जनवरी 1999 की वह ठंडी रात थी। औरंगाबाद ज़िले के अरवल अनुमंडल के छोटे-से गांव शंकरबिघा में लोग सामान्य दिनचर्या के बाद सो चुके थे। झोपड़ियों में टिमटिमाती लालटेन, बच्चों की मासूम नींद और खेतों से लौटे थके किसानों की थकान — सबकुछ मानो सुकून में था। लेकिन आधी रात के बाद अचानक गोलीबारी की आवाज़ों से गांव का सन्नाटा चीर दिया गया।
कहा जाता है कि करीब 50 से अधिक हथियारबंद लोग, जिन्हें गांव वाले रणवीर सेना से जुड़ा मानते हैं, गांव में घुसे। उनके हाथों में बंदूकें थीं, टॉर्च थीं और चेहरों पर क्रोध की लकीरें। उन्होंने एक-एक झोपड़ी के दरवाज़े पर धावा बोला, दरवाज़े तोड़े और अंधाधुंध गोलियां बरसा दीं।कुछ ही घंटों में 23 निर्दोष दलित और अतिपिछड़े ग्रामीण मौत के घाट उतार दिए गए। जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे।
गवाह की आंखों से
भैरों राजवार, जो उस रात अपनी झोपड़ी की छत पर छिप गए थे, उन्होंने बाद में बताया था कि उन्होंने हमलावरों को पहचाना। उनके मुताबिक वे लोग पड़ोसी गांव दोभी बिगहा से आए थे और उनके चेहरे चांद की चांदनी और टॉर्च की रोशनी में साफ नज़र आ रहे थे। भैरों कहते हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चों को बचाने की कोशिश की, लेकिन ऊपर से उतरने की हिम्मत नहीं हुई। नीचे गोलियां चल रही थीं, औरतें चीख रही थीं, और घरों में आग भी लगा दी गई थी।
सुबह का मंजर
सुबह हुई तो गांव लहूलुहान था। झोपड़ियों की छतें धुएं में बदल चुकी थीं। खेतों में लाशें बिखरी थीं और जीवित बचे लोग बदहवास हालत में रोते-बिलखते दिखे। एतवारिया देवी ने उस दिन अपने पति को खोया। उन्होंने बाद में पत्रकारों से कहा—“हम गरीबों की जान की कीमत किसे है? सरकार सिर्फ़ बयान देती है, हमारे आंसू कोई नहीं देखता।” राजमणि देवी, जिनके परिवार के कई सदस्य मारे गए, ने निराशा से कहा—“हमें उम्मीद थी कि अदालत कुछ न्याय देगी। लेकिन हमें सिर्फ़ दर्द और गरीबी मिली।”
पुलिस और प्रशासन की नाकामी
गांव वालों ने बताया कि पुलिस हमेशा की तरह देर से पहुंची। जब तक मदद आती, तब तक हत्याकांड पूरा हो चुका था। मृतकों के शव खेतों और झोपड़ियों में बिखरे पड़े थे। राज्य सरकार ने तत्कालीन माहौल में इसे नक्सलियों और रणवीर सेना के बीच की ‘काउंटर वार’ करार देने की कोशिश की। लेकिन ग्रामीणों का दावा था कि यह हमला सीधे तौर पर गरीबों और दलितों को सबक सिखाने के लिए किया गया था।
अदालत में टूटा विश्वास
शंकरबिघा कांड का मामला अदालत पहुंचा। अभियोजन पक्ष ने 50 से अधिक गवाह पेश किए। शुरुआत में भैरों राजवार जैसे गवाहों ने हमलावरों की पहचान करने की बात कही थी। लेकिन जैसे-जैसे मुकदमा आगे बढ़ा, गवाह पलटने लगे। एक-एक कर लगभग सभी गवाह “हॉस्टाइल” हो गए। उन्होंने कहा कि वे हमलावरों को पहचान नहीं सकते। भैरों राजवार ने अदालत से कहा कि उन्हें सुरक्षा नहीं मिली। उन्होंने बताया कि अगर उन्हें पटना ले जाकर सुरक्षा दी जाती, तो वे पहचान करने को तैयार रहते। लेकिन गांव में रहते हुए, धमकियों और दबाव के बीच बोल पाना असंभव था।
2015 का फैसला: सब बरी
13 जनवरी 2015 को पटना हाईकोर्ट ने 24 आरोपियों को बरी कर दिया। अदालत ने कहा कि अभियोजन पर्याप्त सबूत पेश नहीं कर पाया। गवाह पहचान करने में असमर्थ रहे और परिस्थितिजन्य साक्ष्य कमजोर साबित हुए। इस फैसले ने गांव वालों को गहरे सदमे में डाल दिया। दशकों तक चली सुनवाई का यही नतीजा निकला—“सभी आरोपमुक्त।”
आज भी शंकरबिघा के लोग उस रात को भूल नहीं पाए हैं। जिन परिवारों ने अपने बच्चों, पति-पत्नी और परिजनों को खोया, वे न्याय की उम्मीद में बूढ़े हो चुके हैं। भैरों राजवार का दर्द अब भी वही है—“हमने चेहरों को देखा था। हमें पता है किसने मारा। लेकिन अदालत को क्या फर्क पड़ता है? गरीब की गवाही कौन सुनता है?” एतवारिया देवी और राजमणि देवी जैसी विधवाएं कहती हैं कि उनके लिए न्याय अब सिर्फ़ एक सपना है।
शंकरबिघा नरसंहार बिहार के उस दौर की सबसे भयावह कहानियों में से एक है। यह सिर्फ़ एक गांव की त्रासदी नहीं, बल्कि उस जंगलराज़ की सच्ची तस्वीर है, जहां इंसाफ़ अदालत में खो गया और ग़रीबों के ज़ख्म कभी नहीं भरे। आज भी उनके जख्म ताजा ही हैं। लेकिन, सवाल यह कि उन हत्याओं के लिए कोई गुनाहगार नहीं, क्या इस गांव को कभी न्याय नहीं मिल सकता।