उमर खालिद-शरजील केस से फिर बेनकाब हुआ ‘रेड-लिबरल इकोसिस्टम’

वामपंथी गुट और उनके लिबरल साथी इन्हें निर्दोष और ‘राजनीतिक कैदी’ बताने लगे। सवाल यह है कि आख़िर क्यों हर बार आतंकियों और दंगाइयों के समर्थन में यही लॉबी खड़ी हो जाती है?

उमर खालिद-शरजील केस से फिर बेनकाब हुआ ‘रेड-लिबरल इकोसिस्टम’

अदालत ने स्पष्ट कहा कि दोनों दंगों के “इंटेलेक्चुअल आर्किटेक्ट” थे।

दिल्ली हाईकोर्ट ने उमर खालिद और शरजील इमाम की बेल खारिज करके साफ कर दिया कि ये लोग साधारण छात्र-कार्यकर्ता नहीं, बल्कि दिल्ली दंगों के ‘बौद्धिक मास्टरमाइंड’ थे। अदालत ने कहा कि इनके भाषण और गतिविधियां महज विरोध-प्रदर्शन नहीं, बल्कि सुनियोजित हिंसा भड़काने की साजिश का हिस्सा थीं।

लेकिन फैसले के बाद एक बार फिर वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी-वामपंथी गुट और उनके लिबरल साथी इन्हें निर्दोष और ‘राजनीतिक कैदी’ बताने लगे। सवाल यह है कि आख़िर क्यों हर बार आतंकियों और दंगाइयों के समर्थन में यही लॉबी खड़ी हो जाती है?

दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कही ये बात

मामले में अपना फैसला देते हुए हाईकोर्ट ने अहम टिप्पणियां की हैं, इन पर भी ध्यान देना जरूरी है। कोर्ट ने कहा कि उमर-शरजील ने 2019 से ही माहौल बिगाड़ने का प्लान बनाया। सोशल मीडिया और भाषणों से लोगों को भड़काया। कोर्ट ने यह भी कहा है कि इन दोनों ने CAA-NRC पर झूठ फैलाकर मुस्लिम समाज में डर बैठाया। इसके बाद हिंसा के लिए भीड़ जुटाने और चक्का जाम कराने की रणनीति बनाई। यानी अदालत ने साफ किया कि ये दोनों सिर्फ एक्टिविस्ट नहीं, बल्कि साजिशकर्ता थे।

लेकिन जैसे ही आदेश आया, वही ‘इकोसिस्टम’ सक्रिय हो गया—NGO, कुछ पत्रकार, और वामपंथी बुद्धिजीवी। सबका सुर एक था: “यह असहमति को कुचलने की साजिश है।”

पैटर्न हर बार एक जैसा

इतिहास गवाह है, जब-जब भारत ने किसी आतंकी या दंगाई पर कार्रवाई की है, वामपंथी गुट तुरंत खड़े हो गए हैं।

केस स्टडी 1: अफजल गुरु (संसद हमला, 2001)

सुप्रीम कोर्ट ने उसे दोषी ठहराया। जब उसकी फांसी की सजा तय हुई तो वामपंथी बुद्धिजीवी और NGOs ने कहा कि यह “जुडिशियल किलिंग है।” JNU में “अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं” जैसे नारे लगाए गए।

केस स्टडी 2: याकूब मेमन (मुंबई ब्लास्ट, 1993)

साल 1993 में मुंबई ब्लास्ट में 250 से ज्यादा लोग मारे गए थे। इसके बाद भी याकूब मेनन की फांसी से ठीक पहले रातभर सोशल मीडिया पर ‘मोमबत्ती ब्रिगेड’ और सेक्युलर लॉबी सक्रिय रही। उसे ‘शिक्षित मुस्लिम’ और ‘अन्याय का शिकार’ बताया गया।

केस स्टडी 3: JNU ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ (2016)

देश की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी दिल्ली विश्वद्यालय में “भारत तेरे टुकड़े होंगे” जैसे नारे लगाये गए। इसमें शामिल छात्रों को वामपंथी गुटों और मीडिया ने ‘वीर क्रांतिकारी छात्र’ बताकर महिमामंडित किया।

केस स्टडी 4: शरजील इमाम (CAA-NRC आंदोलन, 2019-20)

शर​जील इमाम ने खुलेआम कहा कि “अगर हमें चाहिए तो असम को देश से काट दो।” इसके बाद भी उसे ‘स्टूडेंट लीडर’ बताकर बचाने की कोशिश हुई।

क्यों आते हैं याद आतंकियों और दंगाइयों के “हक़”?

1. वैचारिक कारण

वामपंथ का मूल दर्शन राष्ट्रवाद के खिलाफ खड़ा है। वे मानते हैं कि भारत की आत्मा धर्मनिरपेक्षता और वर्ग-संघर्ष है, न कि राष्ट्रप्रेम। इसलिए उन्हें हर वो चेहरा पसंद आता है जो भारत की एकता पर सवाल खड़ा करे।

2. राजनीतिक कारण

वामपंथ चुनावी राजनीति में हाशिये पर चला गया है। ऐसे में वे मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने के लिए हर उस व्यक्ति का समर्थन करते हैं, जो ‘अल्पसंख्यक पीड़ित’ की छवि गढ़ सके।

3. विदेशी फंडिंग का खेल

कई NGOs और वामपंथी संस्थाओं पर विदेशी फंडिंग के आरोप लगे हैं। पश्चिमी ताकतें चाहती हैं कि भारत लगातार अस्थिर बना रहे। ऐसे में हर दंगाई और आतंकी इनके लिए “ह्यूमन राइट्स वॉरियर” बन जाता है।

जनता का सवाल: निर्दोषों का खून क्यों भुला दिया जाता है?

दिल्ली दंगों में 50 से अधिक लोग मारे गए, लाखों की संपत्ति खाक हुई। लेकिन वामपंथी गुटों ने कभी पीड़ित हिंदू और आम नागरिकों के लिए आवाज़ नहीं उठाई। उनकी संवेदनाएं हमेशा आरोपियों के साथ होती हैं।

ये हैं आम लोगों के सवाल

क्या निर्दोषों की जान कोई मायने नहीं रखती?

क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ दंगाइयों और आतंकियों का बचाव करना है?

क्या “फ्रीडम ऑफ स्पीच” सिर्फ भारत विरोधी नारों तक सीमित है?

अदालत का सख्त संदेश

दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले में जो रुख अपनाया, उसका महत्व गहरा है। अदालत ने साफ किया कि सबूत, किसी भी प्रोपेगेंडा से बड़े होते हैं। चाहे कितनी भी लॉबी दबाव बनाए, न्याय केवल तथ्यों पर ही होगा। इसके साथ ही अदालत ने साफ किया कि उमर और शरजील महज एक्टिविस्ट नहीं, बल्कि दंगों के “इंटेलेक्चुअल आर्किटेक्ट” थे।

वामपंथी लॉबी का असली चेहरा

यह केस एक बार फिर साबित करता है कि वामपंथी गुटों की सहानुभूति हमेशा दंगाइयों और आतंकियों के साथ होती है। निर्दोष नागरिकों और पीड़ित परिवारों के लिए इनके पास न संवेदना है और न ही आवाज़। इनका असली मकसद ‘न्याय’ नहीं, बल्कि अपना वैचारिक और राजनीतिक एजेंडा है। भारत की जनता अब समझ चुकी है कि जो हर बार देशद्रोहियों का बचाव करे, वह असल में राष्ट्र का नहीं, बल्कि अराजकता का साथी है।

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