भारत ने वह कर दिखाया है जो कभी केवल विकसित देशों की प्रयोगशालाओं की सीमाओं में संभव माना जाता था। देश ने अपना पहला स्वदेशी एंटीबायोटिक, ‘नैफिथ्रोमाइसिन’, विकसित कर यह साबित कर दिया है कि वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता अब केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक जीवित सच्चाई है। यह सिर्फ दवा नहीं, बल्कि भारत के विज्ञान की आत्मा और आत्मविश्वास का प्रतीक भी है। एक ऐसी औषधि जिसने कैंसर और डायबिटीज से जूझ रहे लाखों लोगों में उम्मीद की नई रोशनी जगा दी है। यही है पीएम मोदी के आत्मनिर्भर भारत की नयी तस्वीर।
केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने जब यह घोषणा की कि यह एंटीबायोटिक पूरी तरह भारत में विकसित, परीक्षण और प्रमाणित की गई है, तो यह खबर केवल वैज्ञानिकों के लिए नहीं, पूरे राष्ट्र के लिए गौरव का क्षण बन गई। सदियों तक औपनिवेशिक मानसिकता ने यह भ्रम फैलाया कि भारत विचार दे सकता है, लेकिन नवाचार नहीं कर सकता। ‘नैफिथ्रोमाइसिन’ ने उस मिथक को तोड़ दिया। यह भारतीय प्रयोगशालाओं की मिट्टी में जन्मी एक ऐसी सफलता है, जिसने दिखा दिया कि जब इच्छाशक्ति राष्ट्रप्रेम से प्रेरित हो, तो कोई भी विज्ञान असंभव नहीं रहता।
संक्रमणों के खिलाफ करेगी काम
कैंसर और डायबिटीज के मरीजों के लिए यह खोज किसी वरदान से कम नहीं। इन बीमारियों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ जाती है और शरीर उन संक्रमणों से भी लड़ नहीं पाता जिनसे सामान्य व्यक्ति आसानी से उबर जाता है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई संक्रमण सामने आए जिन पर पुरानी एंटीबायोटिक्स का असर खत्म हो गया था। यही वह चुनौती थी जिसने दुनिया के वैज्ञानिक समुदाय को हिला दिया था और इसी चुनौती को भारत ने अपने दम पर स्वीकार किया। ‘नैफिथ्रोमाइसिन’ अब उन खतरनाक श्वसन संक्रमणों के खिलाफ काम करेगी जिनके आगे पुरानी दवाएं बेअसर हो चुकी हैं।
यह उपलब्धि इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसे किसी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सहयोग से नहीं, बल्कि भारत के वैज्ञानिकों ने अपनी मौलिक क्षमता से विकसित किया है। यह पूरी तरह “Made in India, Made for Humanity” की परिभाषा को सार्थक करती है। प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल The New England Journal of Medicine में इसका प्रकाशन यह सिद्ध करता है कि भारत अब केवल अनुसरण नहीं, बल्कि नेतृत्व करने की स्थिति में है। यह वही पल है जब दुनिया को यह स्वीकार करना होगा कि अब चिकित्सा अनुसंधान में भारत किसी का अनुसरण नहीं करेगा, बल्कि स्वयं मार्गदर्शक बनेगा।
डॉ. जितेंद्र सिंह ने यह भी बताया कि भारत ने 10,000 से अधिक मानव जीनोम का सीक्वेंसिंग पूरा कर लिया है और लक्ष्य अब दस लाख तक पहुंचने का है। यह घोषणा उस दिशा में भारत के इरादों को स्पष्ट करती है — कि आने वाला युग केवल आर्थिक विकास का नहीं, बल्कि जैविक नवाचार और आनुवंशिक स्वावलंबन का होगा। जीन थेरेपी के शुरुआती ट्रायल्स में 60 से 70 प्रतिशत तक की सफलता भारत के मेडिकल क्षेत्र में नए युग की शुरुआत का संकेत देती है। बिना किसी गंभीर दुष्प्रभाव के ऐसे परिणाम विश्व पटल पर भारत को विश्वसनीय चिकित्सा शक्ति के रूप में स्थापित करते हैं।
सरकार ने किया 50,000 करोड़ रुपये का प्रावधान
सरकार ने जब राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (ANRF) के लिए 50,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया, तो वह केवल एक वित्तीय घोषणा नहीं थी, वह भारत की वैज्ञानिक यात्रा की दीर्घकालिक रूपरेखा थी। इसमें से 36,000 करोड़ रुपये निजी और गैर-सरकारी स्रोतों से जुटाने की योजना यह दिखाती है कि भारत अब विज्ञान को सरकारी प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं रखना चाहता, बल्कि इसे जनआंदोलन बनाना चाहता है। जब राष्ट्र की ऊर्जा और जनता का विश्वास विज्ञान के साथ मिल जाए, तब अनुसंधान केवल प्रयोगशालाओं तक नहीं, बल्कि हर नागरिक के विचार तक पहुंच जाता है।
भारत पहले से ही ‘फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड’ कहा जाता रहा है, क्योंकि उसने सस्ती और प्रभावी दवाओं के उत्पादन से पूरी दुनिया की मदद की है। लेकिन अब उस भूमिका से आगे बढ़ रहा है। अब हम केवल निर्माण नहीं, बल्कि आविष्कार कर रहे हैं। पहले भारत जेनेरिक दवाओं का उत्पादन करता था, अब भारत मूल दवाओं का सृजन कर रहा है। यह परिवर्तन केवल विज्ञान में नहीं, मानसिकता में भी क्रांति का प्रतीक है। अब हम पश्चिम से समाधान नहीं मांगते, हम स्वयं समाधान गढ़ते हैं। यह सब पीएम मोदी के आत्मनिर्भर भारत विजन का ही कमाल है।
यह खोज भारत की वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता का ही नहीं, बल्कि आत्मसम्मान का भी प्रमाण है। आज से कुछ दशक पहले तक यह कल्पना भी कठिन थी कि भारत में विकसित कोई दवा अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल में प्रकाशित होकर विश्व मान्यता पाएगी। लेकिन यह पीएम मोदी का नया भारत है, जिसने चंद्रमा पर तिरंगा फहराया, सूर्य की परिक्रमा में उपग्रह भेजे और अब जीवन बचाने वाली औषधि अपने दम पर बनाई है। यह वही भारत है जो कह रहा है “हम दूसरों की दवा नहीं, अब दुनिया के लिए दवा बनाएंगे।”
‘नैफिथ्रोमाइसिन’ एक नई दिशा की शुरुआत है। यह विज्ञान के उस आदर्श को साकार करती है जहां अनुसंधान का लक्ष्य केवल लाभ नहीं, बल्कि मानवता की सेवा है। यही भारतीय विज्ञान की आत्मा है, जहां प्रयोगशाला भी तपोभूमि बन जाती है। भारतीय वैज्ञानिक जब रातों को जागकर किसी फॉर्मूले पर काम करते हैं, तो वह केवल वैज्ञानिक नहीं रहते, वे राष्ट्रसेवक बन जाते हैं।
आज भारत का यह नवाचार उन सभी युवाओं के लिए प्रेरणा है जो प्रयोगशालाओं में सपनों को आकार दे रहे हैं। यह खोज उन्हें यह विश्वास देती है कि अब नवाचार के लिए विदेश जाने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि भारत स्वयं नवाचार का केंद्र बन चुका है। यही वह आत्मविश्वास है जो प्रधानमंत्री मोदी के ‘आत्मनिर्भर भारत’ की आत्मा में धड़कता है। आत्मनिर्भरता केवल निर्माण की नहीं, बल्कि ज्ञान की भी होनी चाहिए।
‘नैफिथ्रोमाइसिन’ ने साबित कर दिया है कि विज्ञान और राष्ट्रभक्ति जब एक साथ चलते हैं, तो परिणाम केवल खोज नहीं, इतिहास बनते हैं। आज यह एंटीबायोटिक सिर्फ दवा नहीं, बल्कि भारत की नवयुगीन पहचान है। वह पहचान जो कहती है कि अब भारत केवल स्वास्थ्य सेवाओं का उपभोक्ता नहीं, बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा का निर्माता है।
यह सफलता उस नए भारत की झलक है जो अब कहता है कि हम दवा मांगने वाले नहीं, दवा देने वाले राष्ट्र हैं। हम अनुसरण करने वाले नहीं, दिशा दिखाने वाले हैं। और जब विज्ञान राष्ट्र की सेवा में हो, तो हर खोज भारत की शान बन जाती है।