जंगलराज बनाम सुशासन की वापसी! बिहार में बीजेपी का शब्द वार, ‘महालठबंधन’ की छवि को ध्वस्त करने की सुनियोजित रणनीति

समस्तीपुर, बेगूसराय, सीवान और बक्सर की रैलियों में प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा ने जिस भाषा और टोन का इस्तेमाल किया, वह सिर्फ भाषण नहीं था। यह एक राजनीतिक मनोवैज्ञानिक युद्ध की शुरुआत थी।

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महागठबंधन का सबसे बड़ा संकट यह है कि उसके पास नकारात्मक नैरेटिव तो है, लेकिन सकारात्मक एजेंडा नहीं।

बिहार में चुनावी रणभेरी बज चुकी है और बीजेपी ने अपने तीर अब सिर्फ विपक्ष पर नहीं, बल्कि उसकी छवि और स्मृति पर साध दिए हैं। समस्तीपुर, बेगूसराय, सीवान और बक्सर की रैलियों में प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा ने जिस भाषा और टोन का इस्तेमाल किया, वह सिर्फ भाषण नहीं था। यह एक राजनीतिक मनोवैज्ञानिक युद्ध की शुरुआत थी। लक्ष्य है बिहार की जनता के मन में ‘जंगलराज’ की उस याद को फिर से ताज़ा करना, जब अपहरण, रंगदारी, हत्या और पलायन इस राज्य की पहचान बन गए थे।

प्रधानमंत्री मोदी ने जब मंच से कहा कि ये महालठबंधन है, लट्ठधारी गठबंधन, तो यह कोई साधारण शब्द नहीं था। ‘महालठबंधन’ के जरिए बीजेपी ने आरजेडी के उस दौर को याद दिलाया जब बिहार में राजनीति का अर्थ था बाहुबल और भय। ‘महालठबंधन’ शब्द बीजेपी की राजनीतिक शब्दावली का नया हथियार है। इसमें व्यंग्य भी है, आक्रोश भी है और जनता की यादों को कुरेदने की ताकत भी।

बीजेपी का पूरा अभियान इस बार शब्दों पर ही टिका है। लेकिन, ये शब्द किसी डिक्शनरी के नहीं, जनता की चेतना से निकले हैं। ‘जंगलराज’, ‘जमानत पर छूटे हुए लोग’, ‘लालू यादव के बेटे’, ‘शहाबुद्दीन का बेटा’ हर वाक्य एक भावनात्मक तीर है, जो विपक्ष के नेताओं की भ्रष्टाचार, अपराध और वंशवाद की छवि को निशाना बनाता है। यह वही भाषा है, जिसने अतीत में नरेंद्र मोदी को जनता के बीच साफ-सुथरे, निर्णायक नेतृत्व की छवि दी थी और अब वही भाषा बिहार के मैदान में लौट आई है।

‘महालठबंधन’: शब्दों से छवि की लड़ाई

‘महालठबंधन’ यह शब्द बीजेपी ने जानबूझकर गढ़ा है। न तो यह शब्द किसी शब्दकोश में है, न ही किसी पार्टी के घोषणापत्र में। लेकिन, इसकी राजनीतिक शक्ति अपार है। पीएम मोदी ने इसे महागठबंधन का विकल्प नहीं, बल्कि उसके चरित्र का परिचय बना दिया। उन्होंने कहा, ये महालठबंधन नहीं, महालठ्ठबंधन है, जिनके लट्ठ से बिहार का लोकतंत्र घायल हुआ था।

पीएम मोदी का यह बयान सिर्फ व्यंग्य नहीं, बल्कि बिहार की राजनीतिक स्मृति पर सीधा वार है। बिहार के लोग अभी भी 90 के दशक का वह दौर नहीं भूले, जब चुनावों में बूथ कैप्चरिंग, गोलीबारी और खुलेआम हिंसा होती थी। पीएम मोदी ने इस शब्द के जरिए उन यादों को फिर से जीवित किया है, ताकि मतदाता को यह महसूस हो कि अगर सत्ता फिर गलत हाथों में गई, तो राज्य फिर उसी अंधकार में लौट जाएगा।

‘महालठबंधन’ शब्द से बीजेपी ने राजनीति की भाषा को जनभावना की भाषा में बदल दिया है। यह वही रणनीति है, जो 2014 से बीजेपी के चुनावी अभियानों की पहचान रही है। सीधे दिल से बात करो, आंकड़ों से नहीं।

‘जंगलराज’: भय और याद की राजनीति

बीजेपी का दूसरा सबसे बड़ा हथियार है ‘जंगलराज’। यह शब्द बिहार के राजनीतिक इतिहास में एक भावनात्मक प्रतीक बन चुका है। ‘जंगलराज’ का अर्थ केवल कानून-विहीनता नहीं है, बल्कि सामाजिक भय, जातीय तनाव और अपराध की खुली छूट का दौर भी है। पीएम मोदी ने कहा कि जंगलराज से सबसे अधिक पीड़ित हमारी माताएं और बहनें थीं।

यह बयान सिर्फ एक तथ्य नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक संदेश है कि बीजेपी खुद को महिलाओं, गरीबों और वंचितों के रक्षक के रूप में पेश कर रही है, जबकि आरजेडी को उस अराजक शासन का प्रतीक बता रही है, जिसने इन वर्गों को भय में जीने पर मजबूर कर दिया था।

90 के दशक में बिहार से लाखों युवाओं का पलायन हुआ, उद्योग ध्वस्त हुए और कानून व्यवस्था का मज़ाक बन गया। बीजेपी चाहती है कि मतदाता उस दौर को भूलने न दें। यही कारण है कि नड्डा और शाह दोनों अपने भाषणों में बार-बार ‘जंगलराज’ की पुनरावृत्ति करते हैं। यह सिर्फ अतीत का स्मरण नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। सावधान! फिर से वही लोग लौटने की कोशिश में हैं।

‘लालू यादव के बेटे’: नाम नहीं, पहचान पर वार

गृह मंत्री अमित शाह ने जब कहा कि 14 तारीख को लालू यादव के बेटे का सूपड़ा साफ होने वाला है, तो उन्होंने तेजस्वी यादव का नाम नहीं लिया। लेकिन, संदेश हर मतदाता तक पहुंच गया। शाह का यह ‘नाम बिना नाम’ वाला हमला दरअसल एक रणनीतिक प्रहार नहीं तो और क्या है।

इस रणनीति के पीछे यह मनोविज्ञान है कि हर बार ‘लालू यादव’ नाम लेते ही बिहार के मतदाता के मन में ‘चारा घोटाला’, ‘भ्रष्टाचार’ और ‘जंगलराज’ की यादें ताज़ा हो जाती हैं। शाह जानते हैं कि तेजस्वी को अगर लालू से जोड़ दिया जाए, तो उसके लिए अपनी अलग पहचान बनाना लगभग असंभव हो जाएगा।

बीजेपी इसी जुड़ाव को मजबूती से जनता के अवचेतन में बैठाना चाहती है कि चाहे चेहरा बदले, चरित्र वही रहेगा। तेजस्वी भले ही ‘नई पीढ़ी के नेता’ कहे जाएं, लेकिन बीजेपी उन्हें ‘पुराने पापों की विरासत’ बताने में जुटी हुई है। यही कारण है कि शाह ने रैली में कहा कि लालू यादव के बेटे को सत्ता में लाने का मतलब है बिहार को फिर उसी गड्ढे में धकेलना।

‘शहाबुद्दीन के बेटे’: प्रतीकों का इस्तेमाल

अमित शाह ने जब ओसामा शहाब को ‘शहाबुद्दीन का बेटा’ कहकर संबोधित किया, तो यह भी एक सोची-समझी भाषा रणनीति थी। शहाबुद्दीन सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि उस दौर का प्रतीक है जब सीवान से लेकर चंपारण ही नहीं, पूरे उत्तर बिहार में उसके खौफ का राज था। बीजेपी जानती है कि इस नाम के ज़रिए वह आरजेडी के अपराध संरक्षक चेहरे को फिर उजागर कर सकती है।

यह हमला किसी एक उम्मीदवार पर नहीं, बल्कि उस विचारधारा पर है जो अपराध और सत्ता के गठजोड़ को वैध ठहराती थी। शाह का संदेश साफ था कि आरजेडी आज भी उन्हीं चेहरों और उन्हीं मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्होंने बिहार को बदनाम किया।

वंशवाद और भ्रष्टाचार पर दोहरा हमला

बीजेपी का अभियान सिर्फ अपराध पर नहीं, बल्कि वंशवाद और भ्रष्टाचार पर केंद्रित है। पीएम मोदी ने कांग्रेस को याद दिलाया कि सीताराम केसरी जैसे नेता को गांधी परिवार ने कैसे अपमानित किया था। यह बात सीधी थी कि कांग्रेस वंशवाद की प्रतीक है और आरजेडी अपराध का प्रतीक।

दोनों को एक साथ जोड़कर बीजेपी ने विपक्षी गठबंधन को ‘भ्रष्टाचार-प्लस-वंशवाद’ का फॉर्मूला बता दिया है। इस नैरेटिव में बीजेपी खुद को ‘मेरिट और मिशन’ की पार्टी के रूप में पेश कर रही है, जबकि विपक्ष को ‘फैमिली एंड फेवर’ की राजनीति का प्रतीक। यह रणनीति इसलिए भी कारगर है, क्योंकि बिहार की युवा आबादी बड़ी संख्या में पहली बार वोट डालने जा रही है और वे परिवारवाद के खिलाफ भावनात्मक रूप से संवेदनशील हैं। पीएम मोदी ने अपने भाषणों में ‘गरीब के बेटे’ की पंक्ति बार-बार दोहराकर उस भावना को मज़बूत भी किया है।

‘पलायन’ के मुद्दे पर पलटवार

बीजेपी ने विपक्ष के हर नैरेटिव को उलटने की कोशिश की है। उदाहरण के लिए, जब तेजस्वी यादव ने बिहार में रोजगार की कमी और पलायन का मुद्दा उठाया, तो जेपी नड्डा ने तुरंत कहा पलायन की बात करने वालों को शर्म आनी चाहिए। वही तो कारण थे कि बिहार के लोग घर छोड़ने को मजबूर हुए थे।

यह बयान न केवल पलायन पर काउंटर अटैक था, बल्कि नैरेटिव इनवर्जन की रणनीति का हिस्सा था। यानी विपक्ष के मुद्दे को उसी के खिलाफ इस्तेमाल करना। बीजेपी चाहती है कि पलायन का मुद्दा विकास नहीं, बल्कि आरजेडी के शासन की विफलता के रूप में देखा जाए।

घुसपैठ और राष्ट्रवाद का पुट

अमित शाह ने अपने भाषणों में बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठाया और विपक्ष को ‘घुसपैठियों का हितैषी’ बताया। बिहार सीमांत राज्य तो है ही, ‘राष्ट्र की सुरक्षा’ का यह नैरेटिव बीजेपी के पारंपरिक वोट बैंक को भावनात्मक रूप से सक्रिय करता है।

अमित शाह का यह बयान राष्ट्रीय विमर्श को राज्य की राजनीति में उतारने का तरीका है, ताकि बिहार का चुनाव स्थानीय मुद्दों से ऊपर उठकर राष्ट्रवाद की धुरी पर टिक जाए। बीजेपी के चुनावी अभियानों में यह प्रयोग कई बार कारगर साबित हो भी चुका है। असम, बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में घुसपैठ का मुद्दा सीधे भावनात्मक प्रभाव डालता है।

जनता के मनोविज्ञान पर असर

बिहार की जनता राजनीतिक रूप से परिपक्व मानी जाती है। यहां सिर्फ घोषणाएं नहीं, भावनात्मक भरोसा काम करता है। बीजेपी यही भरोसा दोबारा गढ़ने में जुटी है कि बिहार को सुशासन, विकास और स्थिरता तभी मिल सकती है, जब सत्ता ‘भ्रष्टाचार-मुक्त नेतृत्व’ के हाथों में रहे।

‘जंगलराज’ और ‘महालठबंधन’ जैसे शब्द बीजेपी के लिए राजनीतिक ब्रांडिंग टूल बन चुके हैं। इनके ज़रिए वह जनता को यह एहसास दिलाना चाहती है कि चुनाव केवल सरकार बदलने का नहीं, बल्कि राज्य की दिशा तय करने का प्रश्न है।

विपक्ष की कमजोर कड़ी

महागठबंधन का सबसे बड़ा संकट यह है कि उसके पास नकारात्मक नैरेटिव तो है, लेकिन सकारात्मक एजेंडा नहीं। बीजेपी जब भ्रष्टाचार, अपराध और वंशवाद की बात करती है, तो जनता के पास उन आरोपों को खारिज करने के लिए विपक्ष के पास कोई ठोस जवाब नहीं होता।

तेजस्वी यादव युवाओं की बात करते हैं, लेकिन उनके चारों ओर वही चेहरे हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के दाग लगे हैं। कांग्रेस के पास नेतृत्व का संकट है और लेफ्ट दलों की तो खैर भूमिका ही सीमित है। बीजेपी इसे पूरी तरह भुना रही है। एक मजबूत केंद्र बनाम बिखरी हुई विपक्षी भीड़ की तस्वीर पेश करके।

बिहार में शब्दों की जंग

2025 का बिहार चुनाव न सिर्फ रैलियों या घोषणाओं की लड़ाई है, बल्कि शब्दों की जंग बन चुका है। बीजेपी ने यह समझ लिया है कि चुनावी मनोविज्ञान में शब्द ही भावनाओं के वाहक होते हैं और वही चुनाव जिताते हैं।

‘जंगलराज’ और ‘महालठबंधन’ जैसे शब्दों ने बिहार के मतदाताओं के मन में अतीत और भविष्य दोनों की तस्वीर खींच दी है। एक ओर भय की स्मृति, दूसरी ओर सुशासन की उम्मीद। बीजेपी इसी भावनात्मक रेखा पर चल रही है और विपक्ष अभी भी उसके जवाब में फंसा हुआ दिख रहा है।

अगर यह रणनीति जारी रही, तो 2025 का बिहार चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि राजनीतिक विमर्श की दिशा तय करने वाला जनादेश साबित हो सकता है, जहां मतदाता यह तय करेगा कि बिहार ‘लट्ठधारी राजनीति’ की ओर लौटेगा या ‘लाल किले से सुशासन के प्रतीक’ की ओर आगे बढ़ेगा।

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