लालू का चारवाहा विद्यालय: गरीबों के सपनों का कब्रिस्तान

1992 में 113 विद्यालय खुले, बाद में 192 तक बढ़े। करोड़ों रुपये खर्च दिखाए गए। लेकिन न भवन बने, न किताबें पहुंचीं, न शिक्षक पढ़ाने आए।

लालू का चारवाहा विद्यालय: गरीबों के सपनों का कब्रिस्तान

योजना ने पिछड़ों और गरीबों के बच्चों को शिक्षा से जोड़ने का दावा किया, लेकिन असल में उन्हें और पिछड़ा दिया।

1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने सत्ता में रहते हुए जो सबसे बड़ा प्रयोग किया, वह था—चारवाहा विद्यालय योजना। दावा था कि गरीब चरवाहों और किसानों के बच्चे अब मवेशी चराते-चराते भी पढ़ाई कर सकेंगे। लेकिन यह योजना साबित हुई बिहार के इतिहास की सबसे बड़ी विफलता।

कागज़ी योजना, बर्बाद भविष्य

1992 में 113 विद्यालय खुले, बाद में 192 तक बढ़े। करोड़ों रुपये खर्च दिखाए गए। लेकिन न भवन बने, न किताबें पहुंचीं, न शिक्षक पढ़ाने आए। 2005 की CABE (Central Advisory Board of Education) रिपोर्ट में कहा गया— “चारवाहा विद्यालय शिक्षा के नाम पर संसाधनों की बर्बादी साबित हुए। इनमें से अधिकांश विद्यालय केवल कागज़ों पर संचालित रहे।”

गरीबों का टूटा भरोसा

दरभंगा, समस्तीपुर, मधुबनी जैसे इलाकों में बच्चों ने पढ़ाई की उम्मीद की थी। लेकिन मास्टर महीनों तक नहीं आए। एक किसान ने कहा—“मेरा बच्चा तीन साल चारवाहा स्कूल गया, पर नाम तक लिखना न सीख पाया। अब वही पंजाब में ईंट ढोता है।” यह केवल एक परिवार की कहानी नहीं, बल्कि हजारों परिवारों की त्रासदी थी।

सामाजिक असर: शिक्षा से कटे गरीब

निरक्षरता बढ़ी: 1991 से 2001 की जनगणना के बीच बिहार की साक्षरता दर सिर्फ 13% बढ़ी (38.5% से 51.5%)—देश में सबसे कम। विशेषज्ञ मानते हैं कि चारवाहा विद्यालय जैसी असफल योजनाओं ने इस गिरावट में बड़ा योगदान दिया।

गरीबी और पलायन: जिन बच्चों को शिक्षा से जोड़ना था, वे फिर से मजदूरी और पशुपालन में लौट गए। पढ़ाई न होने के कारण लाखों युवाओं को रोज़गार के लिए पंजाब, दिल्ली और हरियाणा जैसे राज्यों की ओर पलायन करना पड़ा।

सामाजिक असमानता: योजना ने पिछड़ों और गरीबों के बच्चों को शिक्षा से जोड़ने का दावा किया, लेकिन असल में उन्हें और पिछड़ा दिया। दूसरी ओर, प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे आगे निकलते गए।

आर्थिक असर: बर्बाद संसाधन

सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये चारवाहा विद्यालय पर खर्च दिखाए गए। कम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (CAG) की रिपोर्ट (2004) ने भी इस योजना पर सवाल उठाए, और कहा कि “फंड का उपयोग पारदर्शी नहीं था।” नतीजा यह हुआ कि शिक्षा पर खर्च हुआ पैसा राज्य के विकास में कोई योगदान नहीं दे पाया।

राजनीतिक छल और वोट बैंक

“इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली” (2006) ने लिखा था-“चारवाहा विद्यालय का उद्देश्य शिक्षा नहीं, बल्कि गरीबों को सपना दिखाकर राजनीतिक समर्थन जुटाना था।” लालू यादव ने गरीबों को पढ़ाई का वादा किया, लेकिन असलियत में उन्हें गरीबी और अज्ञानता की जंजीरों में जकड़ दिया।

आज तक बिहार चुका रहा है इस धोखे की कीमत

चारवाहा विद्यालय केवल एक असफल प्रयोग नहीं था। यह उस दौर का प्रतीक है जब बिहार की राजनीति ने विकास को कुचलकर जातिवाद, अवसरवाद और भ्रष्टाचार को प्राथमिकता दी। इस योजना ने गरीबों के बच्चों का भविष्य छीना, पलायन को बढ़ाया, निरक्षरता कायम रखी और राज्य की अर्थव्यवस्था को कमजोर किया।

आज जब लोग बिहार के पिछड़ेपन की जड़ें तलाशते हैं, तो चारवाहा विद्यालय उस जड़ का सबसे बड़ा उदाहरण बनकर सामने आता है। लालू प्रसाद यादव ने गरीबों को पढ़ाई नहीं, सिर्फ धोखा दिया। और इस धोखे की कीमत बिहार आज तक चुका रहा है।

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