अगर पूछा जाए कि भारत का सबसे बड़ा धर्म क्या है?
या
वो कौन सा धर्म है जहां अलग अलग विचारधाराओं, जातियों, नस्लों और भाषा वर्ग के लोग एक साथ रहते हैं। एक साथ आहें भरते हैं, एक दूसरे के दुख में दुखी होते हैं, एक साथ जश्न मनाते हैं ?
वैसे तो क्रिकेट को किसी धर्म का दर्जा प्राप्त नहीं है, लेकिन अगर होता तो निसंदेह वो धर्म ‘क्रिकेट’ ही होता। दरअसल हम ‘इंडियन्स’ के साथ–साथ ‘क्रिकेटियंस’ भी है और भारत–पाकिस्तान के बीच होने वाला कोई भी मुकाबला इस ‘क्रिकेट धर्म’ और इससे फॉलोवर्स के लिए सबसे बड़ा महोत्सव होता है
लेकिन आज ये ‘क्रिकेटियंस’ भी एक किस्म के दोराहे पर खड़े हैं। वो समझ ही नहीं पा रहे हैं कि भारत–पाकिस्तान के मैच (क्रिकेट महोत्सव) का जश्न मनाएं या फिर पहलगाम के उन 26 बेगुनाहों और उनके परिवारवालों के लिए दुख महसूस करें, जिनकी आतंकियों ने धर्म पूछ कर हत्या कर दी थी?
आख़िर एक ही वक्त पर मोहब्बत और नफ़रत कैसे की जाए?
एक ही वक्त पर एक साथ कैसे हंसा और रोया जाए?
उत्सव और मातम एक साथ कैसे हों?
एक तरफ़ भारत है, भारत के जख्म हैं और सामने है देश का दुश्मन- दूसरी तरफ़ ‘क्रिकेट’ और उसका सबसे बड़ा उत्सव
देश के करोड़ों आज BCCI और उसकी दलीलों की वजह से इस दोराहे पर खड़े हैं कुछ हद तक भारत सरकार भी इसके लिए ज़िम्मेदार मानी जा सकती है। (बाइलेट्रल सीरीज़ पहले से ही बंद हैं, तो उस पर रोक लगाने का वैसे भी कोई तुक नहीं बनता)
BCCI भी करे तो क्या करे? एक तरफ़ साख है, करोड़ों का धंधा है और अंतर्राष्ट्रीय नियम हैं और स्पोर्टमैनशिप की सदाबहार दलीलें तो हैं हीं। दूसरी तरफ़ देश है, देशवासियों की भावनाएं हैं और उनका गुस्सा है।
दरअसल BCCI चाहता है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। उसके राष्ट्रप्रेम और देश के प्रति कमिटमेंट पर सवाल भी न हों और धंधा भी चोखा चलता रहे।
शुरू में तो खबरें सामने आईं कि शायद BCCI एक बार फिर वही पुराना तरीका आजमाए और विरोध के तौर पर टीम इंडिया के खिलाड़ी काली पट्टी पहन कर खेलने उतरें।ये तरीका भले ही घिस–घिसकर पुराना हो गया हो, लेकिन कम से कम खिलाड़ियों और BCCI की संवेदनशीलता तो दर्शाता ही। कम से कम खिलाड़ी ये दिखा पाते कि देखो– “हम तो नहीं खेलना चाहते थे, लेकिन क्या करें मजबूरी है खेल जरूर रहे हैं लेकिन हम नाराज़ हैं, बहुत दुखी हैं।”
लेकिन BCCI ने ये करना तक गवारा नहीं समझा। जिस टीम इंडिया ने अमेरिका में पुलिस के हाथों मारे गए जॉर्ज फ्लायड के लिए घुटने टेके थे, वो टीम पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों के हाथों मारे गए 26 भारतीयों के लिए काली पट्टी तक नहीं बांध सकी, जबकि मुकाबला पाकिस्तान के साथ ही था।
सवाल पूछा ही जाएगा कि क्या BCCI और टीम इंडिया के लिए ‘ब्लैक लाइफ्स’ मैटर्स ही मैटर करता है? ‘इंडियंस की लाइफ’ मैटर नहीं करतीं?
सवाल ये भी है कि जो टीम अहमदाबाद विमान हादसे के शोक में काली पट्टी बांधकर मैच खेल सकती थी, उसने पाकिस्तान के साथ मैच खेलते वक्त उसे उतार क्यों दिया? जबकि आज तो उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।
हालांकि दिल बहलाने के लिए मैच शुरू होने से पहले ये खबरें जरूर फैलाई गईं कि टीम इंडिया इस मैच में काली पट्टी बांध कर खेलेगी, लेकिन बाद में वो काली पट्टी भी काले धन की तरह कहीं नजर नहीं आई।
पहलगाम के पीड़ितों और पूरे देश के जख्मों पर नमक छिड़कने का इससे क्लासिक उदाहरण भला और क्या होता ?
काफी हद तक संभव है कि BCCI ने काली पट्टी बांधने की तैयारी कर ली हो, लेकिन पाकिस्तान के दबाव या धमकी (वो भी काली पट्टी बांध कर खेलने उतर सकते थे) के चलते उसे ये फैसला बदलना पड़ा हो। यहां याद रखने की जरूरत है कि प्रोपेगेंडा में पाकिस्तान और उसकी संस्थाएं भारत से कहीं बेहतर हैं और शायद इसीलिए BCCI ने इससे दूर रहना ही उचित समझा हो।
लेकिन सवाल ये है कि काली पट्टी बांधने या न बांधने से भी क्या ही फर्क पड़ता? क्या खिलाड़ियों की बांह पर बंधी ‘काली पट्टी’ उन लोगों के जख्म भर सकती जो अभी भी हरे हैं?
पहलगाम आतंकी हमले में मारे गए 26 बेगुनाहों के ख़ून और ऑपरेशन सिंदूर की लालिमा अभी तक कम नहीं हुई है। दोनों देश चंद हफ्तों पहले ही एक अच्छी–खासी जंग से गुज़र कर आए हैं और अभी भी देश में पाकिस्तान को लेकर गुस्सा है। ऑपरेशन सिंदूर ने सिर्फ देश के आम जन–मानस ही नहीं पूरे जियोपॉलिटिक्स को प्रभावित किया है और अभी तक प्रभावित कर रहा है। एक्सपर्ट अमेरिका के साथ टैरिफ़ विवाद को भी ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद के घटनाक्रम से ही जोड़ रहे हैं।
आज जब पूरा देश पाकिस्तान के ख़िलाफ़ किसी भी एक्शन को लेकर एकजुटता के साथ खड़ा है। अमेरिका की दादागीरी के ख़िलाफ़ एकजुट हैं, बिना ये सोचे कि ट्रम्प टैरिफ़ से उनकी नौकरियां जा सकती हैं। लोग देश के लिए ज्यादा काम करने को तैयार हैं, त्याग करने को तैयार हैं, यहां तक कि अपना नुक़सान सहने को भी तैयार हैं। तब क्या BCCI और टीम इंडिया की बांह से नदारद ‘काली पट्टी’ उनकी भावनाओं के साथ मज़ाक़ नहीं है?
क्या BCCI की दलीलें और उन लोगों के जख्मों और दुखों को ढक सकेगी, जिन्होने पाकिस्तान की गोलाबारी में अपने घरों और–कारोबार को ही नहीं अपनों को भी गंवाया है?
सच पूछिए तो पाकिस्तान के साथ किसी भी जंग का सबसे ज्यादा खामियाजा भी वही भुगतते हैं और शांति की सबसे ज्यादा ज़रूरत भी उन्हें ही है। लेकिन फिर भी उनमें से किसी ने भी पाकिस्तान के साथ बातचीत करने या जंग रोकने की अपील नहीं की।
उन्होने न सिर्फ ऑपरेशन सिंदूर और भारतीय सेना पर भरोसा जताया, बल्कि बेघर होने के बावजूद भी उन परिवारों और उन महिलाओं के साथ खड़े रहे, जिनकी ‘मांग’ आतंकियों ने उजाड़ दी थी। इन लोगों ने ख़ुद पीड़ित होने के बावजूद ‘सिंदूर’ का मान रखा।
लेकिन क्या BCCI और टीम इंडिया ऐसा कर सकी? क्या दुनिया के सबसे अमीर ‘निजी क्रिकेट क्लब’ में अपना नुक़सान सहने, या बॉयकाट झेलने की हिम्मत नहीं थी?
क्या अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं, देश के सम्मान और उसकी भावनाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण थीं? और इस बात की क्या गारंटी कि इस काली पट्टी से पाकिस्तान को कोई असर भी पड़ेगा ? उल्टा इस बात की संभावना अधिक है कि वो इसमें भी कोई प्रोपेगेंडा तैयार कर लेगा।
कल आख़िर सिने जगत और दूसरे कलाकार भी ये प्रश्न पूछेंगे कि क्या वो “काली पट्टी बाँध कर पाकिस्तान में शो कर लें?” या फिर दिलजीत दोसांझ जैसे कलाकार ये नहीं पूछेंगे कि उनका क्या क़ुसूर था जो उनकी ‘फिल्म’ इंडिया में बैन कर दी गई, क्योंकि उसमें उनके साथ एक पाकिस्तानी अदाकार भी थी।
क्या वो फिल्म काली पट्टी के साथ रिलीज़ नहीं की जा सकती थी? यकीनन नहीं– क्योंकि ख़ून और पानी एक साथ नहीं बह सकता, आतंकवाद और रिश्ते एक साथ नहीं चल सकते।
ज़ाहिर है BCCI के पास अपने तर्क हैं और काफी हद तक वाजिब भी हैं। ये भी सही है कि BCCI और सरकार क्रिकेट के मामले में भयंकर विरोधाभासों से जूझ रही है और खिलाड़ियों की बांह पर बंधी काली पट्टी उन्हें इससे नहीं बचा सकती ।
BCCI को याद रखना होगा कि पट्टी चाहे काली हो या नीली, उसे पहने या न पहनें- पहलगाम के जख्म हरे ही रहेंगे और जब तक ये जख्म सूख नहीं जाते, ऐसे आयोजनों से दूर रहना ही ठीक होता।