गोरखपुर के पावन मंच से जब योगी आदित्यनाथ ने यह कहा कि राजनीतिक इस्लाम ने सनातन धर्म को सबसे बड़ा झटका दिया है, तो यह केवल एक राजनीतिक भाषण नहीं था, यह इतिहास के दबे हुए अध्यायों को पुनर्जीवित करने की पुकार थी। सीएम योगी का यह वाक्य भारत के उन हजार वर्षों की स्मृति को झकझोरता है, जिनमें तलवार और सत्ता के बल पर एक पूरी सभ्यता को झुकाने की कोशिश की गई। लेकिन भारत झुका नहीं, क्योंकि उसकी आत्मा किसी सिंहासन में नहीं, उसकी संस्कृति में बसती है।
भारत ने जिस उपनिवेशवाद को झेला, उसका स्वरूप केवल ब्रिटिश या फ्रांसीसी साम्राज्यवाद तक सीमित नहीं था। उससे पहले एक वैचारिक उपनिवेशवाद ने भारत को आक्रांत किया था। वह था राजनीतिक इस्लाम। योगी आदित्यनाथ के शब्दों में यह वही विचारधारा है, जिसने आस्था को राजनीति का औजार बनाया और ईश्वर के नाम पर साम्राज्य खड़ा किया। इस्लाम एक आस्था है, पर जब वही आस्था सत्ता का माध्यम बन जाए, तब वह राजनीतिक इस्लाम बनती है, जो मानवता नहीं, आधीनता सिखाती है।
अंधेरे का इतिहास और सनातन का प्रतिरोध
योगी आदित्यनाथ जब छत्रपति शिवाजी, गुरु गोबिंद सिंह, महाराणा प्रताप और महाराणा सांगा का स्मरण करते हैं, तो यह केवल अतीत की गौरवगाथा नहीं, बल्कि उस वैचारिक प्रतिरोध की पुनःस्थापना है, जिसने भारत को मिटने नहीं दिया। शिवाजी केवल मराठा सम्राट नहीं थे, वे उस युग की सनातन चेतना के प्रतिनिधि थे, जिन्होंने औरंगज़ेब के इस्लामी शासन को यह दिखाया कि धर्म तलवार से नहीं चलता। गुरु गोबिंद सिंह ने जब खालसा की स्थापना की, तो वह इस्लामी सत्ता के विरुद्ध केवल सशस्त्र विद्रोह नहीं था, वह भारतीय आत्मा के पुनर्जागरण का प्रतीक था। यही चेतना आज योगी आदित्यनाथ के शब्दों में फिर से जीवित हो उठी है।
हजार वर्षों के संघर्ष में भारत ने जो सबसे बड़ा सबक सीखा, वह यह था कि आस्था को सत्ता से अलग रखना ही सभ्यता का आधार है। राजनीतिक इस्लाम ने जब-जब इस संतुलन को तोड़ा, तब-तब प्रतिरोध की ज्वाला उठी। योगी के शब्दों में यह इतिहास का अनदेखा हिस्सा है, क्योंकि स्वतंत्रता के बाद भारत का इतिहास एक ऐसी दृष्टि से लिखा गया, जिसमें आक्रमणकारियों की हिंसा को सांस्कृतिक संपर्क कहा गया और भारतीय प्रतिरोध को सांप्रदायिक प्रतिक्रिया।
यही कारण है कि आज योगी आदित्यनाथ का यह विमर्श महज़ ऐतिहासिक पुनर्विचार नहीं, बल्कि उस बौद्धिक विमर्श पर चोट है, जिसने भारत के स्वाभिमान को सहिष्णुता के नाम पर तार-तार करके रख दिया।
राजनीतिक इस्लाम का अर्थ और उसके परिणाम
राजनीतिक इस्लाम शब्द पहली बार पश्चिमी अकादमिक जगत में 1970 के दशक में उभरा, जब इस्लामी जगत में धार्मिक कट्टरपंथ को राज्य की नीति के रूप में लागू करने की प्रवृत्ति दिखी। लेकिन भारत में इसका इतिहास बहुत पुराना है। यहां यह विचार अरब, तुर्क और मुग़ल आक्रमणों के साथ ही आया। प्रारंभिक दौर में यह केवल शासन परिवर्तन जैसा लगा, लेकिन धीरे-धीरे इसका उद्देश्य ‘दारुल इस्लाम’ की स्थापना बन गया। यानी वह भूमि जहां इस्लामी शासन सर्वोच्च हो। यही वह बिंदु था जहां धर्म सत्ता में परिवर्तित हो गया और इस्लामी राजनीति ने ‘जिहाद’ को एक वैध माध्यम बना दिया।
राजनीतिक इस्लाम का सबसे गहरा प्रभाव भारतीय समाज पर इसलिए पड़ा, क्योंकि उसने केवल शासन नहीं बदला, समाज की आत्मा पर हमला किया। मंदिरों को तोड़ा गया, गुरुकुलों को ध्वस्त किया गया, भाषाओं को विकृत किया गया। उनका उद्देश्य यह नहीं था कि लोग मुसलमान बनें, बल्कि यह कि भारत अपनी सांस्कृतिक पहचान भूल जाए। लेकिन यह भूला नहीं। यही सनातन की अद्भुत शक्ति थी, जिसने पराजयों के बावजूद अपना वजूद बनाए रखा। योगी आदित्यनाथ इसी शक्ति को पुनर्स्मरण कराते हैं।
आरएसएस: सौ वर्षों की वैचारिक साधना
योगी का यह वक्तव्य आरएसएस के शताब्दी वर्ष के संदर्भ में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। आरएसएस की स्थापना 1925 में उस समय हुई, जब भारत दासता के साथ-साथ आत्मविस्मृति में भी डूबा हुआ था। डॉ. हेडगेवार ने संघ को केवल संगठन नहीं, बल्कि ‘राष्ट्रीय पुनर्जागरण की साधना’ के रूप में स्थापित किया। सौ वर्षों में संघ ने वही किया जो योगी आज कह रहे हैं। भारत को उसकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ना।
राम मंदिर आंदोलन इस यात्रा की पराकाष्ठा था। यह आंदोलन केवल धार्मिक नहीं था, यह भारतीय आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना का प्रतीक था। योगी आदित्यनाथ ने सही कहा कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और उनके सहयोगी मंदिर के अस्तित्व पर सवाल उठाते रहे, लेकिन आरएसएस के स्वयंसेवकों ने अपने विश्वास को हथियार बनाया। वे गोलियां खाते रहे, प्रतिबंध झेलते रहे, लेकिन झुके नहीं। आज अयोध्या में खड़ा भव्य मंदिर केवल वास्तु नहीं, उस संघर्ष का साक्षी है, जिसने यह सिद्ध किया कि जब भारत अपने सनातन आदर्शों के प्रति अडिग रहता है, तब असंभव भी संभव हो जाता है।
आरएसएस की वर्तमान पहलें सामाजिक सद्भाव, पारिवारिक मूल्यों की पुनर्स्थापना, पर्यावरण संरक्षण, स्वदेशी उत्पादों के माध्यम से आत्मनिर्भरता और नागरिक जिम्मेदारी, योगी आदित्यनाथ के शासन दर्शन से प्रत्यक्ष रूप से मेल खाती हैं। दोनों की जड़ें संघीय राष्ट्रवाद में हैं, वह राष्ट्रवाद जो किसी भूगोल का नहीं, बल्कि आत्मा का उत्सव है।
राम मंदिर: पुनरुत्थान का प्रतीक
योगी आदित्यनाथ ने राम मंदिर के प्रसंग को केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक कहा। यह कथन ऐतिहासिक रूप से सटीक है। क्योंकि राम मंदिर आंदोलन ने वह कर दिखाया, जो स्वतंत्रता के बाद किसी राजनीतिक आंदोलन ने नहीं किया। इसने भारत के जनमानस को उसके सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ दिया। संघ और उसके स्वयंसेवक केवल आंदोलनकारी नहीं थे, वे उस भारत के प्रतीक बन गए जो सदियों की गुलामी के बाद भी अपनी अस्मिता को दोबारा से प्राप्त कर रहे थे।
जब योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि संघ ने असंभव को संभव किया, तो वह केवल एक मंदिर की बात नहीं कर रहे। वह उस मानसिकता की बात कर रहे हैं, जिसने भारत को ‘मौन बहुमत’ से ‘संगठित आत्मा’ में बदल दिया।
राजनीतिक इस्लाम की समकालीन छाया
योगी आदित्यनाथ का यह कथन कि राजनीतिक इस्लाम की गतिविधियां आज भी जारी हैं। वर्तमान भू-राजनीति के संदर्भ में बिल्कुल प्रासंगिक है। पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान हो या पश्चिम एशिया में इस्लामिक स्टेट। ये सब उसी विचारधारा की शाखाएं हैं, जो धर्म के नाम पर सत्ता स्थापित करना चाहती हैं। भारत में इसके सूक्ष्म रूप लव जिहाद, धर्मांतरण और आर्थिक जिहाद के रूप में देखे जाते हैं। योगी आदित्यनाथ का हलाल उत्पादों पर प्रतिबंध उसी खतरे की आर्थिक जड़ों पर वार है। यह केवल प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि यह संदेश है कि भारत अब उस ‘नरम प्रतिरोध’ की नीति से आगे बढ़ चुका है।
इतिहास का विमर्श और आधुनिक चेतना
स्वतंत्रता के बाद भारतीय इतिहास जिस तरह लिखा गया, उसने राजनीतिक इस्लाम के अत्याचारों को ‘समायोजन’ के रूप में प्रस्तुत किया। पाठ्य पुस्तकों में मंदिर ध्वंस को सांस्कृतिक एकीकरण कहा गया और अकबर को महान बताने के लिए शिवाजी जैसे महान लोगों को भी सीमित कर दिया गया। योगी आदित्यनाथ इस विमर्श को उलटते हैं। वे कहते हैं कि इतिहास को विजेताओं के नहीं, सत्य के आधार पर लिखा जाना चाहिए।
इस दृष्टि से योगी आदित्यनाथ और आरएसएस का विमर्श भारतीय अकादमिक परंपरा के पुनर्लेखन की दिशा में अग्रसर है। यह इतिहास को बदलेगा नहीं, बल्कि उसका भारत-केंद्रित पुनर्पाठ करेगा, जिसमें शिवाजी, गुरु गोबिंद सिंह, महाराणा प्रताप और राम मंदिर आंदोलन को एक सतत सांस्कृतिक संघर्ष के रूप में देखा जाएगा।
सनातन बनाम सत्ता
भारत की सभ्यता की सबसे बड़ी शक्ति यही रही है कि उसने धर्म को हमेशा सत्ता से ऊपर रखा। यही कारण है कि यहां कभी थिओक्रेसी नहीं बनी। लेकिन राजनीतिक इस्लाम ने इस संतुलन को तोड़ दिया। उसने सत्ता को धर्म का अधिष्ठान बना दिया। यही अंतर भारत और पश्चिम एशिया के राजनीतिक दर्शन में रहा है। योगी आदित्यनाथ जब कहते हैं कि राजनीतिक इस्लाम ने आस्था को कमजोर किया, तो वे यह स्पष्ट करते हैं कि धर्म तब तक पवित्र है जब तक वह राज्य से स्वतंत्र है।
इसलिए यह संघर्ष किसी धर्म के विरुद्ध नहीं, बल्कि उस वैचारिक उपनिवेश के विरुद्ध है जिसने धर्म को हथियार बना दिया। योगी का यह दृष्टिकोण आरएसएस के उस मूल सिद्धांत से मेल खाता है, जिसमें कहा गया है कि भारत का राष्ट्रत्व उसकी संस्कृति में निहित है, न कि उसकी राजनीति में।
नया वैचारिक युग
सौ वर्षों के बाद आरएसएस और योगी आदित्यनाथ जैसे नेता भारत को उस वैचारिक बिंदु पर ले आए हैं, जहां राष्ट्रवाद अब नारा नहीं, जीवनदर्शन बन गया है। यह राष्ट्रवाद किसी के विरोध पर नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व की पुनर्प्राप्ति पर आधारित है। योगी की राजनीति में यह तत्व स्पष्ट दिखता है, चाहे वह धर्मांतरण पर कार्रवाई हो, मंदिर निर्माण हो या हलाल उत्पादों पर प्रतिबंध। सबका केंद्र बिंदु एक ही है: भारत की सांस्कृतिक सुरक्षा।
आज जब भारत वैश्विक मंच पर आत्मविश्वास से खड़ा है, तब योगी आदित्यनाथ का यह ऐतिहासिक विमर्श हमें याद दिलाता है कि आत्मविश्वास केवल अर्थव्यवस्था या तकनीक से नहीं आता, वह आत्मा की स्मृति से आता है। जो सभ्यता अपने अतीत को भूल जाती है, वह भविष्य की दिशा नहीं तय कर सकती।
शाश्वत संघर्ष और पुनर्जागृत भारत
योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर से दिया गया भाषण उस वैचारिक युद्ध का उद्घोष है, जिसमें तलवारें नहीं, विचार टकरा रहे हैं। एक ओर वह राजनीतिक इस्लाम है जो सत्ता को पवित्रता का माध्यम बनाना चाहता है। वहीं दूसरी ओर वह सनातन चेतना है, जो पवित्रता को सत्ता से परे रखती है। इस संघर्ष की जड़ें इतिहास में हैं, पर इसका परिणाम भविष्य तय करेगा।
आरएसएस की शताब्दी वर्ष की यह यात्रा केवल एक संगठन का उत्सव नहीं, बल्कि एक सभ्यता के पुनर्जन्म की कहानी है। योगी आदित्यनाथ का यह शंखनाद उस कथा का नया अध्याय है, जिसमें भारत फिर से स्वयं को पहचान रहा है, अपनी मिट्टी में, अपनी स्मृतियों में, और अपने ईश्वर में।