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सच्चाई यह है कि यह फैसला किसी भय या परहेज़ का परिणाम नहीं, बल्कि भारत की परिपक्व और आत्मविश्वासी विदेश नीति का प्रतिबिंब है, जहां निर्णय अब भावनाओं से नहीं, रणनीति से लिए जाते हैं।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
24 October 2025
in चर्चित, भारत, भू-राजनीति, मत, राजनीति, विश्व, समीक्षा
ट्रंप से फेस टू फेस होने से बचना चाहते हैं पीएम मोदी, जानें कांग्रेस के इस आरोप में कितना है दम

महागठबंधन का सबसे बड़ा संकट यह है कि उसके पास नकारात्मक नैरेटिव तो है, लेकिन सकारात्मक एजेंडा नहीं।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आसियान समिट में वर्चुअल रूप से शामिल होने का निर्णय लिया है। पहली नज़र में यह एक साधारण प्रशासनिक फैसला प्रतीत हो सकता है, लेकिन इसकी राजनीतिक और कूटनीतिक परतें कहीं गहरी हैं। विपक्ष विशेष रूप से कांग्रेस ने इसे एक बड़ा मुद्दा बना दिया है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने सोशल मीडिया पर तंज कसते हुए कहा कि पीएम मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से फेस टू फेस होने से बचना चाहते हैं। उन्होंने यहां तक लिखा कि मोदी अब बच के रहना रे बाबा गाना गुनगुना रहे होंगे। लेकिन, सच्चाई यह है कि यह फैसला किसी भय या परहेज़ का परिणाम नहीं, बल्कि भारत की परिपक्व और आत्मविश्वासी विदेश नीति का प्रतिबिंब है, जहां निर्णय अब भावनाओं से नहीं, रणनीति से लिए जाते हैं।

भारत आज उस युग में प्रवेश कर चुका है, जहां विदेश नीति का अर्थ अब किसी एक महाशक्ति के प्रति झुकाव नहीं है। मोदी के नौ वर्षों में भारत ने यह साबित किया है कि विश्व राजनीति में अब वह संतुलनकर्ता नहीं, बल्कि निर्देशक शक्ति बन रहा है। चाहे रूस-यूक्रेन युद्ध के समय भारत का रुख हो या गाजा संकट के दौरान अपनाई गई नीति, मोदी सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि नई दिल्ली अब किसी की डिक्टेशन पर नहीं चलती। इस संदर्भ में आसियान समिट में मोदी का वर्चुअल रहना एक संदेश भी देता है कि भारत अब हाजिरी लगाने वाला राष्ट्र नहीं, बल्कि अपनी प्राथमिकताओं से संचालित राष्ट्र है।

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जन्मदिवस विशेष: नाभा जेल में नेहरू की बदबूदार कोठरी और बाहर निकलने के लिए अंग्रेजों को दिया गया ‘वचनपत्र’

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पुरानी मानसिकता से नहीं उबर पायी कांग्रेस

कांग्रेस का आरोप कि पीएम मोदी ट्रंप से बच रहे हैं, वस्तुतः उस मानसिकता का विस्तार है जो आज भी भारत को प्रतिक्रिया देने वाला राष्ट्र मानती है, न कि रणनीति तय करने वाला राष्ट्र। यह वही मानसिकता है जो 1950-60 के दशक की निर्गुट नीति को निष्क्रिय कूटनीति के रूप में पेश करती रही, जबकि पीएम मोदी का भारत बहुउद्देशीय कूटनीति का अभ्यास कर रहा है। मोदी सरकार की विदेश नीति का मूल मंत्र है ‘सभी के साथ, पर भारत के हित में।’ इसलिए अगर प्रधानमंत्री ने आसियान समिट को वर्चुअल रूप से संबोधित करने का फैसला लिया है, तो यह किसी दबाव या डर का संकेत नहीं, बल्कि यह बताता है कि भारत अपने हितों और समय-सारिणी के अनुरूप निर्णय लेने में अब सक्षम है।

अब समय और मंच खुद तय करता है भारत

अब बात करें ट्रंप की। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपनी अस्थिर, अक्सर विरोधाभासी और मीडिया-प्रिय टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने कई बार भारत पर व्यापारिक दबाव बनाने की कोशिश की है, चाहे वह दवाइयों के निर्यात पर बयान हों या रक्षा सौदों पर टिप्पणी। लेकिन मोदी सरकार ने हमेशा इन मामलों में संयम दिखाया और भारत के हित को सर्वोपरि रखा। यही संयम अब कांग्रेस को असहज करता है, क्योंकि यह उस दौर की याद दिलाता है जब भारत के प्रधानमंत्री विदेशी नेताओं की वाहवाही पाने के लिए अपने देश के मुद्दों पर मौन रहते थे। पीएम मोदी का भारत ऐसा नहीं है। वह सम्मानपूर्वक संवाद करता है, लेकिन अपनी शर्तों पर। ट्रंप से आमने-सामने न होना कोई परहेज़ नहीं, बल्कि यह संकेत है कि भारत अब अपने समय और अपने मंच तय करता है।

वास्तव में, यह पूरा विवाद एक बड़े राजनीतिक नैरेटिव का हिस्सा है। कांग्रेस चाहती है कि पीएम मोदी के हर कूटनीतिक कदम को चुनावी रणनीति में बदल दिया जाए, ताकि जनता के बीच यह भ्रम फैले कि मोदी की विदेश नीति व्यक्तिगत छवि तक सीमित है। लेकिन जमीनी सच्चाई इसके उलट है। पीएम मोदी की विदेश यात्राएं और वैश्विक मंचों पर उपस्थिति ने भारत की विश्वसनीयता को जिस स्तर तक पहुंचाया है, वह कांग्रेस के किसी भी शासनकाल में नहीं देखा गया। G20 शिखर सम्मेलन की सफलता इसका प्रमाण है, जहां भारत ने न सिर्फ वैश्विक एजेंडा तय किया, बल्कि Global South की आवाज़ बनकर उभरा। जो राष्ट्र अब पूरे विश्व के विकास मॉडल पर प्रभाव डाल रहा है, उसे किसी ट्रंप से डरने की आवश्यकता नहीं।

इसके बावजूद, विपक्ष का यह आरोप कि पीएम मोदी बिहार चुनाव के कारण मलेशिया नहीं जा रहे, अपने आप में हास्यास्पद है। एक ओर वे प्रधानमंत्री को विदेश यात्राओं में व्यस्त कहकर आलोचना करते हैं, दूसरी ओर जब वही प्रधानमंत्री घरेलू प्राथमिकता को तरजीह देते हैं तो उसे भी राजनीति बताते हैं। यह वही दोहरा मापदंड है जो कांग्रेस की राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुका है। पीएम मोदी के लिए चुनाव केवल सत्ता की लड़ाई नहीं, बल्कि जनसंपर्क और जनसहभागिता का माध्यम है। बिहार में इस समय एनडीए की चुनावी रैलियाँ जोश में हैं और प्रधानमंत्री की उपस्थिति राज्य की जनता के आत्मविश्वास को और प्रबल करती है। ऐसे में उनका भारत में रहकर जनता से जुड़ना ही राजनीतिक रूप से तर्कसंगत और रणनीतिक रूप से उचित है।

यह भी समझना आवश्यक है कि आज की दुनिया में वर्चुअल कूटनीति एक प्रभावी उपकरण बन चुकी है। कोविड-19 काल के बाद से अंतरराष्ट्रीय समिट्स में वर्चुअल भागीदारी सामान्य हो गई है। यह न तो अनुपस्थिति है, न परहेज़, बल्कि एक नई डिप्लोमैटिक प्रैक्टिस है, जहां नेता अपने देश की प्राथमिकताओं को बिना बाधित किए अंतरराष्ट्रीय संवाद में भाग ले सकते हैं। मोदी का वर्चुअल संबोधन इस नई डिप्लोमैटिक वास्तविकता का हिस्सा है और भारत जैसे डिजिटल अग्रणी राष्ट्र के लिए यह गर्व की बात है कि उसका प्रधानमंत्री पारंपरिक उपस्थिति की बजाय तकनीकी नवाचार के ज़रिए दुनिया से संवाद कर रहा है।

भारत के वैश्विक कद का अपमान

कांग्रेस इस फैसले को जितना चाहे राजनीतिक रंग दे, पर सच्चाई यह है कि पीएम मोदी का हर कदम आज भारत की आत्मनिर्भर कूटनीति का प्रतीक बन चुका है। उन्होंने दिखा दिया है कि भारत अब विदेशी समीकरणों के बजाय अपने भू-राजनीतिक स्वार्थों को सर्वोपरि रखता है। चाहे रूस से तेल खरीद जारी रखने का फैसला हो, इजरायल-हमास युद्ध में संतुलित रुख अपनाना हो, या ब्रिक्स और G20 में भारत के नेतृत्व का प्रदर्शन। पीएम मोदी का भारत हर मोर्चे पर स्वतंत्र निर्णय की शक्ति का परिचय दे रहा है। ऐसे में यह सोचना कि वे किसी विदेशी नेता से मिलने से डर सकते हैं, भारत के वैश्विक कद का अपमान है।

दरअसल, यह पूरा विमर्श एक व्यापक सांस्कृतिक मनोविज्ञान को भी दर्शाता है। स्वतंत्रता के बाद भारत की विदेश नीति अक्सर आत्महीनता से ग्रस्त रही। पश्चिम की स्वीकृति ही राष्ट्रीय गौरव का पैमाना मानी जाती थी। मोदी युग ने इस मानसिकता को तोड़ा है। अब भारत न तो पश्चिम की नकल करता है, न उसकी स्वीकृति की प्रतीक्षा करता है। वह अपने धर्म, संस्कृति और सभ्यता की जड़ों से जुड़कर आधुनिकता को परिभाषित करता है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी जब किसी मंच पर बोलते हैं तो वे Global Leader की भाषा नहीं, बल्कि Civilizational Nation की भाषा बोलते हैं। आसियान में उनकी उपस्थिति चाहे भौतिक हो या वर्चुअल, उनका संदेश यही होता है कि भारत अब अपनी शर्तों पर विश्व के साथ खड़ा है।

यह भी उल्लेखनीय है कि पीएम मोदी के नेतृत्व में भारत-आसियान संबंधों ने नई गति प्राप्त की है। “Act East Policy” से लेकर “Indo-Pacific Partnership” तक, भारत ने दक्षिण-पूर्व एशिया को अपने आर्थिक और सामरिक क्षेत्र का प्रमुख अंग बना दिया है। ऐसे में मोदी की अनुपस्थिति को किसी नकारात्मक दृष्टि से देखना अनुचित है। भारत की नीति अब व्यक्ति-निर्भर नहीं, संस्थान-निर्भर है। विदेश नीति अब किसी एक मुलाकात या फोटो-ऑप पर निर्भर नहीं करती, बल्कि दीर्घकालिक रणनीतिक उद्देश्यों से संचालित होती है।

विपक्ष द्वारा ट्रंप के वीडियो साझा कर प्रधानमंत्री की आलोचना करना न केवल राजनीतिक अपरिपक्वता है, बल्कि यह भारतीय कूटनीति के अपमान की तरह है। यह वही कांग्रेस है, जिसने कभी अमेरिकी दबाव में भारतीय तेल नीति और परमाणु कार्यक्रम तक सीमित कर दिए थे। आज वही कांग्रेस उस प्रधानमंत्री पर आरोप लगा रही है, जिसने दुनिया के हर मंच पर भारत की आवाज़ को गरिमा और स्वाभिमान के साथ रखा है। पीएम मोदी की नीति स्पष्ट है मित्रता सबके साथ, पर निर्भरता किसी पर नहीं। यही आत्मनिर्भरता अब भारत की नई पहचान बन चुकी है।

इस पूरे विवाद का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि मोदी सरकार ने विदेश नीति को अब जनता से जोड़ दिया है। पहले विदेश नीति केवल दूतावासों, सम्मेलनों और गोपनीय वार्ताओं तक सीमित थी। पीएम मोदी ने इसे जनसामान्य के गर्व का विषय बना दिया। चाहे प्रवासी भारतीय दिवस हो या संयुक्त राष्ट्र में संबोधन, हर बार उन्होंने यह संदेश दिया कि भारत अब विश्व की परिधि नहीं, बल्कि विश्व का केंद्र बन रहा है। इसीलिए आज भारत का प्रधानमंत्री किसी भी मंच से अनुपस्थित रहे, विश्व समुदाय उसकी आवाज़ सुनने को उत्सुक रहता है। यह स्थिति केवल राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक पुनर्जागरण की भी द्योतक है।

वास्तव में, पीएम मोदी का यह निर्णय भारत की कूटनीति की उस नई दिशा का प्रतीक है जिसमें राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हैं। अगर बिहार चुनाव की पृष्ठभूमि में उन्होंने घरेलू राजनीतिक ज़मीन को प्राथमिकता दी है, तो यह भी इस सिद्धांत के अनुरूप है कि देश का नेतृत्व पहले, मंच की औपचारिकता बाद में। आज भारत को ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो हर निर्णय में राष्ट्रहित को सर्वोच्च माने, न कि विदेशी नेताओं से मुलाकात को उपलब्धि मानने की मानसिकता रखे।

सार रूप में कहा जाए तो पीएम मोदी का मलेशिया न जाना कोई पलायन नहीं, बल्कि आत्मविश्वास का परिचायक है। यह उस राष्ट्र का प्रतीक है जो अब दूसरों की शर्तों पर नहीं, अपनी परिस्थितियों और प्राथमिकताओं पर निर्णय लेता है। पीएम मोदी ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत की विदेश नीति अब किसी व्यक्ति के लिए नहीं झुकेगी, चाहे वह अमेरिका का राष्ट्रपति ही क्यों न हो। यही स्वतंत्रता, यही आत्मगौरव, और यही भारत का नया स्वर है, जो दुनिया से कह रहा है कि अब भारत किसी का साया नहीं, बल्कि स्वयं एक ध्रुव है।

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