भारत: अवैध विदेशियों का स्वर्ग या कानून का मज़ाक? सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी ने खोली आंखें

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने जब यह कहा कि यह देश हर तरह के लोगों के लिए स्वर्ग बन गया है, कोई भी आता है और बस जाता है, तो यह एक गहरी राष्ट्रीय चेतावनी थी।

भारत: अवैध विदेशियों का स्वर्ग या कानून का मज़ाक? सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी ने खोली आंखें

भारत को अब यह तय करना ही होगा कि वह अवैध विदेशियों का स्वर्ग रहेगा या कानून का गणराज्य बनेगा।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर उस सच्चाई को उजागर कर दिया है, जिसके बारे में देश वर्षों से आंखें मूंदे बैठा था। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने जब यह कहा कि यह देश हर तरह के लोगों के लिए स्वर्ग बन गया है, कोई भी आता है और यहीं बस जाता है, तो यह सिर्फ एक केस की सुनवाई में दी गई टिप्पणी नहीं थी, बल्कि यह एक गहरी राष्ट्रीय चेतावनी थी। यह वह चेतावनी थी जो बताती है कि भारत की सहिष्णुता, उसकी लोकतांत्रिक उदारता और उसकी खुली सीमाएं अब उसके ही खिलाफ हथियार बन चुकी हैं।

अदालत की टिप्पणी नहीं, राष्ट्रीय आईना

जिस केस ने यह टिप्पणी जन्म दी, वह अपने आप में अजीब था। एक इज़रायली नागरिक ड्रोर श्लोमी गोल्डस्टीन, रूसी महिला नीना कुटीना और उनकी दो नाबालिग बेटियों का मामला। दोनों बिना वैध दस्तावेजों के भारत में रह रहे थे, जंगलों में गुफा में छिपे हुए। लेकिन, असल मुद्दा यह नहीं था कि यह परिवार कौन था या उनका विवाद क्या था। असल मुद्दा यह था कि आखिर भारत में कोई भी विदेशी, बिना दस्तावेजों और बिना अनुमति के, वर्षों तक कैसे रह सकता है? क्यों इस देश का प्रशासन, यह जानते हुए भी कि ये लोग कानून तोड़ रहे हैं, आंखें मूंदे बैठा रहता है? सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी इसी सवाल का जवाब मांगती है, क्यों भारत अवैध विदेशी प्रवासियों का स्वर्ग बन गया है?

बांग्लादेश से म्यांमार तक, भारत की खुली सीमाएं

भारत की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी खुली सीमाएं हैं। संसद में दिए गए सरकारी आंकड़े बताते हैं कि करीब दो करोड़ से अधिक बांग्लादेशी अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं। 2004 में यह संख्या 1.2 करोड़ थी, यानी बीस वर्षों में यह संख्या लगभग दोगुनी हो गई। ये वही लोग हैं, जिन्होंने न सिर्फ भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के सामाजिक ताने-बाने को बदला, बल्कि असम, बंगाल, झारखंड और बिहार के जनसांख्यिकीय ढांचे को हिलाकर रख दिया। असम में NRC (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) की कवायद इसी पृष्ठभूमि में हुई थी, लेकिन राजनीतिक दवाबों और वोट बैंक की राजनीति ने उसे अधूरा छोड़ दिया।

अब सिर्फ बांग्लादेशी ही नहीं, बल्कि रोहिंग्या मुसलमान, अफगानी, अफ्रीकी और अन्य देशों से आए हजारों विदेशी भारत के अलग-अलग हिस्सों में स्थायी रूप से बस चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी (UNHCR) के अनुसार, भारत में 46,000 से अधिक पंजीकृत शरणार्थी हैं, लेकिन वास्तविक संख्या इससे कई गुना अधिक है। इनमें से अधिकांश म्यांमार, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से हैं। जो पंजीकृत नहीं हैं, वे छिपकर रह रहे हैं, नकली पहचान बनवा चुके हैं और धीरे-धीरे स्थानीय समाज में घुलमिल गए हैं।

कानून की कमजोरी या राजनीतिक ढोंग?

भारत में Foreigners Act, 1946 नाम का कानून है, जो किसी भी विदेशी के प्रवेश, निवास और निर्वासन को नियंत्रित करता है। लेकिन, सच्चाई यह है कि इस कानून का पालन शायद ही कहीं होता हो। कोई भी व्यक्ति नकली दस्तावेज बनाकर वर्षों तक भारत में रह सकता है, काम कर सकता है, यहां तक कि आधार कार्ड, पैन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र तक हासिल कर सकता है। कई बार यह सब राजनीतिक संरक्षण में होता है, क्योंकि कुछ दलों ने इन अवैध विदेशियों को मतदाता में बदलने की कला सीख ली है। बंगाल और असम में इसका सबसे घातक उदाहरण देखा जा चुका है।

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी वास्तव में उन सभी राजनेताओं के लिए भी एक तगड़ा तमाचा है, जिन्होंने इन अवैध प्रवासियों को गरीब शरणार्थी कहकर अपनी राजनीतिक दुकान चलाई। जो लोग कानून का उल्लंघन करते हुए भारत की भूमि पर गैरकानूनी तरीके से बसे हैं, उन्हें मानवाधिकार की ढाल देकर बचाने की कोशिश की जाती है। लेकिन यह मानवाधिकार नहीं, राजनीतिक व्यापार है। वोटों के लिए राष्ट्र की सुरक्षा को दांव पर लगाने की कुटिल नीति। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

रोहिंग्या संकट: मानवीयता की आड़ में सुरक्षा संकट

भारत में अवैध रूप से रह रहे लगभग 75,000 रोहिंग्या मुसलमानों में से 22,000 UNHCR में पंजीकृत हैं। बाकी बचे हज़ारों लोगों का कोई रिकॉर्ड नहीं है। ये लोग न सिर्फ दिल्ली, जम्मू, और हैदराबाद जैसे शहरों में बसे हैं, बल्कि कई जगहों पर स्थानीय अपराध नेटवर्कों से भी जुड़े पाए गए हैं। जम्मू पुलिस की जांचों में यह बात सामने आ चुकी है कि कई रोहिंग्या कट्टरपंथी संगठनों के संपर्क में थे। इसके बाद भी कुछ राजनीतिक दल और एनजीओ उन्हें शरणार्थी कहकर भारत में स्थायी ठिकाने की मांग कर रहे हैं। यह भारत की उदारता का नहीं, उसकी नासमझी का प्रतीक है।

सुप्रीम कोर्ट का गुस्सा क्यों जायज़ है?

सुप्रीम कोर्ट ने जिस तीखेपन से यह टिप्पणी की कि भारत हर तरह के लोगों के लिए स्वर्ग बन गया है, ये टिप्पणी केवल एक नाराजगी नहीं थी, बल्कि उस गहरी निराशा का प्रदर्शन था जो देश की सुरक्षा एजेंसियों और नीतिगत कमजोरी से उपजी है। कोर्ट ने कहा कि भारत किसी भी व्यक्ति के अनिश्चित काल तक रहने की जगह नहीं बन सकता। यह वाक्य अपने आप में एक नीति-सूत्र है, जिसे भारत सरकार को अपनी प्रवासी नीति के मूल में रखना चाहिए।

भारत हमेशा से अतिथि देवो भव की परंपरा वाला देश रहा है। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब कोई अतिथि बनकर आता है और कब्ज़ाधारी बनकर बस जाता है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार से आने वाले लोगों में से कई ने यहां की भूमि पर कब्जा कर लिया है। स्थानीय संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं। इन सबका परिणाम यह कि वे यहां की राजनीतिक दिशा तक को प्रभावित कर रहे हैं।

पूर्वोत्तर राज्यों में स्थानीय लोग अब खुद को अल्पसंख्यक महसूस कर रहे हैं। असम, त्रिपुरा और बंगाल में जनसंख्या का संतुलन बुरी तरह बिगड़ चुका है। यह सिर्फ सामाजिक बदलाव नहीं, यह जनसांख्यिकीय युद्ध है, जहां दुश्मन की सेना बंदूकें नहीं, बल्कि वोटर लिस्टों के जरिए आगे बढ़ रही हैं।

केंद्र सरकार की चुनौती और ज़िम्मेदारी

यह सही है कि केंद्र सरकार ने कई स्तरों पर इस समस्या को नियंत्रित करने की कोशिश की है। गृह मंत्रालय ने कई बार राज्यों को अवैध प्रवासियों की पहचान और निर्वासन का आदेश दिया, लेकिन राज्यों की उदासीनता और राजनीतिक गणना के चलते यह कार्रवाई कभी भी निर्णायक रूप नहीं ले सकी। NRC जैसी पहलें अधूरी रहीं और CAA (नागरिकता संशोधन कानून) जैसे कदमों को ध्रुवीकरण बताकर बदनाम कर दिया गया। लेकिन अब सवाल यह है कि क्या अब भी भारत चुप रह सकता है? क्या यह देश सचमुच उन लोगों के लिए स्वर्ग बना रहेगा जो इसकी सीमाओं का सम्मान नहीं करते?

समाधान की दिशा

भारत को अब कठोर नीति की ज़रूरत है, जैसे अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में होती है। बिना वैध दस्तावेजों के कोई भी विदेशी अगर देश में रह रहा है तो उसे तत्काल हिरासत में लिया जाए और उसके मूल देश वापस भेजा जाए। इसके साथ ही, जो लोग इन अवैध विदेशियों को आश्रय देते हैं, उन्हें भी कठोर दंड मिलना चाहिए। भारत को मानवीयता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन बनाना होगा, लेकिन यह संतुलन कानून के भीतर रहकर ही संभव है। अगर आज भारत ने अपनी सीमाओं पर और अपनी नीतियों में कठोरता नहीं दिखाई, तो आने वाले वर्षों में यह समस्या भारत के सामाजिक और सुरक्षा ढांचे को जड़ से हिला सकती है।

सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी को गंभीरता से लें

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी सिर्फ न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है, यह एक राष्ट्रीय चेतावनी है। एक ऐसी चेतावनी, जिसे अगर अनसुना किया गया तो भारत अपनी ही उदारता का शिकार बन जाएगा। यह देश किसी भी जरूरतमंद के लिए सहानुभूति रखता है, लेकिन सहानुभूति का अर्थ यह नहीं कि वह अपनी सीमाओं को मिटा दे। जो लोग कानून का सम्मान नहीं करते, जो बिना अनुमति इस भूमि पर बस जाते हैं, वे इस देश की आत्मा का अपमान करते हैं। भारत को अब यह तय करना ही होगा कि वह अवैध विदेशियों का स्वर्ग रहेगा या कानून का गणराज्य बनेगा। सुप्रीम कोर्ट ने तो आईना दिखा दिया है, अब देखना यह है कि सरकार और समाज उस आईने में खुद को पहचान पाते हैं या नहीं।

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