लक्ष्मणपुर बाथे: एक रात, जब 58 ज़िंदगियां बुझा दी गईं, भारत के दलितों का शोकगीत

1990 के दशक का बिहार, हिंसा और जातिगत संघर्षों का गढ़ बन चुका था। एक ओर भूमि सुधार और सामाजिक न्याय की राजनीति का नारा था, तो दूसरी ओर ज़मींदारी वर्चस्व और नक्सली आंदोलन की टकराहट।

लक्ष्मणपुर बाथे: एक रात, जब 58 ज़िंदगियां बुझा दी गईं, भारत के दलितों का शोकगीत

लक्ष्मणपुर बाथे सिर्फ़ एक नरसंहार नहीं था। यह दलित राजनीति की धुरी भी बना।

बिहार के औरंगाबाद ज़िले की सोनई नदी के किनारे बसा एक छोटा सा गांव—लक्ष्मणपुर बाथे। आज यह नाम भारतीय राजनीति और न्याय व्यवस्था की उस काली रात का प्रतीक बन चुका है, जब 1 दिसंबर 1997 को मात्र कुछ घंटों में 58 दलितों की हत्या कर दी गई। शिशु से लेकर वृद्ध तक, कोई भी इस नरसंहार से बच नहीं पाया। लक्ष्मणपुर बाथे की यह घटना न केवल बिहार की जातिगत राजनीति का वीभत्स चेहरा उजागर करती है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा करती है कि जब राज्य पर जंगलराज हावी हो, तो इंसान की जान की कीमत कितनी सस्ती हो जाती है।

नरसंहार की पृष्ठभूमि

1990 के दशक का बिहार, हिंसा और जातिगत संघर्षों का गढ़ बन चुका था। एक ओर भूमि सुधार और सामाजिक न्याय की राजनीति का नारा था, तो दूसरी ओर ज़मींदारी वर्चस्व और नक्सली आंदोलन की टकराहट। मगध और भोजपुर का इलाका उस दौर में नक्सलियों और रणवीर सेना की लड़ाई का अखाड़ा बना हुआ था। रणवीर सेना खुद को ऊंची जातियों के किसानों का रक्षक बताती थी और दलित-भूमिहीन मजदूरों के उभार को दबाने के लिए कुख्यात थी। लक्ष्मणपुर बाथे गांव में दलितों की बड़ी आबादी थी, जिनकी ज़िंदगी खेतिहर मजदूरी और गरीबी में गुजरती थी। इसी संघर्ष की आग 1 दिसंबर 1997 को इस गांव में उतरी।

खून से सनी रात

उस रात करीब 100 से अधिक सशस्त्र रणवीर सेना के सदस्य गांव में दाखिल हुए। अंधेरे में टॉर्च और हथियारों के साथ, उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को बाहर खींचा। औरतें, बच्चे, बूढ़े—किसी पर भी रहम नहीं किया गया। 58 लोग, जिनमें 27 महिलाएं और 10 बच्चे शामिल थे, गोलियों और धारदार हथियारों से मार डाले गए। चार साल की बच्ची से लेकर 60 साल के वृद्ध तक, किसी को बख्शा नहीं गया। गांव वालों की चीखें उस रात सोनई नदी तक गूंज उठीं, लेकिन सत्ता के कानों तक नहीं पहुंचीं।

“हमने सिर्फ़ लाशें देखीं”

नरसंहार के बाद जब सुबह की पहली किरण फूटी, तो पूरा गांव खून से लथपथ था। एक ही परिवार के पांच-पांच सदस्य मारे गए थे।
एक महिला का बयान था: “मैंने अपने बच्चे को छिपाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने मेरी आंखों के सामने उसका सिर कुचल दिया।” पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार, यह सिर्फ़ हत्या नहीं थी, बल्कि संदेश देने वाली हिंसा थी—कि दलित अगर उठने की कोशिश करेंगे, तो उनकी यही परिणति होगी।

राजनीतिक हलचल

नरसंहार के तुरंत बाद पूरा बिहार सुलग उठा। विपक्ष ने राज्य में लालू प्रसाद यादव की सरकार को कटघरे में खड़ा किया। सवाल यह था कि बिहार सरकार दलितों को सुरक्षा देने में नाकाम क्यों रही। लालू यादव ने आरोप लगाया कि यह “रणवीर सेना की सुनियोजित कार्रवाई” है और कहा कि अपराधियों को बख्शा नहीं जाएगा।

लेकिन, सच यही था कि 90 के दशक का बिहार अपराधियों के लिए स्वर्ग बन चुका था। पुलिस की भूमिका भी सवालों के घेरे में थी—रात भर कोई गश्त क्यों नहीं थी? गाँव तक पुलिस पहुँचने में इतनी देर क्यों लगी?

और नहीं मिला न्याय

मामले की सुनवाई सालों चली। 2010 में, एक विशेष अदालत ने 26 अभियुक्तों को दोषी ठहराते हुए 16 को फाँसी और 10 को उम्रकैद की सज़ा सुनाई। यह फैसला उस दौर में दलितों के लिए न्याय की किरण माना गया। लेकिन 2013 में, पटना हाई कोर्ट ने सबूतों की कमी बताते हुए सभी आरोपियों को बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा: “गवाहियों में विरोधाभास है और अभियोजन पक्ष ठोस सबूत पेश करने में विफल रहा।”

यह फैसला दलित समुदाय के लिए नए सदमे से कम नहीं था। पीड़ित परिवारों ने कहा, “अगर इतने बड़े नरसंहार में भी कोई दोषी नहीं है, तो फिर न्याय का मतलब क्या रह गया?”

राष्ट्रीय आक्रोश और मीडिया की भूमिका

मीडिया ने इस घटना को देश के सबसे बड़े दलित नरसंहार के रूप में सामने रखा। अखबारों में यह हेडलाइन बनी: “भारत के दलितों का शोकगीत।” मानवाधिकार संगठनों ने सवाल उठाया कि अगर यह नरसंहार किसी अल्पसंख्यक या बड़े राजनीतिक समुदाय के साथ हुआ होता, तो क्या न्याय इतना कमजोर पड़ जाता?

सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंचा, लेकिन बरी किए गए अभियुक्त फिर से जेल नहीं भेजे जा सके। आज तक यह गांव न्याय की तलाश में है।

गांव की गवाही, 27 साल बाद

2024–25 में भी जब लक्ष्मणपुर बाथे का जिक्र होता है, तो लोग बताते हैं कि उस रात के जख्म अब तक भरे नहीं। कई परिवार अब भी विस्थापित हैं। गांव के बच्चे पढ़ाई छोड़कर शहरों में मज़दूरी करते हैं। मृतकों की याद में बना स्मारक अब वीरान पड़ा है।

एक बचे हुए बुज़ुर्ग ने कहा: “सरकारें आती-जाती रहीं, लेकिन हमारे ज़ख्म कभी नहीं भरे। हमें इंसाफ़ नहीं, सिर्फ़ भूख और दर्द मिला।”

दलित राजनीति और नरसंहार की गूंज

लक्ष्मणपुर बाथे सिर्फ़ एक नरसंहार नहीं था। यह दलित राजनीति की धुरी भी बना। मायावती और अन्य दलित नेताओं ने इसे दलितों के खिलाफ़ साजिश बताया। बिहार की सामाजिक न्याय की राजनीति ने इसे अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल किया। लेकिन, अंतिम सत्य यही है कि पीड़ित परिवारों को न्याय और मुआवज़ा, दोनों अधूरे मिले।

जंगलराज का आईना

यह नरसंहार इस बात का प्रतीक है कि जब राज्य असफल हो, तो अपराधी खुलेआम समाज पर हावी हो जाते हैं। 1990 का दशक और विशेषकर यह कांड, बिहार के जंगलराज की जड़ें दिखाता है—जहां कानून, न्याय और इंसानियत सब हाशिए पर चले गए।

लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार सिर्फ़ दलितों के खिलाफ़ हिंसा नहीं था, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र पर धब्बा था। 58 निर्दोषों की हत्या और फिर दशकों तक खिंची न्याय की लड़ाई ने यह साबित कर दिया कि जब राजनीति और जातीय सत्ता के समीकरण इंसाफ़ से बड़े हो जाएँ, तो सबसे बड़ी कीमत गरीब और वंचित समुदाय को चुकानी पड़ती है।

आज भी जब इस गांव का नाम लिया जाता है, तो यह सवाल गूंजता है—क्या उन 58 आत्माओं को कभी सच्चा न्याय मिलेगा?

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