने निकली थी। उनका लक्ष्य था — डोगराई, लाहौर से मात्र कुछ किलोमीटर दूर वह कस्बा, जिसे पाकिस्तान ने “अजेय क़िला” बताया था।
डोगराई सिर्फ़ एक कस्बा नहीं था। उसकी रणनीतिक स्थिति ने इसे युद्ध का केंद्र बना दिया था। इसके नियंत्रण का मतलब था पाकिस्तान के आपूर्ति मार्गों को काटना और उनके गृहनगर की सुरक्षा पर प्रत्यक्ष दबाव डालना। पाकिस्तान ने इस कस्बे को किसी भी हमले के लिए कड़ा किला बना रखा था — खतरनाक बारूदी सुरंगें, बंकर, तोपें और टैंक सभी जगह तैनात थे।
पहला प्रयास और सिखावन
युद्ध की शुरुआत में, 6 सितंबर को ही 3 JAT ने डोगराई पर हमला कर पाकिस्तान को चौंका दिया। उन्होंने न केवल कस्बा क़ब्ज़ा किया बल्कि इच्छोगिल नहर भी पार कर ली। यह पल भारतीय सेना के लिए रोमांचक और निर्णायक था। लेकिन सहायता का अभाव उनके लिए मुसीबत बन गया और उन्हें पीछे हटना पड़ा। उस वापसी ने सैनिकों के मन में एक गहरी टीस छोड़ दी। विजय उनके सामने थी, लेकिन हाथ से फिसल गई। यही टीस उन्हें और अधिक दृढ़ और संगठित बना गई।
संतपुरा में तैयारी और मानसिक प्रशिक्षण
8 से 21 सितंबर तक 3 जाट संतपुरा में तैनात रहा। पाकिस्तानी तोपखाने ने रोज़ बमबारी की। लेकिन 3 JAT के सैनिकों का मनोबल टूटने की बजाय मजबूत हुआ। उन्होंने इलाके की हर झाड़ी, हर खाई और हर मकान की स्थिति याद कर ली। नियमित गश्त और खुफिया जानकारी ने उन्हें हर संभावित खतरे से अवगत किया। इस दौरान उनके नेतृत्व का केंद्र बने लेफ्टिनेंट कर्नल डेसमंड हाइड, जिनकी सादगी, अनुशासन और सैनिकों के साथ व्यक्तिगत संबंध ने बटालियन को एक परिवार बना दिया। उनके नेतृत्व में, 3 JAT ने हर परिस्थिति का सामना करने का आत्मविश्वास हासिल किया।
निर्णायक रात: 21–22 सितंबर
अंधेरे की चादर में 3 JAT ने गुप्त रूप से आगे बढ़ना शुरू किया। पाकिस्तानी तोपखाने और मशीनगनों की आवाज़ें सुनाई दीं, लेकिन भारतीय सैनिक अपनी योजना के अनुरूप घर-घर, गली-गली, बंकर-बंकर लड़ाई लड़ते गए। यह लड़ाई नज़दीकी संघर्ष और कठिन परिस्थितियों में हुई। हथगोले, बंदूकें, और तेज़ आवाज़ वाले बंकरों के बीच सैनिकों ने अनुशासन नहीं खोया। कुछ घंटों में, डोगराई का क़िला ढह गया। 300 से अधिक पाकिस्तानी सैनिक मारे गए, कई घायल हुए और उनका कमांडिंग अफ़सर भारतीय सैनिकों के कब्ज़े में आया।
पाकिस्तान की मानसिक चोट
डोगराई का पतन पाकिस्तान के लिए सिर्फ़ सैन्य हार नहीं थी, बल्कि मनोवैज्ञानिक झटका भी था। जिस कस्बे को अजेय बताया गया था, वह भारतीय जाटों की तैयारी और साहस के सामने ढह गया। पाकिस्तानी सेना के तत्कालीन कमांडर भी हतप्रभ थे। पाकिस्तान की ओर से पलटवार और टैंक हमले हुए, लेकिन भारतीय सैनिकों की दृढ़ता ने सभी प्रयास विफल कर दिए। इस विजय ने न केवल सैनिकों का मनोबल बढ़ाया, बल्कि पाकिस्तान के सैनिकों और नागरिकों में भय भी भर दिया।
अंतरराष्ट्रीय दबाव और भारत की रणनीति
वास्तविक रणनीति तब सामने आई जब अंतरराष्ट्रीय दबाव ने भारत को आगे बढ़ने से रोका। यह साबित करता है कि युद्ध केवल मैदान पर नहीं, बल्कि कूटनीति और वैश्विक राजनीति में भी जीता या हारा जाता है। डोगराई की लड़ाई से भारतीय नेतृत्व ने यह भी सीखा कि सैन्य सफलता का लाभ तभी पूर्ण होता है जब वह राजनीतिक और कूटनीतिक संतुलन में रहे।
आज के संदर्भ में डोगराई
डोगराई की लड़ाई आज भी भारतीय सेना के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यह दिखाती है कि छोटी बटालियन भी सही तैयारी, नेतृत्व और साहस के दम पर बड़ी चुनौती को पार कर सकती है। कारगिल, उरी और बालाकोट जैसी कार्रवाइयों में भी यही मानसिकता झलकती है। आज, जब भारत-पाक सीमा पर तनाव रहता है, डोगराई की गाथा सैनिकों को यह याद दिलाती है कि युद्ध में मानसिक तैयारी, अनुशासन और साहस निर्णायक होते हैं। यह भी याद दिलाती है कि दुश्मन के मिथक को तोड़ना हमेशा संभव है।
सैनिकों का बलिदान और नेतृत्व
लेफ्टिनेंट कर्नल हाइड और उनके सैनिकों ने दिखा दिया कि नेतृत्व केवल आदेश देने का नाम नहीं, बल्कि अपने सैनिकों के साथ जुड़ने, उनकी क्षमता समझने और उन्हें प्रेरित करने का नाम है। 3 JAT ने दिखाया कि व्यक्तिगत साहस और सामूहिक अनुशासन का संयोजन किसी भी चुनौती को पार कर सकता है। यह ही कारण है कि डोगराई की लड़ाई आज भी सैन्य अकादमियों में पढ़ाई जाती है।
21–22 सितंबर 1965 की रात भारतीय इतिहास का हिस्सा ज़रूर है, लेकिन उसका महत्व आज भी कम नहीं हुआ। डोगराई हमें यह याद दिलाती है कि जब सैनिक ठान लें, तो कोई भी बाधा उन्हें रोक नहीं सकती। यह कहानी सिर्फ़ युद्ध की विजय नहीं, बल्कि बलिदान, अनुशासन, नेतृत्व और साहस की अमर गाथा है। आज भी, भारतीय सेना के जवान इसे याद कर अपने कर्तव्य और साहस को प्रेरित करते हैं। डोगराई सिर्फ़ एक कस्बा नहीं रहा, यह भारत की शौर्यगाथा और अटूट साहस का प्रतीक बन गया।