बिहार की राजनीति में कभी भी तस्वीर स्थिर नहीं रहती। नेता आते-जाते रहते हैं, पर हाल के दिनों में सबसे दिलचस्प मोड़ पप्पू यादव को लेकर सामने आया है। जिन पप्पू यादव को राहुल गांधी की सभाओं में मंच से नीचे उतार दिया गया था, वही अब कांग्रेस की बैठक में मान–मनुहार से बुलाए जा रहे हैं। खास बात यह कि यह बदलाव अचानक कैसे आ गया? वजह साफ है-पूर्णिया एयरपोर्ट के उद्धाटन समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पप्पू यादव की गर्मजोशी और आत्मीयता से भरी मुलाकात।
कांग्रेस को ‘याद आया अपनापन’
पप्पू यादव को लेकर कांग्रेस का रिकॉर्ड बड़ा विचित्र रहा है। मंच पर जगह न देने से लेकर उन्हें सियासी ‘अनफिट’ बताने तक, कांग्रेस ने उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन पीएम मोदी से उनके मुस्कुराते हुए संवाद ने कांग्रेस की धड़कनें तेज़ कर दीं। अचानक कांग्रेस को लगा कि पप्पू यादव तो सीमांचल की राजनीति का वह चेहरा हैं, जिनके बिना समीकरण अधूरा है। नतीजा यह हुआ कि पटना बैठक में पप्पू यादव को बाकायदा आमंत्रित किया गया और जगह दी गई।
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डर की राजनीति या रणनीति?
कांग्रेस का इस तरह अचानक पलटी मारना दरअसल उसके डर को भी उजागर करता है। डर यह कि कहीं भाजपा सीमांचल की राजनीति में पप्पू यादव को अपना ‘स्थानीय चेहरा’ न बना लें। डर यह भी कि अगर पप्पू यादव खुले तौर पर भाजपा से नज़दीकियां बढ़ाते हैं, तो महागठबंधन के लिए यह बड़ा झटका साबित होगा। इसलिए कांग्रेस ने सोचा—अगर मोदी से पप्पू का अपनापन बढ़ सकता है, तो हमें भी क्यों न अपनापन याद दिलाया जाए।
सीमांचल में पप्पू की अहमियत
बसीमांचल और कोसी इलाकों में पप्पू यादव का जनाधार गहरा है। वे वहां सीधे जनता से जुड़ते हैं और जातीय राजनीति से ऊपर उठकर मुद्दे की राजनीति करने की छवि रखते हैं। कांग्रेस के पास इस क्षेत्र में कोई मजबूत चेहरा नहीं है। ऐसे में पप्पू यादव ही उसकी सबसे बड़ी उम्मीद बन सकते हैं।
कांग्रेस अब पप्पू यादव को अपनाने की कोशिश कर रही है, लेकिन सवाल यह है कि क्या पप्पू यादव इसे महज़ ‘अस्थायी मान–मनुहार’ मानेंगे या फिर स्थायी गठबंधन की ओर कदम बढ़ाएंगे? राहुल गांधी के मंच से उतराए जाने की कड़वाहट अभी भी उनकी याद में ताज़ा होगी। ऐसे में मोदी से भेंट के बाद मिला ‘कांग्रेस का अपनापन’ उनके लिए राजनीतिक अवसर भी है और सियासी व्यंग्य का मज़ा भी।
सच यही है कि मोदी से मुलाकात के बाद पप्पू यादव का कद अचानक बढ़ गया है। कांग्रेस ने भी देर से ही सही, यह समझ लिया कि सीमांचल में उनका कोई विकल्प नहीं है। लेकिन व्यंग्य यही है कि जिसे कल मंच से नीचे उतारा गया, आज उसी को मंच पर बुलाकर ताली बजवाई जा रही है। राजनीति में अपनापन भी मौक़े देखकर ही याद आता है-और कांग्रेस इस कला में माहिर साबित हो रही है।