ऑपरेशन पोलो: जब दिल्ली में बम गिराने जा रहा था पाकिस्तान

पाकिस्तान किसी भी क़ीमत पर हैदराबाद को भारत के हाथों जाने से रोकना चाहता था, लेकिन सरदार पटेल के मज़बूत इरादों के आगे उसे मुँह की खानी पड़ी

Operation Polo

निजाम की सेना ने बिना किसी खास प्रतिरोध के भारतीय सेना के सामने हथियार डाल दिए थे

11 सितंबर 1948 की शाम पाकिस्तान के कायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना कराची के गवर्नर हाउस में अपने बेड पर पड़ेपड़े अपनी आखिरी सांसें गिन रहे थे। उधर दिल्ली में सरदार पटेल कश्मीर की ही तरह जिन्ना के एक और ख़्वाब– ‘हैदराबादको कुचलने की तैयारी में जुटे थे।

हैदराबाद के निजाम की जिन्ना और पाकिस्तान से नजदीकियां छिपी नहीं थीं और पटेल ये अच्छी तरह जानते थे कि अगर हैदराबाद का जल्दी ही भारत में पूर्ण विलय नहीं किया गया तो दक्षिण भारत की ये रियासत भारत के लिएकैंसरसे कम घातक साबित नहीं होगी। जबकि पटेल के विचारों से उलट नेहरू हैदराबाद को भारत के ही अंदर ऑटोनॉमी (स्वायत्तता) देने को तैयार थे, ज़ाहिर है उन पर माउंटबेटन और अंग्रेजी सरकार का स्पष्ट प्रभाव था और वो हैदराबाद में पटेल के सैन्य हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ थे।

लेकिन पटेल कश्मीर वाली गलती दोहराने के पक्ष में नहीं थे

जिन्ना के निधन के दिन ही मिली ऑपरेशन पोलो को मंजूरी

लिहाजा इधर पाकिस्तान से जिन्ना के निधन की ख़बर सामने आईउधर सरदार पटेल ने बिना देरी किएऑपरेशन पोलोको हरी झंडी दे दी। अगले दिन जब पाकिस्तान में जिन्ना को सुपुर्दे ख़ाक करने की तैयारियां चल रही थीं, ठीक तभी भारतीय सेना हैदराबाद में घुसने की तैयारियों को अंतिम रूप दे रही थी।

अगले कुछ घंटों में भारतीय सेना हैदराबाद में दाखिल हो गई। निजाम के सैनिकों और उसकी मिलीशिया आर्मी (रजाकारों) ने थोड़ा बहुत प्रतिरोध करने की कोशिश की, लेकिन जल्दी ही उनके पैर उखड़ गए और महज़ 108 घंटों के अंदर निजाम ने अपनी सेना और दरबार समेत भारतीय सेना के सामने हथियार डाल दिए। 

हैदराबाद के निजाम की निष्ठा मुस्लिम देश पाकिस्तान के साथ थी और वो पाकिस्तान भी हैदराबाद को अपने दक्षिणी एक्सटेंशन की तरह देखने लगा था।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली और उसके सलाहकारों का यही मानना था कि हैदराबाद के मसले पर नेहरूबातचीतऔरकूटनीतिक  समाधान ढूंढने से ज्यादा और कुछ नहीं करेंगे।

लेकिन सौभाग्य से हैदराबाद का मामला सरदार पटेल के हिस्से आ चुका था और उन्होने हैदराबाद पर नेहरू की एक नहीं सुनी।

दिल्ली पर बम गिराना चाहता था पाकिस्तान

ज़ाहिर है पाकिस्तान को भारत से इस तरह के सख्त कदम की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी और जब ऑपरेशन पोलो की खबरें कराची तक पहुंची तो लियाकत अली खान इतनी बुरी तरह बौखला गए कि उन्होने दिल्ली पर हमले के आदेश दे दिए।

भारतीय सेना के उपप्रमुख रहे लेफ्टिनेंट जनरल एस.के. सिन्हा अपनी ऑटोबॉयोग्राफी Changing India Straight from the Heart में लिखते हैं कि जब ऑपरेशन पोलो शुरू हुआ, तो पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने अपनी डिफेंस काउंसिल की आपात बैठक बुलाई। ये बैठक इसलिए बुलाई गई थी ताकि हैदराबाद में भारत की सैन्य कार्रवाई का जवाब दिया जा सके।

इस बैठक में लियाकत अली खान ने अपने अधिकारियों से पूछा कि हैदराबाद को भारत के हाथों में जाने से रोकने के लिए पाकिस्तान क्या कर सकता है? उन्होने पूछा कि क्या पाकिस्तानी सेनाएं हैदराबाद पहुँच कर भारतीय सेना का सामना कर सकती हैं?

उनके सैन्य कमांडरों ने इस संभावना को सिरे से ख़ारिज कर दिया। उन्होने लियाकत अली को बताया कि पाकिस्तान की सेना के पास इतनी दूर तक घुस कर ऑपरेशन चलाने की क्षमता नहीं है और इसमें नुक़सान के सिवा कुछ नहीं मिलेगा।

सैन्य कमांडरों के जवाब से हताश लियाकत अली खान ने वायुसेना के अधिकारियों की तरफ रुख़ किया(तब दोनों देशों की वायुसेना की कमान ब्रिटिश अधिकारियों के हाथ में ही थी) और उनसे दिल्ली में बमबारी करने की संभावना के बारे में पूछा।

हालांकि बैठक में मौजूद ग्रुप कैप्टन एलावर्दी (बाद में ब्रिटेन के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ़ भी बने) ने इसके लिए भी दो टूक इनकार कर दिया। उन्होने लियाकत अली खान को बताया कि पाकिस्तानी वायुसेना के बेड़े में केवल चार बॉम्बर विमान ही हैं, उसमें भी केवल दो विमान ही इतनी लंबी दूरी तक उड़ान भरने लायक़ हैं।

उन्होने आगे कहा कि हो सकता है कि इनमें से एक विमान शायद दिल्ली तक पहुँच भी जाए और बम भी गिरा दे, लेकिन भारतीय वायुसेना के चलते विमान के लौटने की संभावना शून्य से ज्यादा नहीं होगी।

ज़ाहिर है, इन दोनों ही योजनाओं में पाकिस्तान की न सिर्फ और ज्यादा बेइज्जती होती, बल्कि भारत के साथ पूरी तरह जंग छिड़ने का भी खतरा बढ़ जाता। आख़िरकार मायूस लियाकत अली खान और उनकी डिफेंस काउंसिल को दिल्ली पर बम गिराने के प्लान को रद्द करना पड़ा।

बाद में पाकिस्तान हैदराबाद के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र तक भी ले गया और हस्तक्षेप की अपील की।लेकिन तब तक निजाम का भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण हो चुका था और यूएन ने इसे भारत का आंतरिक मामला मानकर इस प्रस्ताव को वहीं खत्म कर दिया।

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