बगराम पर बनता नया समीकरण: अमेरिका के खिलाफ भारत की कूटनीतिक हुंकार
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मोदी सरकार ने बगराम पर अमेरिका-पाकिस्तान दोनों को चित करने की पूरी प्लानिंग कर ली है , लेकिन कैसे?

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मंशा है कि अमेरिका एक बार फिर इस रणनीतिक एयरबेस पर अधिकार स्थापित करे। लेकिन भारत ने साफ कर दिया है कि दक्षिण एशिया में किसी भी बाहरी शक्ति की सैन्य मौजूदगी अब स्वीकार्य नहीं होगी।

TFI Desk द्वारा TFI Desk
10 October 2025
in AMERIKA, एशिया पैसिफिक, भारत, भू-राजनीति, रक्षा, विश्व, साउथ एशिया
बगराम पर बनता नया समीकरण: अमेरिका के खिलाफ भारत की कूटनीतिक हुंकार

कूटनीति का यह नया अध्याय भारत के आत्मविश्वास का प्रतीक है।

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अफगानिस्तान के बगराम एयरबेस को लेकर छिड़ी कूटनीतिक जंग में भारत अब निर्णायक भूमिका निभा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मंशा है कि अमेरिका एक बार फिर इस रणनीतिक एयरबेस पर अपना अधिकार स्थापित करे। लेकिन भारत ने साफ कर दिया है कि दक्षिण एशिया में किसी भी बाहरी शक्ति की सैन्य मौजूदगी अब स्वीकार्य नहीं होगी। यह न केवल अमेरिका को स्पष्ट संदेश है, बल्कि भारत की विदेश नीति के नए आत्मविश्वासी युग की उद्घोषणा भी है।

दिल्ली में तालिबान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी की मौजूदगी इस घटनाक्रम को और गहराई देती है। तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद पहली बार उनका भारत दौरा इस बात का संकेत है कि नई दिल्ली अफगानिस्तान को केवल सुरक्षा चुनौती के रूप में नहीं, बल्कि एक अवसर के रूप में भी देखने लगी है। यह वही अफगानिस्तान है, जिसे दो दशक पहले अमेरिकी और नाटो सेनाओं ने तथाकथित ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ के नाम पर तबाह कर दिया था।

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‘हसीना’ संकट के बीच NSA अजित डोभाल की बांग्लादेश के NSA से मुलाकात के मायने क्या हैं?

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भारत ने बगराम एयरबेस पर अमेरिकी इरादों का विरोध केवल कूटनीतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से भी किया है। मॉस्को में हुई सातवीं मॉस्को फॉर्मेट कंसल्टेशन में भारत ने चीन, रूस, पाकिस्तान और मध्य एशियाई देशों के साथ मिलकर वह बयान स्वीकार किया जिसमें कहा गया कि अफगानिस्तान या उसके पड़ोसी इलाकों में पश्चिमी देशों के सैन्य ढांचे को तैनात करने की कोशिशें अस्वीकार्य हैं। सीधे शब्दों में कहें तो यह एक संगठित विरोध था — बगराम एयरबेस को अमेरिकी नियंत्रण में लौटाने की कोशिशों के खिलाफ।

भारत का इस बयान के साथ खड़ा होना महज कूटनीति ही नहीं, बल्कि क्षेत्रीय रणनीति का भी हिस्सा है। पिछले कुछ वर्षों में नई दिल्ली ने यह महसूस किया है कि दक्षिण एशिया में स्थिरता का अर्थ केवल आतंकवाद से सुरक्षा नहीं, बल्कि बड़े शक्तियों के प्रभाव से मुक्ति भी है। यही कारण है कि भारत अब अमेरिका के पारंपरिक सुरक्षा ब्लॉक से अलग हटकर क्षेत्रीय साझेदारी को प्राथमिकता दे रहा है।

जानें बगराम एयरबेस का महत्व

पूरे मामले में सबसे पहले बगराम एयरबेस का महत्व समझना जरूरी है। काबुल से लगभग 50 किलोमीटर दूर यह ठिकाना अमेरिका के 20 साल लंबे अफगान मिशन का मुख्य केंद्र था। 2001 में तालिबान शासन के पतन के बाद यहां अमेरिकी सेना ने न केवल अपना कमांड सेंटर बनाया बल्कि इसे नाटो अभियान का आधार भी बनाया। 2021 में अचानक अमेरिका की वापसी के बाद यह ठिकाना तालिबान के नियंत्रण में चला गया। जब ट्रंप ने दोबारा इस एयरबेस को अमेरिकी कब्जे में लेने की बात कही, तो तालिबान ने इसे स्पष्ट रूप से ‘संप्रभुता पर हमला’ बताया। इस बार भारत ने भी वही रुख अपनाया है।

नई दिल्ली का यह रुख इस बात की घोषणा है कि भारत अब अमेरिकी दबावों या पश्चिमी नैरेटिव के हिसाब से नहीं चलेगा। अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता के लिए भारत की भूमिका अब ‘सहयोगी’ से आगे बढ़कर ‘सह-निर्माता’ की होती जा रही है। बीते दो सालों में भारत ने तालिबान शासन के बावजूद अफगान जनता को खाद्य सामग्री, दवाइयां और पुनर्निर्माण सहायता दी है। यह एक ऐसा संकेत था जो बताता है कि भारत मानवीय दृष्टिकोण से जुड़ाव बनाए रखना चाहता है, न कि राजनीतिक दूरी।

दिलचस्प बात यह है कि भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता नहीं दी है, लेकिन दोनों पक्षों के बीच संवाद के रास्ते खुल गए हैं। मुत्ताकी की भारत यात्रा उसी विश्वास बहाली का प्रतीक है। अफगानिस्तान के लिए भारत का संदेश स्पष्ट है शांति, स्थिरता और क्षेत्रीय संप्रभुता को कोई बाहरी ताकत बंधक नहीं बना सकती।

साथ आए चीन और रूस भी

इस कूटनीतिक समीकरण का दूसरा पहलू रूस और चीन हैं। मॉस्को फॉर्मेट में भारत का इन दोनों शक्तियों के साथ खड़ा होना यह दर्शाता है कि नई दिल्ली अब अमेरिकी धुरी से परे जाकर बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का समर्थन कर रही है। अमेरिका की एशियाई नीति, विशेषकर इंडो-पैसिफिक रणनीति में भारत को हमेशा ‘संतुलनकारी ताकत’ के रूप में देखा गया है, लेकिन अब भारत खुद को केवल संतुलन नहीं, बल्कि ‘निर्देशक शक्ति’ के रूप में स्थापित करना चाहता है।

रूस के लिए यह गठजोड़ उसके मध्य एशियाई प्रभाव को मजबूत करने का माध्यम है, जबकि चीन के लिए यह अमेरिका की दक्षिण एशियाई वापसी को रोकने का अवसर। लेकिन भारत के लिए यह समीकरण सबसे ज्यादा रणनीतिक है। क्योंकि भारत जानता है कि अफगानिस्तान में अस्थिरता का सीधा असर जम्मू-कश्मीर से लेकर ईरान तक पड़ सकता है। यही वजह है कि भारत इस पूरे क्षेत्र में किसी नई अमेरिकी सैन्य मौजूदगी को खतरे के रूप में देख रहा है।

यह कहना गलत नहीं होगा कि तालिबान और भारत के बीच यह नया संपर्क दक्षिण एशिया की राजनीति में ‘असामान्य सामान्यता’ की शुरुआत है। बीते दशकों में भारत ने ‘तालिबान’ शब्द को कट्टरता, आतंक और अस्थिरता से जोड़ा था। लेकिन अब वह व्यवहारिक राजनीति के धरातल पर उतर आया है, जहां विचारधारा से ज़्यादा मायने रखते हैं राष्ट्रीय हित और भू-राजनीतिक संतुलन। यही परिपक्वता भारत की नई विदेश नीति की आत्मा है।

भारत का यह रुख न केवल अमेरिका के लिए चुनौती है, बल्कि यह उस पश्चिमी विश्वदृष्टि को भी सवालों के घेरे में खड़ा करता है, जो हर संकट का समाधान सैन्य उपस्थिति में ढूंढती है। अफगानिस्तान में 20 साल के अमेरिकी हस्तक्षेप ने क्या दिया? एक बर्बाद अर्थव्यवस्था, टूटता समाज और असुरक्षित भविष्य। भारत उस त्रासदी को दोहराने नहीं देना चाहता। यही वजह है कि नई दिल्ली स्पष्ट रूप से यह कह रही है अब अफगानिस्तान को अब अफगानों के ही हवाले छोड़ देना चाहिए।

कूटनीति का यह नया अध्याय भारत के आत्मविश्वास का प्रतीक है। एक समय था, जब भारत अमेरिकी नीतियों के साथ कदम मिलाकर चलता था, चाहे वह आतंकवाद के खिलाफ युद्ध हो या इंडो-पैसिफिक गठबंधन। लेकिन आज भारत अपने निर्णयों को स्वतंत्र रूप से परिभाषित कर रहा है। यह वही भारत है, जो SCO में इस्राइल विरोधी बयान पर हस्ताक्षर करता है और वही भारत है जो बगराम मुद्दे पर अमेरिका से टकराने से भी नहीं झिझकता। यह संकेत है कि नई दिल्ली अब वैश्विक मंच पर केवल ‘भागीदार’ नहीं, बल्कि ‘निर्माता’ बन रही है।

बगराम विवाद के केंद्र में केवल एक एयरबेस नहीं, बल्कि शक्ति-संतुलन की पूरी परिभाषा है। भारत इस संतुलन को अपने पक्ष में ढालने की दिशा में आगे बढ़ चुका है। मुत्ताकी की यात्रा इस प्रक्रिया की शुरुआत भर है। एक ऐसे युग की शुरुआत, जहां भारत अपनी शर्तों पर दोस्ती करेगा और अपने हितों की रक्षा के लिए किसी से भी मतभेद रखने से नहीं हिचकेगा।

यह वही भारत है जिसने कभी कहा था कि हम किसी के खिलाफ नहीं, लेकिन अपने लिए हमेशा खड़े रहेंगे। बगराम पर भारत का विरोध इसी नीति की जीवंत व्याख्या है, आत्मनिर्भर, साहसी और स्वाभिमानी भारत की कूटनीति, जो अब वैश्विक समीकरणों को नई दिशा देने के लिए तैयार है।

Tags: AfghanistanBagram AirbaseChinaIndiaPakistanRussiaTalibanUSअफ़ग़ानिस्तानअमेरिकाचीनतालिबानपाकिस्तानबगराम एयरबेसभारतरूस
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