हर साल 27 सितंबर को विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है। पर्यटन केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि यह किसी भी देश की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर को विश्व पटल पर प्रस्तुत करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। घूमने से व्यक्ति नए स्थानों को देखता है, अलग-अलग परंपराओं और रीति-रिवाजों को समझता है तथा विविध संस्कृतियों से जुड़ता है। आज के समय में पर्यटन की परिभाषा प्रायः होटल, समुद्र तट, विदेश भ्रमण और मनोरंजन तक सीमित कर दी जाती है। लेकिन भारत में पर्यटन का अर्थ कहीं व्यापक है। यहां यात्रा का मतलब केवल एक जगह से दूसरी जगह जाना नहीं, बल्कि आत्मा का उत्थान, ज्ञान की तलाश और समाज से गहरा जुड़ाव है।
वैदिक काल से ही ऋषि-मुनि देशाटन करते रहे हैं। उनकी यात्राएं किसी भौतिक सुख की खोज में नहीं, बल्कि अनुभव का विस्तार और आत्मज्ञान का मार्ग थीं। उपनिषदों में वर्णन मिलता है कि शिष्य गुरु से विदा लेकर देशाटन पर निकलते थे। इसके बाद वे विभिन्न स्थानों से ज्ञान, परंपरा और अनुभव जुटाकर लौटते थे।
आदि शंकराचार्य ने भारत भ्रमण कर रचा इतिहास
भारत में पर्यटन के लिए आदि शंकराचार्य की जीवन-यात्रा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। केवल 32 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण कर लिया था। बद्रीनाथ के बर्फीले शिखरों से लेकर कन्याकुमारी के समुद्रतट तक, द्वारका के मंदिरों से लेकर पुरी के जगन्नाथ धाम तक वे न केवल यात्रा करते गए, बल्कि जहां-जहां पहुंचे, वहां मठों की स्थापना की। यह यात्रा महज़ तीर्थाटन नहीं थी, यह भारत को सांस्कृतिक रूप से एक सूत्र में पिरोने का अभियान था। कहते हैं कि केरल से निकलने वाले इस युवा संन्यासी ने जब हिमालय में स्थित केदारनाथ और बद्रीनाथ की कठिन राहों को पार किया, तो लोग दंग रह गए। उनके इस अदम्य साहस और आध्यात्मिक संकल्प ने ही “चार धाम” की परंपरा को जन्म दिया।
इसी तरह गौतम बुद्ध की यात्रा भी केवल साधना का मार्ग नहीं थी, बल्कि एक पर्यटन धारा भी बनी। बोधगया में ज्ञान प्राप्ति, सारनाथ में पहला उपदेश, कुशीनगर में महापरिनिर्वाण—इन स्थलों ने बौद्ध अनुयायियों के लिए एक तीर्थपथ तैयार किया। दो हजार साल पहले चीन के यात्री ह्वेनसांग और फाह्यान जब इन स्थलों की यात्रा करने आए तो उन्होंने अपने ग्रंथों में भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक समृद्धि का विस्तार से वर्णन किया। आज भी भारत में कई पुरातात्विक खोजों में ह्वेनसांग और फाह्यान की पुस्तकों का सहारा लिया जाता है।
आज भी काशी की गलियों में घूमते हुए यह अहसास होता है कि यात्रा यहां केवल एक आध्यात्मिक अनुभव नहीं, बल्कि एक आर्थिक गतिविधि भी है। गंगा आरती देखने वाले हजारों श्रद्धालु न सिर्फ अपनी आस्था को संतुष्ट करते हैं, बल्कि असंख्य नाविकों, फूल बेचने वालों, पुरोहितों और स्थानीय कारीगरों की आजीविका भी सुनिश्चित करते हैं। यही कारण है कि धार्मिक पर्यटन भारतीय अर्थव्यवस्था की धड़कन बना हुआ है।
कुंभ मेला पर्यटन का विराट रूप
कुम्भ जैसे आयोजन तो इस परंपरा के सबसे विराट रूप हैं। प्रयागराज में संगम पर जुटने वाले करोड़ों श्रद्धालु किसी साधारण मेले का हिस्सा नहीं होते, वे उस सांस्कृतिक धारा के वाहक बनते हैं, जिसने भारत को हजारों वर्षों तक जोड़े रखा। एक ही कुम्भ आयोजन से अरबों रुपये की आर्थिक गतिविधि होती है—पर्यटन उद्योग, परिवहन, हस्तशिल्प, होटल, रेस्तरां और छोटे दुकानदार सभी इसकी बदौलत फलते-फूलते हैं।
इन सबके इतर, आज जब अयोध्या में राम मंदिर का भव्य उद्घाटन हो चुका है, तो धार्मिक पर्यटन ने एक नया आयाम प्राप्त कर लिया है। करोड़ों लोग वहां आस्था के भाव से पहुंच रहे हैं, और यह शहर तेजी से एक अंतरराष्ट्रीय तीर्थ-गंतव्य में बदल रहा है। नई सड़कें, रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डा, होटल और बाजार—सब अयोध्या की अर्थव्यवस्था को नया जीवन दे रहे हैं। स्थानीय हस्तशिल्प से लेकर मिठाइयों और प्रसाद तक, हर चीज़ की मांग बढ़ी है। यह वही उदाहरण है जहां आस्था और अर्थव्यवस्था मिलकर विकास की नई गाथा रचते हैं।
केंद्र सरकार दे रही नया आयाम
आज भारत सरकार ने इन परंपराओं को आधुनिक आयाम देने शुरू किए हैं। रामायण सर्किट, बौद्ध सर्किट और शिव सर्किट जैसी योजनाएं धार्मिक पर्यटन को वैश्विक पहचान दे रही हैं। वाराणसी का काशी कॉरिडोर, उज्जैन का महाकाल कॉरिडोर और अब अयोध्या का राम मंदिर न केवल श्रद्धालुओं की आस्था को नया आधार देते हैं, बल्कि उन्हें आधुनिक सुविधाओं से भी जोड़ते हैं। भारत का संदेश साफ है: पर्यटन यहां केवल उद्योग नहीं, बल्कि सांस्कृतिक साधना है। यहां यात्रा केवल पांव की नहीं, आत्मा की भी होती है।