पश्चिम बंगाल एक बार फिर सुर्खियों में है। इस बार भी कारण वही है, भाजपा नेताओं पर हमले। जलपाईगुड़ी के दुआर्स क्षेत्र में भाजपा सांसद खगेन मुर्मू पर हुआ जानलेवा हमला केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि उस गहरी बीमारी का लक्षण है जिसने बंगाल के लोकतंत्र की नसों को जाम कर दिया है। सांसद मुर्मू, जो आदिवासी समाज से आते हैं और लोगों के बीच अपनी ईमानदार छवि के लिए जाने जाते हैं। बाढ़ग्रस्त इलाकों में राहत कार्य में जुटे थे। लेकिन राहत बांटने की कीमत उन्हें खून से लथपथ होकर चुकानी पड़ी, क्योंकि बंगाल में अब जनता की सेवा से ज़्यादा सत्ता की सेवा ही सुरक्षित है।
भाजपा आईटी प्रमुख अमित मालवीय ने इस घटना के बाद एक्स पर लिखा कि यह टीएमसी का बंगाल है, जहां दया की सजा और क्रूरता का इनाम मिलता है। मालवीय के इस कथन में न केवल आक्रोश, बल्कि एक गहरी सच्चाई भी छिपी है। पिछले कई वर्षों में बंगाल में जितने भी हमले हुए हैं, उनमें एक पैटर्न साफ़ दिखाई देता है, हमला हमेशा भाजपा नेताओं पर होता है, मारे हमेशा हिन्दू कार्यकर्ता जाते हैं और हमलावर अक्सर टीएमसी के स्थानीय गुंडे या विशेष समुदाय से जुड़े लोग निकलते हैं।
इस घटना के वक्त ममता बनर्जी कोलकाता में अपने कार्निवल के रंगों में खोई थीं, जबकि उत्तर बंगाल में लोग बाढ़ और भूस्खलन से जूझ रहे थे। नेता प्रतिपक्ष शुभेंदु अधिकारी ने इसे सत्ता की मानवता पर शर्मनाक बेइमानी बताया। उन्होंने कहा कि जब भाजपा सांसद और विधायक जनता की मदद कर रहे थे, तब टीएमसी के गुंडे उन्हें रोकने के लिए हिंसा पर उतर आए। उनके अनुसार, यह हमला ममता बनर्जी की राजनीतिक घबराहट का नतीजा है, क्योंकि अब उत्तर बंगाल भाजपा का गढ़ बनता जा रहा है।
लेकिन सवाल इससे भी गहरा है। आखिर बंगाल में हिंसा की हवा हमेशा एक ही दिशा में क्यों बहती है? क्यों हर हमले का निशाना भाजपा, हिन्दू या आदिवासी नेता ही होता है? क्यों हर बार टीएमसी के अपराधियों को ही विशेष समुदाय का ढाल मिलता है? इसका उत्तर बंगाल के राजनीतिक ताने-बाने में छिपा है। एक ऐसा राज्य, जहां धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण को ही शासन की नीति बना दिया गया है।
ममता बनर्जी ने जब 2011 में सत्ता संभाली थी, तो लोगों ने उन्हें परिवर्तन का प्रतीक माना था। वामपंथ की तीन दशक पुरानी हिंसक राजनीति के खिलाफ वे आशा की किरण बनीं। लेकिन कुछ ही सालों में जनता की यह उम्मीद निराशा में बदल गई। ममता बनर्जी की राजनीति ने धर्मनिरपेक्षता की आड़ में एक नया समीकरण गढ़ा, मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति। इससे भी बड़ा सच यह कि ममता बनर्जी ने पूरे राज्य को दो वर्गों में बांट दिया, एक संख्या बल और दूसरा सहने वाला।
राज्य की लगभग 30% मुस्लिम आबादी अब उनके राजनीतिक अस्तित्व की रीढ़ है। पंचायत चुनावों से लेकर विधानसभा तक, हर रणनीति इस वोट बैंक के इर्द-गिर्द घूमती है। यही कारण है कि किसी भी हिंसा में जब हमलावर का नाम सामने आता है, तो प्रशासन अचानक बहाना बन जाता है। कोई एफआईआर नहीं, कोई गिरफ्तारी नहीं और अगर हो भी तो अगले ही दिन बेल पर रिहाई हो जाती है।
यह केवल राजनीतिक सुविधा नहीं, यह एक सुनियोजित तुष्टिकरण की सुरक्षा नीति है। ममता बनर्जी जानती हैं कि भाजपा की सबसे बड़ी ताकत हिन्दुओं की एकता है, और उसे तोड़ने का एक ही तरीका है, डर और हिंसा। बंगाल में अब इसी हथियार का प्रयोग किया जा रहा है।
आपको बता दें कि साल 2021 के विधानसभा चुनावों के बाद जो हिंसा भड़की, वह आज भी देश के लोकतंत्र पर कलंक है। सैकड़ों भाजपा कार्यकर्ताओं के घर जलाए गए, महिलाओं के साथ अत्याचार हुए, कई कार्यकर्ता मारे गए। लेकिन राज्य सरकार ने उसे पोस्ट-इलेक्शन क्लैश कहकर टाल दिया। गृह मंत्रालय ने रिपोर्ट मांगी, पर जवाब वही सब ठीक है। अदालतों में गवाही दी गई, लेकिन कार्रवाई अब भी अधूरी है।
मुस्लिम इलाकों में ही हमले क्यों?
यह कोई संयोग नहीं कि बंगाल में जिस इलाके में मुस्लिम आबादी घनी है, वहीं भाजपा कार्यकर्ताओं पर हमले सबसे ज़्यादा होते हैं, मुर्शिदाबाद, मालदा, नदिया और अब जलपाईगुड़ी। टीएमसी की स्थानीय यूनिटें इन इलाकों में धर्म और राजनीति का ऐसा मिश्रण बना चुकी हैं, जिसमें विपक्षी दल का मतलब हिन्दू दल और भाजपा कार्यकर्ता का मतलब शत्रु बन चुका है। यही वह मानसिकता है जो एक राहत बांटते सांसद पर भी हमला कर देती है।
ममता बनर्जी का शासन अब दोहरे चरित्र का प्रतीक है बाहर से सेक्युलर और भीतर से सांप्रदायिक। वह दुर्गा पूजा की भव्यता दिखाती हैं, लेकिन मुहर्रम के जुलूस को विशेष अनुमति देती हैं। वह हिन्दू त्योहारों पर पाबंदियां भी लगाती हैं, लेकिन इमामों और मौलवियों को भत्ते देती हैं। वह प्रशासन से कहती हैं कि कानून सबके लिए समान है, लेकिन जब कोई मदरसा अवैध निर्माण में पकड़ा जाता है, तो पुलिस की जुबान बंद हो जाती है। यह राजनीति नहीं, यह ‘धर्म आधारित सत्ता संरक्षण’ है।
हिन्दुओं पत्थर बरसाने में हिन्दू ही दोषी?
भाजपा का आरोप है कि बंगाल अब संविधान नहीं, समुदाय के आदेश से चलता है। यह वही राज्य है जहां दुर्गा पूजा विसर्जन को रोका गया ताकि मुहर्रम जुलूस का रास्ता खाली रहे। यह वही राज्य है जहां रामनवमी के जुलूस पर पत्थर फेंके गए और पुलिस ने हिन्दुओं को ही दोषी ठहरा दिया। अब यह वही बंगाल है जहां सांसद खगेन मुर्मू, जो आदिवासी समाज के नेता हैं, को इसलिए पीटा गया क्योंकि उन्होंने भाजपा का झंडा थामा।
यह हिंसा केवल राजनीतिक प्रतिशोध नहीं, यह एक प्रकार से सांस्कृतिक दमन है। यह एक संकेत है कि बंगाल में हिन्दू पहचान अब असहज कर दी गई है। टीएमसी के लिए भाजपा का विरोध केवल पार्टी का विरोध नहीं, बल्कि हिन्दू चेतना का विरोध बन चुका है।
ममता बनर्जी की सरकार जानती है कि हिन्दू समाज संगठित हुआ तो सत्ता की जमीन खिसक जाएगी। इसलिए हर उस आवाज़ को जो जय श्रीराम कहती है, अपराधी ठहराया जाता है। हर उस कार्यकर्ता को जो राष्ट्रवाद की बात करता है, गुंडा बताया जाता है। हर उस आंदोलन को जो समान नागरिकता की मांग करता है, संप्रदायिकता का नाम दे दिया जाता है।
बंगाल अब भारत का वह प्रदेश बन गया है जहां हिन्दू होना एक राजनीतिक जोखिम है। भाजपा कार्यकर्ता अपना नाम और इलाका छिपाकर जीते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि अगले मोड़ पर कोई टीएमसी का झंडा लिए भीड़ उनका इंतजार कर रही है। इसके बाद जब यह भीड़ हमला करती है, तो पुलिस मूकदर्शक रहती है, क्योंकि ऊपर से आदेश है कि कुछ न किया जाए।
खगेन मुर्मू पर हमला उसी मानसिकता का विस्तार है। एक आदिवासी हिन्दू सांसद जो जनता की मदद कर रहा था, उस पर हमला इसलिए हुआ क्योंकि उसने सत्ता से सवाल नहीं, बल्कि समाज से संवाद किया। उसकी यही गलती थी कि उसने बंगाल की असली तस्वीर दिखा दी, जहां सत्ता का मतलब सेवा नहीं, डर फैलाना बन चुका है।
बंगाल की राजनीति में अब यह साफ़ दिखने लगा है कि ममता बनर्जी की धर्मनिरपेक्षता दरअसल मुस्लिम कट्टरपंथ की मौन स्वीकृति है। अवैध मदरसों के विस्तार, बांग्लादेशी घुसपैठियों की बढ़ती संख्या, और एनआरसी/सीएए पर उनका विरोध ये सब उसी वोट बैंक की रक्षा के औज़ार हैं।
यह वह रणनीति है जिसमें भाजपा विरोध का असली अर्थ हिन्दू प्रतिरोध बन गया है।
समय रहते इसका इलाज नहीं किया गया तो यह स्थिति केवल बंगाल तक सीमित नहीं रहेगी, यह पूरे भारत के लोकतंत्र के लिए चेतावनी है। अगर एक राज्य में विपक्ष को हिंसा से दबाया जा सकता है, तो यह प्रवृत्ति पूरे तंत्र को संक्रमित करेगी। इसलिए बंगाल अब केवल राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सवाल बन गया है, क्या भारत अपने ही एक राज्य में लोकतांत्रिक सुरक्षा खो रहा है?
ममता बनर्जी के लिए अब समय है कि वे फैसला करें कि क्या वे मुख्यमंत्री हैं या किसी एक वर्ग की नेता? क्योंकि यदि सत्ता समान नागरिकता की जगह सांप्रदायिक तुष्टिकरण पर टिकी रहेगी, तो वह शासन नहीं, शासन का अपमान कहलाएगा। खगेन मुर्मू पर हुआ हमला उसी अपमान का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि बंगाल में लोकतंत्र अब भी सांस ले रहा है, लेकिन हर सांस पर टीएमसी के डर की छाया है। जब तक यह छाया हटेगी नहीं, तब तक हर आदिवासी, हर हिन्दू और हर भाजपा कार्यकर्ता के मन में यह सवाल जिंदा रहेगा क्या हिन्दू होना अब अपराध है?