काठमांडू की पतली गलियों में जब युवा नारों के साथ सड़कों पर उतरे थे, तब किसी ने नहीं सोचा था कि कुछ ही दिनों में नेपाल की राजनीति इस कदर बदल जाएगी। संसद भंग हो चुकी थी, सरकार गिर चुकी थी और सत्ता के गलियारों में बेचैनी थी। ठीक तीन दिन बाद राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने जिस नाम का ऐलान किया, उसने न केवल नेपाल बल्कि पूरे दक्षिण एशिया को चौंका दिया-पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की अब नेपाल की अंतरिम प्रधानमंत्री होंगी।
उनका नाम इसीलिए अलग महत्व रखता है कि वह 2016 में नेपाल की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनी थीं और उनकी छवि एक सख़्त, ईमानदार और भ्रष्टाचार-विरोधी न्यायाधीश की रही है। जब राजनीति अविश्वास और अस्थिरता से डगमगा रही हो, तो ऐसा चेहरा ही जनता को उम्मीद देता है। लेकिन नेपाल की राजनीति को समझना केवल आंतरिक समीकरणों तक सीमित नहीं है। हर बार यह सवाल भी खड़ा होता है कि पड़ोसी भारत इस पर क्या सोचता है। यही कारण है कि कार्की के प्रधानमंत्री बनते ही सबकी नज़र दिल्ली पर टिक गई।
तख़्तापलट और जनाक्रोश
बीते महीनों में नेपाल में जिस तरह से छात्र-युवा आंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा, उसे मीडिया ने “Gen Z Protests” कहा। ये आंदोलन केवल बेरोज़गारी या आर्थिक बदहाली तक सीमित नहीं थे। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और यहां तक कि सोशल मीडिया पर पाबंदियों ने युवाओं को गुस्से में ला दिया।
प्रचंड सरकार इन आंदोलनों को संभालने में नाकाम रही। परिणाम यह हुआ कि सितंबर 2025 की शुरुआत में सत्ता समीकरण अचानक उलट गए। संसद भंग कर दी गई और सत्ता का शून्य पैदा हो गया। यही वह पल था जब राष्ट्रपति पौडेल ने देश को अस्थिरता से बचाने के लिए कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाने का फ़ैसला किया।
न्यायपालिका से सत्ता तक
सुशीला कार्की की पहचान न्यायपालिका की दुनिया से रही है। उनका करियर हमेशा विवादों से लड़ता रहा। 2016 में वह नेपाल की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनीं और अपने कार्यकाल में उन्होंने कई अहम फैसले दिए। वे भ्रष्टाचार-विरोधी रुख़ के लिए जानी गईं और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मज़बूत करने के लिए खड़ी रहीं। इस छवि ने उन्हें राजनीति के उस कठिन मोड़ पर भरोसे का चेहरा बना दिया, जब जनता नेताओं से लगभग उम्मीद खो चुकी थी। उनकी नियुक्ति केवल संवैधानिक व्यवस्था को संभालने की कवायद नहीं, बल्कि यह संदेश भी है कि नेपाल को फिलहाल एक साफ़-सुथरे नेतृत्व की ज़रूरत है।
भारत की प्रतिक्रिया
नेपाल के इस बदलाव पर सबसे पहले प्रतिक्रिया आई भारत से। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ‘एक्स’ पर लिखा: “नेपाल की अंतरिम सरकार की प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण करने पर सुशीला कार्की को हार्दिक बधाई। भारत नेपाल के भाइयों और बहनों की शांति, प्रगति और समृद्धि के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।”
भारतीय मीडिया ने इसे केवल औपचारिक बधाई नहीं माना। ‘द ट्रिब्यून’ ने पूर्व राजदूत रंजीत रे के हवाले से लिखा कि कार्की की नियुक्ति नेपाल में स्थिरता ला सकती है क्योंकि चुनाव तक देश को संभालने के लिए भरोसेमंद चेहरा बेहद ज़रूरी है। वहीं ‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ ने रिपोर्ट किया कि भारत की त्वरित प्रतिक्रिया इस बात का संकेत है कि दिल्ली कार्की को संक्रमणकालीन नेतृत्व के रूप में स्वीकार कर चुकी है। यहां तक कि ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने भी लिखा कि भारत का संदेश स्पष्ट है—दिल्ली फिलहाल किसी टकराव में नहीं पड़ना चाहता और चाहता है कि नेपाल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया शांतिपूर्ण ढंग से आगे बढ़े।
रिश्तों का इतिहास और मौक़ा
भारत और नेपाल का रिश्ता हमेशा गहरा रहा है, लेकिन उतार-चढ़ाव से भरा भी। 2015 में जब नेपाल ने नया संविधान लागू किया, तो सीमावर्ती तराई इलाकों में भारत के हस्तक्षेप को लेकर विवाद हुआ और सीमा नाकेबंदी ने दोनों देशों के बीच खटास पैदा की। चीन ने इसका फ़ायदा उठाया और नेपाल में अपनी पकड़ मज़बूत की।
हाल के वर्षों में भारत ने कोशिश की कि रिश्तों को पटरी पर लाया जाए। पीएम मोदी ने बार-बार कहा कि पड़ोसी पहले हैं और नेपाल भारत की “नेबरहुड फर्स्ट” नीति का अहम हिस्सा है। लेकिन नेपाल की आंतरिक राजनीति, खासकर चीन की मौजूदगी, हमेशा भारत के लिए चुनौती रही है। कार्की की नियुक्ति भारत के लिए अवसर है। उनकी छवि तटस्थ है और उनके नेतृत्व में भारत यह उम्मीद कर सकता है कि चुनाव तक नेपाल में राजनीतिक संतुलन बना रहेगा।
नेपाली और भारतीय मीडिया की दृष्टि
नेपाल के प्रमुख अख़बारों ने कार्की की नियुक्ति को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा। ‘द हिमालयन टाइम्स’ ने लिखा कि कार्की की छवि सख़्त और ईमानदार नेता की है, लेकिन राजनीति में उनका सफ़र आसान नहीं होगा। ‘काठमांडू पोस्ट’ ने इसे जनता के ग़ुस्से और विश्वासघात के बीच संतुलन साधने की कोशिश बताया। भारत के मीडिया ने इसे रणनीतिक नज़रिए से देखा। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने कहा कि भारत की बधाई यह संकेत है कि दिल्ली इस संक्रमण को समर्थन देता है। ‘द ट्रिब्यून’ ने लिखा कि कार्की का आना एक “stabilising influence” है और यह नेपाल के लिए राहत की बात हो सकती है।
चुनाव की ओर बढ़ता नेपाल
अंतरिम प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद कार्की ने पहला बड़ा फ़ैसला किया—5 मार्च 2026 को आम चुनाव कराने की घोषणा। राष्ट्रपति पौडेल ने इसे मंज़ूरी भी दे दी। लेकिन चुनौती अभी बाकी है। नेपाल की राजनीति बंटी हुई है। सेना की भूमिका को लेकर संदेह है। चीन और भारत दोनों की नज़र इस संक्रमणकाल पर है। ऐसे में कार्की के लिए यह केवल संवैधानिक नहीं बल्कि भू-राजनीतिक परीक्षा भी है।
नेपाल की राजनीतिक यात्रा: अस्थिरता से अंतरिम सत्ता तक
नेपाल की हाल की राजनीति को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना ज़रूरी है। 1990 का जनआंदोलन देश में संवैधानिक राजशाही लेकर आया था। फिर 2006 का दूसरा बड़ा आंदोलन हुआ, जिसने राजशाही को पूरी तरह ख़त्म कर दिया और नेपाल गणराज्य बन गया। 2008 में माओवादी नेता प्रचंड पहली बार प्रधानमंत्री बने और ऐसा लगा कि देश स्थिरता की ओर बढ़ेगा।
2015 में नया संविधान लागू हुआ, लेकिन भारत-नेपाल संबंध सीमा विवाद से बिगड़ गए। इसके अगले ही साल, 2016 में, सुशीला कार्की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनीं और अपनी साफ़ छवि के लिए सुर्ख़ियों में आईं। लेकिन राजनीतिक अस्थिरता खत्म नहीं हुई। सरकारें गिरती-बनती रहीं, चीन का दबदबा बढ़ता रहा और जनता का भरोसा कम होता गया।
सितंबर 2025 में संसद भंग हुई और तख़्तापलट जैसी स्थिति बन गई। तभी राष्ट्रपति पौडेल ने कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया। भारत ने तुरंत बधाई दी और प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत नेपाल की शांति और प्रगति के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है। अब सबकी नज़रें 5 मार्च 2026 पर हैं, जब चुनाव होंगे और नेपाल यह तय करेगा कि उसका लोकतांत्रिक भविष्य किस दिशा में जाएगा।
संक्रमणकाल में नेपाल की राजनीति
नेपाल की राजनीति एक बार फिर संक्रमणकाल में है। सुशीला कार्की का प्रधानमंत्री बनना लोकतंत्र की एक कठिन परीक्षा है। उनकी छवि ईमानदार है, लेकिन राजनीतिक पेचीदगियाँ अलग किस्म की चुनौती हैं। भारत ने बधाई देकर यह संकेत दे दिया है कि वह इस संक्रमण को स्थिरता और शांति के नजरिंए से देख रहा है।
आने वाले महीनों में कार्की का नेतृत्व केवल नेपाल के लिए ही नहीं बल्कि भारत-नेपाल रिश्तों और पूरे दक्षिण एशिया की राजनीति के लिए अहम होगा। मार्च 2026 को होने वाले चुनाव ही तय करेंगे कि सुशीला कार्की का नाम इतिहास में सिर्फ़ एक अंतरिम अध्याय के रूप में याद किया जाएगा या नेपाल के लोकतंत्र को नए मुकाम तक ले जाने वाले नेता के रूप में।