शनिवार वाड़ा की मर्यादा भंग: मराठा गौरव के प्रतीक स्थल पर नमाज, हिंदू अस्मिता के अपमान की कहानी

शनिवार वाड़ा केवल पत्थरों से बनी ऐतिहासिक इमारत नहीं है, बल्कि यह मराठा स्वाभिमान, हिंदू गौरव और पेशवाओं की उस वैभवशाली परंपरा का प्रतीक है, जिसने भारत के इतिहास में हिंदू शक्ति की सबसे प्रखर झलक दिखाई थी।

शनिवार वाड़ा की मर्यादा भंग: मराठा गौरव के प्रतीक स्थल पर नमाज, हिंदू अस्मिता के अपमान की कहानी

शनिवार वाड़ा की पवित्रता को बरकरार रखना हर भारतीय का कर्तव्य है।

पुणे का शनिवार वाड़ा केवल पत्थरों से बनी एक ऐतिहासिक इमारत नहीं है, बल्कि यह मराठा स्वाभिमान, हिंदू गौरव और पेशवाओं की उस वैभवशाली परंपरा का प्रतीक है, जिसने भारत के इतिहास में हिंदू शक्ति की सबसे प्रखर झलक दिखाई थी। यही वह स्थान है, जहां से छत्रपति शिवाजी महाराज की विरासत को आगे बढ़ाने वाले पेशवाओं ने मराठा साम्राज्य को संचालित किया। शनिवार वाड़ा का हर कोना, हर दीवार, हर द्वार उस गौरवशाली युग की गवाही देता है जब भारत में हिंदू धर्म, संस्कृति और राष्ट्रधर्म की रक्षा के लिए मराठा सेनाएं सीमाओं के पार तक लड़ी थीं। ऐसे स्थान पर किसी भी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान, जो उसकी ऐतिहासिक पहचान और सांस्कृतिक मर्यादा से मेल नहीं खाता, स्वाभाविक रूप से भावनाओं को आहत करेगा।

हाल ही में जब इस पवित्र स्थल पर कुछ मुस्लिम महिलाओं द्वारा नमाज अदा किए जाने का वीडियो सामने आया, तो यह केवल एक धार्मिक घटना नहीं रही, बल्कि एक सांस्कृतिक और भावनात्मक आघात बन गई। यह घटना उन असंख्य हिंदू हृदयों के लिए गहरी पीड़ा का कारण बनी जो शनिवार वाड़ा को मराठा इतिहास के मंदिर की तरह पूजते हैं। इस घटना के बाद भाजपा सांसद मेधा कुलकर्णी ने जिस प्रकार गोमूत्र छिड़ककर और प्रार्थना कर के स्थल का प्रतीकात्मक शुद्धिकरण किया, वह केवल एक धार्मिक प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि एक संदेश था कि मराठा गौरव और हिंदू अस्मिता से जुड़े प्रतीकों के अपमान को समाज अब सहन नहीं करेगा।

नहीं है किसी प्रकार के धार्मिक आयोजन की अनुमति

विपक्ष और गठबंधन के भीतर कुछ नेताओं ने इस कदम को सांप्रदायिकता से जोड़कर आलोचना की, लेकिन यह आलोचना उस मूल प्रश्न से बचने का प्रयास है जो इस पूरे विवाद की जड़ में है। क्या कोई भी व्यक्ति, किसी भी धर्म का, एक संरक्षित ऐतिहासिक स्थल को अपनी धार्मिक गतिविधियों के लिए उपयोग कर सकता है? भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के नियम साफ कहते हैं कि किसी भी संरक्षित स्मारक में धार्मिक गतिविधि की अनुमति नहीं है, चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम। इस दृष्टि से देखा जाए तो शनिवार वाड़ा में नमाज अदा करना न केवल असंवेदनशील था, बल्कि कानूनी रूप से भी अनुचित था।

हिंदू संगठनों का यह कहना उचित है कि शनिवार वाड़ा कोई धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय धरोहर है, जो मराठा साम्राज्य के गौरव और हिंदू शासन की पहचान का केंद्र है। पेशवाओं की विरासत से जुड़ी इस जगह की मर्यादा का उल्लंघन करना केवल एक नियम तोड़ना नहीं, बल्कि इतिहास के जीवित प्रतीक का अपमान है। पेशवाओं के काल में भी शनिवार वाड़ा केवल शासन का केंद्र था, धार्मिक आयोजन का नहीं। लेकिन इस तथ्य को समझे बिना, कुछ लोगों ने वहां पर जाकर नमाज पढ़ी और एक प्रकार से उस स्थल की तटस्थता को भंग किया।

कांग्रेस और एनसीपी जैसी पार्टियों द्वारा मेधा कुलकर्णी के शुद्धिकरण कार्यक्रम को सांप्रदायिक बताना इस तथ्य की अनदेखी है कि उन्होंने कोई घृणा फैलाने वाला कार्य नहीं किया, बल्कि हिंदू परंपरा में स्वीकृत शुद्धिकरण प्रक्रिया अपनाई। गोमूत्र छिड़कना और प्रार्थना करना हिंदू संस्कृति में पवित्रता पुनर्स्थापित करने का पारंपरिक तरीका है। जब किसी पवित्र स्थान की मर्यादा भंग होती है, तो समाज उसे पुनः शुद्ध करने के लिए यह प्रक्रिया अपनाता है। यह वही भाव है जो मंदिर में अपवित्रता होने पर किया जाता है।

भारत की सांस्कृतिक चेतना से जुड़ी है यह घटना

यह घटना केवल पुणे या महाराष्ट्र की नहीं, बल्कि पूरे भारत की सांस्कृतिक चेतना से जुड़ी है। जब ऐसे प्रतीक स्थलों पर धार्मिक प्रयोग किए जाते हैं, तो यह भारतीय सभ्यता की आत्मा को चुनौती देने जैसा होता है। शनिवार वाड़ा मराठा गौरव का केंद्र है, और मराठा गौरव केवल इतिहास का अध्याय नहीं, बल्कि हिंदू अस्मिता का प्रतीक है। यही वह मर्यादा है जिसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने जीवन से स्थापित किया था—“स्वराज्य ही हिंदवी अस्मिता का स्वरूप है।” ऐसे में जब कोई उस प्रतीक स्थल पर आस्था से विपरीत आचरण करता है, तो हिंदू समाज में आक्रोश स्वाभाविक है।

इस संदर्भ में यदि हम केंद्रीय मंत्री नारायण राणे और उनके पुत्र नितेश राणे जैसे नेताओं की विचारधारा देखें, तो वे भी बार-बार इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि भारत के प्रतीक स्थलों की सांस्कृतिक पवित्रता का सम्मान किया जाना चाहिए। भले ही उन्होंने इस घटना पर सीधा बयान न दिया हो, लेकिन उनका रुख सदैव यही रहा है कि ऐसे स्थानों को धार्मिक राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाया जाना चाहिए। उनका यह दृष्टिकोण इस विवाद में भी लागू होता है, क्योंकि जब ऐतिहासिक स्थलों पर धर्म विशेष के प्रतीकात्मक आयोजन किए जाते हैं, तो वह असंतुलन और सामाजिक तनाव का कारण बनता है।

विपक्ष यह तर्क दे सकता है कि शनिवार वाड़ा के बाहर एक पुरानी दरगाह पहले से है, इसलिए वहां नमाज पढ़ने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन यह तर्क अधूरा है, क्योंकि दरगाह का अस्तित्व उस बाहरी क्षेत्र में हैख् जो धार्मिक उपयोग के लिए पहले से मान्य है, जबकि शनिवार वाड़ा स्वयं एक संरक्षित और तटस्थ ऐतिहासिक परिसर है। दरगाह के अस्तित्व से वाड़ा की पवित्रता पर कोई प्रश्न नहीं उठता, लेकिन वाड़ा के भीतर नमाज अदा करना निश्चित रूप से अनुचित है।

इस पूरे प्रसंग का सार यही है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में धर्मों के प्रति समान सम्मान तभी संभव है जब हर समुदाय एक-दूसरे के प्रतीक स्थलों की मर्यादा का सम्मान करे। शनिवार वाड़ा केवल इतिहास नहीं, एक भावना है, मराठा अस्मिता की, हिंदू आत्मगौरव की, और भारत के स्वराज्य स्वप्न की। उसकी पवित्रता और सांस्कृतिक गरिमा बनाए रखना केवल हिंदू संगठनों का नहीं, बल्कि हर भारतीय का कर्तव्य है।

यदि इस प्रकार की घटनाएं दोहराई जाती हैं, तो यह केवल राजनीतिक विवाद नहीं रहेगा, बल्कि सभ्यता के टकराव का प्रतीक बन जाएगा। उस स्थिति में समाज में सामंजस्य की जगह अविश्वास और प्रतिरोध का भाव जन्म लेगा। इसलिए आवश्यक है कि राज्य सरकार और प्रशासन इस बात को समझे कि किसी भी समुदाय की आस्था के साथ खिलवाड़, विशेषकर ऐसे ऐतिहासिक प्रतीकों के संदर्भ में, केवल कानून का उल्लंघन नहीं बल्कि सांस्कृतिक अपराध भी है।

शनिवार वाड़ा को नमाज स्थल बनाने की कोशिश दरअसल एक बड़े सांस्कृतिक विमर्श को जन्म देती है, क्या भारत अपने ऐतिहासिक प्रतीकों की मर्यादा को बचाए रखेगा या उन्हें धर्मनिरपेक्षता की विकृत व्याख्या के नाम पर अपवित्र होने देगा? यही प्रश्न आज पूरे समाज के सामने खड़ा है।

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