असम के लोकप्रिय गायक ज़ुबिन गर्ग की असमय मृत्यु ने पूरे उत्तर-पूर्व को भावनात्मक रूप से झकझोर दिया। लेकिन, शोक के बीच ही एक वैचारिक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। ऐसा तूफ़ान जिसने आस्था बनाम प्रोपेगेंडा और संस्कृति बनाम राजनीति की बहस को जन्म दे दिया।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने खुलकर कहा है कि कांग्रेस और वामपंथी खेमे ने सुनियोजित तरीके से ज़ुबिन गर्ग की छवि को तोड़-मरोड़कर पेश किया। एक ऐसे व्यक्ति की तरह, जो कथित रूप से नास्तिक और लेफ्ट विचारधारा से प्रभावित था। सरमा के अनुसार यह सिर्फ़ सांस्कृतिक भ्रम नहीं, बल्कि एक राजनीतिक षड्यंत्र है, जिसका उद्देश्य 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले ज़ुबिन के विशाल हिन्दू और ब्राह्मण समर्थक वर्ग को बांटना है।
इस पर हिमंत सरमा ने तीखी टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि ज़ुबिन हमसे भी बड़े शिवभक्त थे। लेफ्ट गैंग सनातन धर्म को कमजोर करने के लिए उनके नाम का दुरुपयोग कर रहा है।
एक फ़िल्म का संवाद और बना राजनीतिक हथियार
पूरा विवाद ज़ुबिन की 2019 की असमिया फ़िल्म कांचनजंघा के एक संवाद से शुरू हुआ।
“मुर कुनु जाती नाइ, मुर कुनु धर्म नाइ, मुर कुनु भगवान नाइ, मय मुक्तो, मये कांचनजंघा।”
(मेरा कोई जात नहीं, कोई धर्म नहीं, कोई भगवान नहीं, मैं आज़ाद हूं, मैं कांचनजंघा हूं।)
यह संवाद दरअसल एक कलात्मक प्रतीक था। सामाजिक बंधनों और अंधविश्वास से मुक्ति का संदेश। लेकिन वामपंथी समूहों और कांग्रेस के कुछ नेताओं ने इसे तोड़-मरोड़कर पेश किया, मानो ज़ुबिन नास्तिक थे।
ज़ुबिन के करीबी सहयोगी राजू बरुआ ने इस राजनीतिक व्याख्या को घोर अवसरवाद कहा। उनके अनुसार, बीस सालों तक मिया-मुस्लिम बहुल इलाक़ों में ज़ुबिन के कार्यक्रम नहीं हुए। वहां विदेशी कलाकारों को बुलाया जाता था। अब अचानक उनकी मृत्यु के बाद वही लोग उन्हें अपना बताकर राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं।
‘आयातित’ भीड़ और स्थानीय अस्थिरता
ज़ुबिन के अंतिम संस्कार के दौरान कुछ समूहों ने योजनाबद्ध तरीके से एंटी-बीजेपी नारेबाज़ी की। इसके तुरंत बाद बकसा ज़िले में हुई हिंसा ने विवाद को और गहरा दिया। पुलिस ने इस मामले में नौ लोगों को गिरफ्तार भी किया, जिनमें से आठ मुस्लिम समुदाय के थे। एक वायरल वीडियो में एक आरोपी ने खुद स्वीकार किया कि उसने कभी ज़ुबिन का नाम तक नहीं सुना था, उसे सिर्फ़ पत्थर फेंकने के निर्देश मिले थे।
बकसा के एसपी के मुताबिक़ हिंसा बेंगलुरु आधारित एक व्हाट्सऐप ग्रुप से समन्वित थी। इससे साफ़ हुआ कि इस पूरे घटनाक्रम के पीछे बाहरी ताकतें सक्रिय थीं, जिनका उद्देश्य राजनीतिक अस्थिरता पैदा करना था।
ज़ुबिन गर्ग: एक सच्चे शिवभक्त की पहचान
ज़ुबिन गर्ग की नास्तिक छवि गढ़ने की कोशिश उनके वास्तविक जीवन के बिलकुल उलट है। वे न केवल महादेव के उपासक थे, बल्कि उन्होंने अपने घर में शिवलिंग की स्थापना की थी। हर साल महाशिवरात्रि पर वे पूजा करते थे।
लेखिका अनुराधा शर्मा पुजारी को दिए एक साक्षात्कार में ज़ुबिन ने कहा था कि मैं शिव का भक्त हूं, और मैंने महाकाल पर एक कविता लिखी है।
उनकी प्रसिद्ध पंक्तियां थीं :
‘मुर तृतिया नयन केतिया खार पाबो… जोगाई डिम विश्वक मय महाकाल, मय विश्वपाल।’
(मेरा तीसरा नेत्र कब खुलेगा, मैं ब्रह्मांड को जाग्रत करूंगा, मैं महाकाल हूं, मैं विश्वपाल हूं।)
यहां बता दें कि ज़ुबिन ने अपने हाथ पर महाकाल का टैटू भी बनवाया था। उन्हें जानने वाले कहते हैं कि उन्होंने जाति और अंधपरंपराओं को तो ठुकराया, लेकिन धर्म से कभी विमुख नहीं हुए। उनका जीवन आधुनिक हिंदू चेतना का उदाहरण था, जो स्वतंत्र भी है और श्रद्धालु भी।
आस्था को वोट की राजनीति में ढालना
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा का यह बयान केवल ज़ुबिन की श्रद्धा की रक्षा भर नहीं, बल्कि उस व्यापक प्रवृत्ति के विरुद्ध भी है जिसमें कांग्रेस-लेफ्ट वर्षों से भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों का ‘रीब्रांडिंग’ करती रही है।
जैसे कभी स्वामी विवेकानंद और नेताजी सुभाष बोस की विचारधारा को धर्मनिरपेक्ष रंग में रंगा गया, वैसे ही आज ज़ुबिन गर्ग की आस्था को राजनीतिक कथा में समेटने की कोशिश की जा रही है। असम में यह चलन अब नई ऊंचाई पर पहुंच गया है, जहां कला, धर्म और राजनीति की रेखाएं जानबूझकर धुंधली की जा रही हैं।
असम की जनता की प्रतिक्रिया: ज़ुबिन असम की आत्मा हैं
असम में आम लोगों ने इस प्रोपेगेंडा का खुलकर विरोध किया है। सोशल मीडिया पर हज़ारों लोगों ने ज़ुबिन के भक्ति गीत, भोले बाबा की प्रस्तुतियां और मंदिर यात्राओं की तस्वीरें साझा कीं। एक फैन ने लिखा कि ज़ुबिन न लेफ्ट थे, न राइट। वे असम की आत्मा थे। पर वे महाकाल के पुत्र भी थे। जनता का संदेश साफ़ है कि ज़ुबिन की पहचान से छेड़छाड़ असम की आत्मा का अपमान है।
सांस्कृतिक प्रतीकों की राजनीति
हिमंत बिस्वा सरमा ने इस पूरे मामले में जो रुख़ अपनाया, उसने उन्हें फिर से असम की सांस्कृतिक चेतना के रक्षक के रूप में स्थापित कर दिया है। उन्होंने कहा कि ज़ुबिन के सभी संस्कार पूरे हिंदू रीति से हुए। फिर भी झूठ फैलाया जा रहा है कि वे नास्तिक थे। यह सरकार के स्वदेशी और असमिया हितों को रोकने की कोशिश है।
ज़ुबिन गर्ग केवल गायक नहीं थे, वे भावना थे, पहचान थे, असम की आत्मा थे। उन्हें राजनीतिक नारों में सीमित करने की कोशिश न केवल उनके जीवन का अपमान है, बल्कि उस सांस्कृतिक एकता का भी अपमान है जिसे उन्होंने अपने संगीत से गढ़ा। असम के लोगों के लिए ज़ुबिन आज भी वही हैं। महाकाल की भूमि की आवाज़, और उस असम का प्रतीक जो भक्ति और स्वतंत्रता दोनों का संगम है।




























