‘जंगलराज’ की दास्तान और कृष्णैया हत्याकांड: बिहार का स्याह सच

1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने खुद को गरीबों और पिछड़ों का मसीहा बताकर सत्ता पाई। लेकिन उनके शासनकाल में ही अपराध और अपहरण उद्योग चरम पर पहुंचा। व्यापारी, डॉक्टर और यहां तक कि स्कूली बच्चे भी अपहरण के डर में जीने लगे।

‘जंगलराज’ की दास्तान और कृष्णैया हत्याकांड: बिहार का स्याह सच

कृष्णैया की पत्नी उमा देवी हत्या के समय सिर्फ 30 साल की थीं।

दिसंबर 1994 की ठंडी सुबह। पटना की ओर जाती सड़क पर एक सफेद एंबेसडर कार दौड़ रही थी। अंदर बैठे थे एक युवा आईएएस अधिकारी-जी. कृष्णैया। तेलंगाना के छोटे से कस्बे से निकलकर बिहार की अफसरशाही तक पहुंचे यह अधिकारी अपनी सख़्ती और ईमानदारी के लिए जाने जाते थे। लेकिन उन्हें क्या पता था कि चंद मिनटों बाद सड़क पर उमड़ी भीड़ उन्हें कानून और लोकतंत्र की सबसे दर्दनाक सच्चाई दिखा देगी-जहाँ गुस्साई भीड़ ने न केवल उनकी कार रोकी, बल्कि उन्हें बेरहमी से पीट-पीटकर मार डाला।

उस समय बिहार में इसे महज़ एक हत्या नहीं, बल्कि पूरे ‘जंगलराज’ का प्रतीक माना गया। यह कहानी सिर्फ एक अफसर की जान लेने वाली भीड़ की नहीं, बल्कि उस दौर की है, जब राजनीति और अपराध का गठजोड़ इतना गहरा था कि कानून खुद ही असहाय नजर आता था।

भीड़ का तांडव

5 दिसंबर 1994। मुजफ्फरपुर से पटना लौटते वक्त कृष्णैया की गाड़ी अचानक एक राजनीतिक जुलूस के बीच फंस गई। यह जुलूस एक मारे गए गैंगस्टर के समर्थन में निकाला गया था। गुस्साई भीड़ ने पहले कार पर पत्थर बरसाए, फिर उन्हें बाहर घसीटा और सड़क पर पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया। उस समय के एक स्थानीय अख़बार में लिखा गया—“भीड़ इतनी उग्र थी कि पुलिस बल भी पास खड़े होकर देखता रह गया। किसी ने भीड़ को रोकने की हिम्मत नहीं की।”

राजनीति और अपराध का गठजोड़

हत्या के पीछे सीधे तौर पर जनता दल से जुड़े नेताओं के नाम आए। आनंद मोहन, जो कभी बिहार की राजनीति में बड़े चेहरे माने जाते थे, मुख्य आरोपी बने। उनकी पत्नी लवली आनंद और अन्य नेता भी चर्चा में रहे। अदालत ने बाद में आनंद मोहन को दोषी ठहराया और फांसी की सजा सुनाई, जिसे पटना हाईकोर्ट ने उम्रकैद में बदल दिया। बीबीसी की एक पुरानी रिपोर्ट में लिखा गया था—“बिहार में भीड़तंत्र और राजनीतिक संरक्षण का यह मामला किसी भी लोकतांत्रिक ढांचे के लिए शर्मनाक है।”

लालू-राबड़ी राज और ‘जंगलराज’ की गूंज

1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने खुद को गरीबों और पिछड़ों का मसीहा बताकर सत्ता पाई। लेकिन उनके शासनकाल में अपराध और अपहरण उद्योग चरम पर पहुँचा। व्यापारी, डॉक्टर और यहाँ तक कि स्कूली बच्चे भी अपहरण के डर में जीने लगे।

दिल्ली के एक प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार ने तब लिखा था—“Kidnapping has become an industry in Bihar, thriving under political patronage.” (बिहार में अपहरण एक उद्योग बन चुका है, जो राजनीतिक संरक्षण में फल-फूल रहा है।) ‘जंगलराज’ शब्द इसी दौर में गढ़ा गया। पहले यह विपक्षी नेताओं का हमला था, लेकिन धीरे-धीरे पूरे देश में बिहार की पहचान यही बन गई। और कृष्णैया की हत्या इस जंगलराज की सबसे भयावह मिसाल बन गई।

परिवार का दर्द

कृष्णैया की पत्नी उमादेवी उस वक्त सिर्फ 30 साल की थीं। दो छोटे बच्चों की परवरिश का बोझ उनके कंधों पर आ गया। उन्होंने मीडिया से कहा था—“एक ईमानदार अधिकारी को व्यवस्था बचा नहीं सकी। यह किसी एक परिवार का नहीं, पूरे सिस्टम का दर्द है।”

न्याय और सियासत का खेल

2007 में निचली अदालत ने आनंद मोहन को फांसी की सजा सुनाई। अगले साल हाईकोर्ट ने इसे उम्रकैद में बदल दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन सजा कायम रही। लंबे समय तक जेल में रहने के बाद 2023 में बिहार सरकार ने जेल मैनुअल में संशोधन कर आनंद मोहन को रिहा कर दिया। इस पर ‘द हिंदू’ ने लिखा-“The release of Anand Mohan is a political gamble that questions the sanctity of justice.” (आनंद मोहन की रिहाई एक राजनीतिक दांव है, जिसने न्याय की पवित्रता पर सवाल खड़ा कर दिया है।)

प्रतीक और सबक

कृष्णैया हत्याकांड सिर्फ एक आईएएस अफसर की मौत की कहानी नहीं है। यह उस दौर का आईना है जब कानून से ज्यादा ताक़तवर भीड़ हो चुकी थी। जब अपराध और राजनीति का गठजोड़ इतना गहरा था कि ईमानदार अफसरों की जान भी सुरक्षित नहीं थी। आज जब बिहार में विकास और सुशासन की बातें होती हैं, तब यह घटना हमें याद दिलाती है कि लोकतंत्र सिर्फ वोट से नहीं, बल्कि कानून के राज से मजबूत होता है।

कृष्णैया हत्याकांड की समय-रेखा

5 दिसंबर 1994 – मुजफ्फरपुर से पटना लौटते वक्त आईएएस जी. कृष्णैया की हत्या।
1995 – केस की जांच शुरू, राजनीतिक विवाद तेज़।
2007 (अप्रैल) – निचली अदालत ने आनंद मोहन को फांसी की सजा सुनाई।
2008 – पटना हाईकोर्ट ने सजा उम्रकैद में बदली; सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा।
2010–2022 – आनंद मोहन जेल में रहे, रिहाई की मांग उठती रही।
24 अप्रैल 2023 – बिहार सरकार ने जेल मैनुअल बदलकर आनंद मोहन को रिहा किया।
मई 2023 – रिहाई पर विवाद; कृष्णैया की पत्नी ने इसे न्याय के साथ समझौता बताया।

कृष्णैया की हत्या बिहार के इतिहास का वह काला अध्याय है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता। अख़बारों की सुर्खियों से लेकर अदालतों की बहस तक, और आज तक यह घटना हमें यह याद दिलाती है कि जब भीड़ कानून से बड़ी हो जाए और राजनीति अपराध से हाथ मिला ले, तो लोकतंत्र का सबसे मज़बूत स्तंभ भी ढह सकता है। यही था बिहार का असली ‘जंगलराज’।

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