पासनी पोर्ट से ड्रोन तक: भारत को घेरने की पाकिस्तान की नई साजिश

जनरल असीम मुनीर ने सत्ता की लगाम पूरी तरह अपने कब्जे में कर ली है और अब वे पाकिस्तान की कूटनीति को इस दिशा में मोड़ रहे हैं कि भारत के चारों ओर नए खतरे खड़े किए जा सकें।

पासनी पोर्ट से ड्रोन तक: भारत को घेरने की असीम मुनीर की नई साजिश

तुर्की और पाकिस्तान के बीच बढ़ती निकटता केवल आर्थिक या रक्षा संबंधों तक सीमित नहीं है।

पाकिस्तान की राजनीति में जब भी अव्यवस्था बढ़ती है, उसकी सेना विदेश नीति का नियंत्रण अपने हाथ में ले लेती है। आज वही हो रहा है। जनरल असीम मुनीर ने सत्ता की लगाम पूरी तरह अपने कब्जे में कर ली है और अब वे पाकिस्तान की कूटनीति को इस दिशा में मोड़ रहे हैं कि भारत के चारों ओर नए खतरे खड़े किए जा सकें। पाकिस्तान भले आर्थिक रूप से डूबा हुआ देश हो, लेकिन उसकी खुफिया और सामरिक सोच हमेशा पड़ोसी देशों के खिलाफ ही सक्रिय रहती है। अब उसके निशाने पर भारत है और इस बार उसका नया दांव है अमेरिका, तुर्की और अरब सागर का पासनी बंदरगाह।

ऑपरेशन सिंदूर में भारत द्वारा मिली सामरिक हार के बाद पाकिस्तान ने समझ लिया कि प्रत्यक्ष टकराव में उसका कोई भविष्य नहीं है। ऐसे में उसने वही पुराना रास्ता चुना है-दूसरों के कंधों पर बंदूक रखकर चलाना। अमेरिका और तुर्की को साथ जोड़कर वह भारत के चारों ओर एक नई सामरिक रिंग खड़ी करने में जुटा है। यह कोई सामान्य रणनीति नहीं, बल्कि एक सुनियोजित ‘मुल्ला मुनीर मॉडल’ है, जिसका उद्देश्य है भारत की सीमाओं के चारों ओर अमेरिकी निगरानी और तुर्की के औद्योगिक नेटवर्क के जरिए भू-राजनीतिक घेराबंदी करना।

अमेरिका को पासनी का लोभ

पाकिस्तान ने अमेरिका को पासनी बंदरगाह का उपयोग की पेशकश की है, जो ग्वादर से महज 100 किलोमीटर की दूरी पर है। यह वही इलाका है, जहां चीन ने अपने सबसे बड़े सामरिक निवेश किए हैं। पासनी की लोकेशन इतनी अहम है कि वह तीन ताकतों भारत, ईरान और चीन के बीच अमेरिका के लिए रणनीतिक मोर्चा तैयार कर सकती है। ईरान के चाबहार बंदरगाह पर भारत की मौजूदगी और ग्वादर पर चीन के प्रभाव के बीच अमेरिका अगर पासनी में पैर जमाता है, तो यह पूरा इलाका उसकी निगरानी में आ जाएगा।

रिपोर्टों के मुताबिक, असीम मुनीर ने इस विचार को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ हुई बातचीत के बाद आगे बढ़ाया। आधिकारिक तौर पर इसे सैन्य अड्डा नहीं कहा गया है, लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी अमेरिका किसी क्षेत्र में ‘गैर-सैन्य उपस्थिति’ के नाम पर घुसा है, वहां उसका ड्रोन, खुफिया नेटवर्क और ऑपरेटिव ठिकाने के भी पहुंचते देर नहीं लगती।

यहां बता दें कि पाकिस्तान की पेशकश दोहरी है। एक तरफ वह अमेरिका को अरब सागर के गहरे पानी तक पहुंच देना चाहता है, ताकि वॉशिंगटन फिर से अफगानिस्तान, ईरान और भारत की निगरानी कर सके। दूसरी ओर, वह अमेरिका से सैन्य सहायता और आर्थिक राहत की उम्मीद लगाए बैठा है। असीम मुनीर को अच्छी तरह पता है कि वाशिंगटन को चीन के बढ़ते प्रभाव की चिंता है और अगर पासनी पर अमेरिकी झंडा फहरता है, तो बीजिंग के ‘बेल्ट ऐंड रोड’ प्रोजेक्ट पर अंकुश लगाया जा सकता है।

यह वही चाल है जो पाकिस्तान 2000 के दशक में भी चल चुका है, जब अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपने अभियानों के लिए पाकिस्तान के शम्सी एयरबेस का उपयोग किया था। तब पाकिस्तान ने अमेरिका को ड्रोन ऑपरेशन की अनुमति दी थी। ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद यह ऑपरेशन बंद कर दिए गए थे, लेकिन अब वही इतिहास खुद को दोहराने जा रहा है।

अमेरिका और तुर्की के बीच पाकिस्तान का झूलना

अमेरिका को लुभाने के साथ-साथ पाकिस्तान ने एक और धुरी मजबूत की है और वह है तुर्की। इस्लामिक दुनिया में तुर्की को वह ‘धार्मिक ठेका’ हासिल है, जिसे पाकिस्तान राजनीतिक रूप से भुनाना चाहता है। इस साल अप्रैल में पाकिस्तान ने तुर्की को कराची में 1000 एकड़ जमीन मुफ्त में देने की पेशकश की है, ताकि वहां औद्योगिक और निर्यात केंद्र स्थापित किया जा सके। शहबाज शरीफ सरकार इसे ‘आर्थिक साझेदारी’ कहती है, लेकिन असल में यह एक रणनीतिक निवेश है।

जानकारी हो कि तुर्की की दिलचस्पी केवल कारोबार में नहीं है। एर्दोगन की विदेश नीति पिछले कुछ वर्षों से पैन-इस्लामिक पुनरुत्थान पर आधारित है, जिसमें भारत का विरोध और कश्मीर का मुद्दा केंद्र में है। जब पाकिस्तान पर भारत ने ऑपरेशन सिंदूर में प्रहार किया था, तो तुर्की ही पहला देश था जिसने पाकिस्तान का खुलकर समर्थन किया। अब जब कराची में तुर्की की आर्थिक मौजूदगी बढ़ेगी, तो वही आधार भविष्य में सैन्य या तकनीकी सहयोग का रूप भी ले सकता है।

यह सब भारत के लिए गहरी चिंता का विषय है। क्योंकि कराची का यह नया औद्योगिक कॉरिडोर अरब सागर के किनारे ऐसे इलाकों में विकसित हो रहा है, जहां से भारत के पश्चिमी तट की निगरानी की जा सकती है। अगर अमेरिका को पासनी, तुर्की को कराची मिल जाता है, तो पाकिस्तान एक साथ दो विरोधी ताकतों को भारत की सीमा के सामने बिठा देगा।

भारत की रणनीतिक चिंता

भारत की सबसे बड़ी चिंता यह नहीं कि पाकिस्तान अमेरिका या तुर्की से दोस्ती कर रहा है, बल्कि यह है कि ये गठजोड़ भारत के सामरिक घेराव की कोशिश हैं। भारत ने ईरान के साथ मिलकर चाबहार बंदरगाह में अरब सागर तक अपनी पहुंच बनाई थी, ताकि ग्वादर पर चीन की पकड़ को संतुलित किया जा सके। अब अगर पासनी में अमेरिका सक्रिय होता है, तो भारत का वह सामरिक संतुलन डगमगा सकता है।

पासनी से भारत के चाबहार टर्मिनल की दूरी केवल 300 किलोमीटर है। इतनी दूरी से ड्रोन निगरानी सहज संभव है। अमेरिकी ड्रोन तकनीक और पाकिस्तान की स्थानीय खुफिया जानकारी अगर एकजुट हो जाती है, तो यह भारत के पश्चिमी तट के लिए खतरा बनेगा।

याद कीजिए जब अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद वाशिंगटन को इस पूरे क्षेत्र में अपनी निगरानी क्षमता घटानी पड़ी थी। अब पाकिस्तान उसे एक वापसी का वैकल्पिक दरवाजा दे रहा है। इस डील में पाकिस्तान को पैसा, राजनीतिक सुरक्षा और वैश्विक वैधता मिलेगी, बदले में अमेरिका को अरब सागर और भारतीय सीमा के पास एक साइलेंट ऑपरेशन जोन।

यह गठजोड़ भारत के लिए केवल सुरक्षा का नहीं, बल्कि राजनयिक दबाव का भी संकेत है। पाकिस्तान जानता है कि भारत का अमेरिका से संबंध अब भी रणनीतिक लेकिन सतर्क हैं और अगर वह अमेरिका को पासनी में जगह देता है, तो वह अप्रत्यक्ष रूप से भारत की सामरिक नीतियों पर दबाव डाल सकता है।

पाकिस्तान की दोहरी चाल

जनरल असीम मुनीर की राजनीति का मूल यही है, अंदर से भीख मांगो, बाहर से धमकी दो। एक तरफ पाकिस्तान का खजाना खाली है, डॉलर गायब हैं, जनता महंगाई से त्रस्त है, दूसरी तरफ सेना अरबों डॉलर की योजनाएं तैयार कर रही है ताकि अमेरिका और तुर्की दोनों को खुश रखा जा सके। दरअसल असीम मुनीर जानता है कि अमेरिका चीन के खिलाफ किसी भी नए मोर्चे की तलाश में है। इसलिए वह खुद को एक उपयोगी मोहरा साबित करना चाहता है। तुर्की के साथ उसकी नज़दीकी भी उसी इस्लामी एकता की छवि बनाने के लिए है, जिसे वह कश्मीर के नाम पर भुना सके।

कहने को तो यह सब पाकिस्तान के राष्ट्रीय हित के नाम पर किया जा रहा है, लेकिन असल में यह मुनीर की निजी सत्ता-सुरक्षा योजना है। पाकिस्तान की सेना हमेशा तब बाहरी दुश्मनों का डर पैदा करती है, जब अंदर से उसका शासन डगमगाता है। यही डर अब अमेरिका और तुर्की की भागीदारी से फैलाया जा रहा है। भारत को अस्थिर दिखाकर पाकिस्तान के घरेलू असंतोष को दबाने के लिए।

भारत की प्रतिक्रिया और रणनीतिक संतुलन

भारत ने अभी तक इस मुद्दे पर कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया है, लेकिन साउथ ब्लॉक की दीवारों के भीतर इस पर गहन समीक्षा हो रही है। भारतीय नौसेना पहले से ही अरब सागर में सक्रिय निगरानी बढ़ा चुकी है। चाबहार और द्वारका के बीच उपग्रह निगरानी क्षमता बढ़ाई जा रही है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत ने यह दिखा दिया है कि वह केवल प्रतिक्रियात्मक नहीं, बल्कि पूर्व नियोजित रणनीतियों पर भी काम कर सकता है।

अगर अमेरिका वास्तव में पासनी में कोई आपरेशनल उपस्थिति बनाता है, तो भारत के लिए यह एक डिप्लोमैटिक टेस्ट केस होगा। नई दिल्ली को वॉशिंगटन से स्पष्ट शब्दों में यह मांग करनी होगी कि वह पाकिस्तान की धरती से किसी भी सैन्य निगरानी या ड्रोन मिशन को अंजाम न दे, जो भारत की संप्रभुता को प्रभावित करे। भारत के पास अब वह सामर्थ्य है कि वह इस तरह की गतिविधियों का जवाब केवल बयान से नहीं, बल्कि सामरिक कदमों से भी दे सकता है। चाहे वह मालदीव-सेशेल्स कॉरिडोर का सुदृढ़ीकरण हो या अरब सागर में INS विक्रांत और INS विशाखापट्टनम जैसे जहाजों की तैनाती।

तुर्की-पाकिस्तान की धुरी और इस्लामी नैरेटिव

तुर्की और पाकिस्तान के बीच बढ़ती निकटता केवल आर्थिक या रक्षा संबंधों तक सीमित नहीं है। यह इस्लामी एकजुटता के नाम पर भारत के खिलाफ प्रचार अभियान भी है। एर्दोगन बार-बार कश्मीर का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाते हैं और पाकिस्तान इस बयानबाज़ी को अपने कूटनीतिक समर्थन की तरह दिखाता है। कराची में तुर्की का औद्योगिक पार्क इस रिश्ते को संस्थागत रूप देने की कोशिश है, जहां कल को सैन्य तकनीक, ड्रोन निर्माण या हथियारों की आपूर्ति के नए रास्ते खुल सकते हैं।

भारत को इस धुरी को केवल निगरानी के स्तर पर नहीं, बल्कि विचारधारा के स्तर पर भी चुनौती देनी होगी। क्योंकि यह गठजोड़ केवल बंदरगाह और हथियारों तक सीमित नहीं, यह दक्षिण एशिया में भारत की स्थायी शक्ति की छवि को कमजोर करने की कोशिश है।

पाकिस्तान की यह नई चाल पासनी पोर्ट का ऑफर, अमेरिकी ड्रोन की वापसी और तुर्की के साथ गठजोड़, सिर्फ रणनीतिक नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक युद्ध का हिस्सा है। जनरल असीम मुनीर यह दिखाना चाहते हैं कि भले ही पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था रसातल में चली गई हो, उसकी सेना अब भी ‘क्षेत्रीय खिलाड़ी’ है।

लेकिन हकीकत यह है कि पाकिस्तान आज भी वही अस्थिर, कर्ज़ में डूबा हुआ और आतंकवाद से जकड़ा हुआ देश है, जो दूसरों की मदद से अपनी भूख मिटाता है। उसकी विदेश नीति में कोई सिद्धांत नहीं, केवल किराए की वफादारी है, जो भी डॉलर दे, उसी का मोहरा बन जाना।

भारत के लिए चुनौती है कि वह इस गठजोड़ को केवल सैन्य दृष्टि से नहीं, बल्कि रणनीतिक नीति के स्तर पर देखे। अमेरिका को यह एहसास कराना जरूरी है कि पाकिस्तान पर भरोसा करना एक बार फिर वही गलती होगी जो 9/11 के बाद हुई थी। तुर्की को यह संदेश देना होगा कि कश्मीर की राजनीति में दखल की कीमत उसके आर्थिक हितों पर पड़ेगी।

सबसे महत्वपूर्ण बात भारत को यह साबित करना होगा कि चाहे पासनी में कोई भी झंडा फहरे, हिंद महासागर और अरब सागर की लहरें अब दिल्ली की रणनीतिक सोच के अनुसार ही बहेंगी।असीम मुनीर की चाल चाहे कितनी भी गहरी क्यों न हो, भारत की निगाह उससे भी गहरी हैं और इस बार, जो जाल पाकिस्तान ने बुना है, उसी में वह खुद ही फंसने वाला है।

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