90 का दशक बीतते बीतते लालू बिहार की सियासत में जबरदस्त मज़बूत नज़र आने लगे थे। बिहार के जातिगत समीकरण और पार्टी से लेकर सत्ता तक में लालू की पकड़ इतनी मजबूत हो चुकी थी कि वो लगभग अजेय दिखाई देते थे।
लालू खुद कहते थे– “जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू”
दरअसल लालू यादव और उनके वफादार ये मान बैठे थे कि वो सिर्फ और सिर्फ शासन करने के लिए ही बने हैं– वो भी अपने हिसाब से और अपने तौर तरीकों से।
चारा घोटाला– एक IAS ने कैसे खत्म की लालू की सल्तनत?
लेकिन हर चीज की तरह इसकी भी उम्र थी। 1966 बैच के एक सीनियर IAS अधिकारी थे विजय शंकर दुबे। विजय शंकर दुबे बेहद कड़क मिज़ाज और ईमानदार अधिकारी माने जाते थे। जुलाई 1995 में वो बिहार के वित्त सचिव बनाए गए।
जिस वक्त उन्हें ये जिम्मेदारी मिली, तब तक बिहार सरकार की आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब हो चुकी थी कि सरकारी कर्मचारियों को वेतन तक नहीं मिल पा रहा था। स्थिति जब हाथ से बाहर निकलने लगी, तो विजय शंकर दुबे ने इसकी आंतरिक जाँच कराने का निर्णय लिया।
विजय शंकर दुबे ने बाद में एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में बताया कि जब सरकार सैलरी देने में भी फेल होने लगी, तब उन्हें हैरानी हुई कि आख़िर जो पैसा आता है, वो जा कहां रहा है…?
उन्होने ने जब जाँच की, तो पता चला कि पशुपालन विभाग यानी एनिमल हसबैंड्री डिपार्टमेंट अपने निर्धारित बजट का पाँच गुना ज़्यादा पैसा खर्च कर रहा था। उनका माथा ठनका, उन्होंने तुरंत सभी जिलाधिकारियों को एक फैक्स भेजा और पशुपालन विभाग के बीते तीन साल में हुए सभी खर्चों की जाँच करने का आदेश जारी कर दिया।
इसी तरह 20 जनवरी 1996 को बिहार के CAG ने भी एक ऐसा ही मेमो रीलीज किया, जिसमें डिपार्टमेंट की अलग अलग ट्रेज़रीज़ से निकाली जा रही रकम और उसके पैटर्न को लेकर चिंता जताई गई थी।
दुबे ने बताया कि CAG का मेमो मिलते ही, उन्होने उसी दिन अपने एक एडीशनल सेकेटरी को रांची भेजा, ताकि पता लगाया जा सके कि बीते तीन सालों में ये पैसा कहां खर्च किया गया?
अगले ही दिन यानी 21 जनवरी को उस अधिकारी ने अपने सेकेट्री को रिपोर्ट दी कि ‘सर, बजट की सीमा तो पार हो ही चुकी है, बल्कि जिन बाउचर्स और बिल के आधार पर पैसा निकाला गया, वो सारे के सारे फर्जी हैं’
अनुभवी विजय शंकर दुबे समझ चुके थे कि माज़रा क्या है?
आख़िरकार उनके निर्देश के बाद “27 जनवरी 1996 को, चाईबासा के तत्कालीन डीएम अमित खरे ने पशुपालन विभाग और ट्रेज़री के कई दफ्तरों पर छापेमारी की। इस छापे में जो दस्तावेज बरामद हुए उनसे पता चला कि सिर्फ अफ़सर ही नहीं सीनियर नेताओं और कारोबारियों का एक नेक्सस भी इस घोटाले में शामिल है।
950 करोड़ रुपये का यही घोटाला बाद में चारा घोटाले के नाम से जाना गया, जिसने कभी अजेय नज़र आ रहे रहे लालू यादव को बिहार की पॉलिटिक्स से कुछ ऐसे ग़ायब किया कि वो फिर कभी सत्ता में नहीं लौट पाए।
घोटाले की जाँच और जाँच के नाम पर मज़ाक़
खैर कहानी अभी भी बाक़ी थी।
बिहार पर किताब लिखने वाले ऑथर और पत्रकार मृत्युंजय शर्मा अपनी किताब ब्रोकेन प्रोमिसेज़ में लिखते हैं – घोटाला सामने आने के बाद खानापूर्ति के लिए लालू सरकार ने एक सदस्य वाले दो जांच आयोग बनाए, लेकिन इसे लोकतंत्र का मज़ाक़ बनाना कहिए या फिर विडंबना– हुआ ये कि कि लालू सरकार ने फूलचंद सिंह नाम के जिस व्यक्ति को इस घोटाले की जाँच का जिम्मा सौंपा था, वो न सिर्फ ख़ुद इस मामले में आरोपी था, बल्कि चार्जशीट में भी उसका नाम था।
अब ये जानकारी सामने आई, तो हंगामा तो होना ही था। उस वक्त विपक्ष के नेता और बिहार बीजेपी के अध्यक्ष सुशील मोदी ने सीबीआई जाँच की माँग तेज कर दी। सरकार ने माँग नहीं मानी तो सुशील मोदी 11 मार्च 1996 को पटना हाईकोर्ट पहुँच गए। कोर्ट ने भी उनकी अपील मानते हुए CBI जाँच का आदेश दे दिया, लेकिन राज्य सरकार हाईकोर्ट के इस फैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट पहुँच गई। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।
चारा घोटाला और CBI की एंट्री: चाह कर भी लालू को क्यों नहीं बचा सके गुजराल ?
जाँच के CBI के पास जाते ही ये घोटाला और इससे जुड़ी पॉलिटिक्स भी राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गई। सीबीआई के तत्कालीन जॉइंट डायरेक्टर यू.एन. बिस्वास को चारा घोटाले की जाँच का जिम्मा सौंपा गया। बिस्वास और उनकी टीम जल्दी ही समझ गई कि इस घोटाले के पीछे कोई छोटा मोटा नेता नहीं, बल्कि ख़ुद मुख्यमंत्री लालू यादव शामिल हैं।
इस वक्त सिर्फ पटना ही नहीं दिल्ली की सियासत में में भी उठापटक चल रही थी। कांग्रेस के समर्थन वापस लेने की वजह से एच.डी. देवगौड़ा की सरकार गिर चुकी थी और संयुक्त मोर्चा में एक बार फिर प्रधानमंत्री ढूंढने की क़वायद जारी थी।
वैसे तो इस लिस्ट में मुलायम सिंह और लालू यादव के नाम भी शामिल थे, लेकिन बात इंद्र कुमार गुजराल के नाम पर आ कर बनी।
दरअसल लालू के गुजराल से काफी अच्छे रिश्ते थे। 1991 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद लालू की मदद से ही गुजराल 1992 में राज्यसभा पहुँचे थे।ऐसे में
लालू के लिए मुलायम से कहीं अच्छा विकल्प गुजराल थे, लिहाजा उन्होने मुलायम को रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी।
अंतत: 21 अप्रैल 1997 को इंद्र कुमार गुजराल भारत के अगले प्रधानमंत्री बने। उनके प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिन के अंदर ही गवर्नर किदवई ने CBI को लालू के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दे दी।
इससे हुआ ये कि विपक्ष के साथ साथ जनता दल के अंदर भी लालू के इस्तीफे की माँग उठने लगी। लालू पर कुर्सी छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा, लेकिन ठीक इसी वक्त लालू ने एक बड़ा दाँव चल दिया। लालू ने जनता दल छोड़ दिया और 5 जुलाई 1997 को अपनी नई पार्टी बना ली। इस नई नवेली पार्टी का नाम था– राष्ट्रीय जनता दल यानी RJD । लालू की ताकत और पार्टी पर उनकी ग्रिप इतनी शानदार थी कि जनता दल के लगभग सभी विधायक टूटकर उनके साथ आ गए और RJD ज्वाइन कर ली।
PM गुजराल ने दिए CBI को जाँच में नरमी बरतने के निर्देश
गुजराल ने भले ही लालू के ख़िलाफ़ चल रही सीबीआई जाँच रोकी न हो, लेकिन धीमी ज़रूर कर दी।
उस वक्त सीबीआई के चीफ जोगिंदर सिंह ने बताया था कि “जब उन्होने गुजराल साहब को इस पूरे मामले की जानकारी दी, तो उन्होंने कहा —कि जाँच में जरा नरमी बरतो। जब देविंदर सिंह ने इसके जवाब में पीएम से कहा कि इसके लिए आपको लिखित आदेश देने होंगे।
तो उन्होंने कहा — ‘तुम जानते हो, मैं देश प्रधानमंत्री हूँ?’
मैंने कहा — ‘हाँ, लेकिन आपको भी पता नहीं होना चाहिए कि पटना हाईकोर्ट और मेरे बीच क्या चल रहा है।’”
जोगिंदर सिंह ने यह भी बताया कि इसके बाद उन्हें तत्कालीन गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्ता का फोन आया। गुप्ता ने भी कहा — कि जाँच को टालते रहो…नहीं तो नौकरी खतरे में पड़ जाएगी…
वहीं कहा जाता है कि देवगौड़ा ने तो उल्टा CBI को तेजी से कार्रवाई करने के लिए कहा था और शायद उनकी कुर्सी जाने के पीछे एक बड़ी वजह ये भी थी।
चारा घोटाला न होता तो प्रधानमंत्री भी बन सकते थे लालू !
खैर चारा घोटाले ने सिर्फ़ लालू की छवि तो ख़राब की ही, कई अफसरों और नेताओं के करियर को भी नुक़सान पहुंचाया। इससे बिहार की पहले से ही सुस्त सरकारी व्यवस्था और भी सुस्त हो गई। अफसर फ़ाइलों पर साइन करने से डरने लगे और योजनाएं बीच में ही लटकने लगीं।
2006 में एक इंटरव्यू में लालू ने खुद कबूल किया —कि वो प्रधानमंत्री भी बन सकते थे…लेकिन चारा घोटाले की वजह से उनकी उम्मीदें खत्म हो गईं।
आख़िरकार 25 जुलाई 1997 को वो दिन आ ही गया, जब गरीबों के मसीहा के रूप में बिहार के बेताज बादशाह बन बैठे लालू को गिरफ़्तार कर लिया गया, लेकिन तब तक लालू अपना दाँव चल चुके थे। सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए लालू ने पहले तो जनता दल को तोड़कर RJD बनाई और फिर फिर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया।