भारत की धरती पर कई किले हैं और हर किले की अपनी एक अलग कहानी है। इन्ही किलों में से एक है ग्वालियर क्षेत्र का देवगढ़ किला जो इन दिनों फिर चर्चा में है। इसकी वजह है गढ़रियार राजवंश और उनकी 400 साल पुरानी दो मशहूर तोपें – वज्र और गढ़काली। ये तोपें सिर्फ लड़ाई करने में इस्तेमाल नही होती थी, बल्कि यह तोपें तो उनकी परंपरा का प्रतीक मानी जाती है। पीढ़ीयों से लोग इन तोपों की पूजा करते आए है और इसी वजह से आज भी लोग उन तोपों को अपनी पहचान और विरासत का हिस्सा मानते है।
कब बना देवगढ़ किला और क्या है उसका महत्व?
देवगढ़ किला मध्य प्रदेश की एक ऊँची पहाड़ी पर बना है। इसे 16वीं शताब्दी में गोंड शासकों ने बनवाया था। किले के अंदर बावड़ियाँ, तालाब और झरने थे, जो उस समय की पानी की व्यवस्था को दिखाते हैं। इस किले का ज़िक्र मुगलकालीन किताबों और बादशाहनामा जैसे रिकार्ड में भी मिलता है। समय बीतने के साथ यह किला कई राजवंशों और शासकों का केंद्र रहा। आज भले ही इसके कुछ हिस्से खंडहर बन गए हों, लेकिन ये अब भी शौर्य और शान की कहानियाँ सुनाते हैं।
गढ़रियार राजवंश का हमेशा से इस किले से गहरा नाता रहा है। परिवार का मानना है कि देवगढ़ किले की तोपें वज्र और गढ़काली उनकी परंपरा की सबसे कीमती धरोहर हैं। सालों से यह परंपरा चली आ रही है कि परिवार दशहरे और दीपावली पर इन तोपों की पूजा करते है। वंशजों के लिए ये तोपें सिर्फ़ लड़ाई के कोई मामूली औज़ार नहीं हैं, बल्कि ताकत और सुरक्षा का प्रतीक भी हैं। आज भी गढ़रियार परिवार इन्हें अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान का अहम हिस्सा मानते है।
तोप वज्र और गढ़काली की पहचान और पूजा
देवगढ़ किले में रखी इन दोनों तोपों के खास नाम रखे गए थे, वो नाम थे वज्र और गढ़काली। वज्र को ताकत और कभी ना हारने का प्रतीक माना जाता था जबकि गढ़काली को काली माता और किले की सुरक्षा का प्रतीक माना जाता था। पीढ़ियों से विजयादशमी और दीपावली पर इन तोपों की पूजा की जाती रही है। यह परंपरा सिर्फ़ परिवार की आस्था का हिस्सा नहीं थी, बल्कि पूरे इलाके में लोग इसे धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व के रूप में देखते थे।
सेना द्वारा कब्ज़ा और विवाद की शुरुआत
इन तोपों का विवाद लगभग 12 साल पहले शुरू हुआ, जब सेना ने देवगढ़ किले से वज्र और गढ़काली तोपें अपने कब्ज़े में ले लीं। सेना का कहना था कि ये ऐतिहासिक और कीमती हैं और इन्हें सुरक्षित रखना जरूरी है, जबकि गढ़रियार परिवार का कहना है कि ये उनकी पूर्वजों की संपत्ति हैं और इन्हें उन्हें वापस मिलना चाहिए। यह विवाद इसलिए पैदा हुआ क्योंकि परिवार अपनी विरासत का अधिकार चाहता है, जबकि सरकार इन्हें ऐतिहासिक धरोहर मानकर अपने पास रख रही है।
मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार, इसके लिए किले की दीवार तक तोड़ी गई और तोपें ग्वालियर के सेना क्षेत्र में ले जाई गईं। आज एक तोप ब्रिगेड ऑफिस के सामने और दूसरी प्रवेश द्वार के पास रखी हुई है। गढ़रियार परिवार का कहना है कि यह कार्रवाई बिना अधिकार के की गई और उनकी परंपरा को तोड़ दिया। तब से परिवार लगातार सेना और प्रशासन से पत्राचार कर रहा है ताकि तोपें उनके पुराने स्थान पर वापस लाई जाएँ।
हालांकि अब तोपें सेना के पास हैं, फिर भी गढ़रियार परिवार हर साल दशहरे और दीपावली पर शस्त्र पूजा करने के लिए सैन्य क्षेत्र तक जाता है। लेकिन यह उनके लिए आसान नहीं है क्योंकि परंपरा के अनुसार पूजा तो देवगढ़ किले पर ही होनी चाहिए। परिवार का कहना है कि अगर तोपें वापस नहीं की गईं, तो वे अदालत की मदद लेंगे। उनके लिए यह सिर्फ पूजा का मामला नहीं है, बल्कि उनकी ऐतिहासिक विरासत और सम्मान की लड़ाई है।
कानूनी पहलू और चुनौतियाँ
अगर यह विवाद अदालत तक जाता है, तो सबसे बड़ा सवाल यह होगा कि ये तोपें सरकारी संपत्ति हैं या परिवार की वंशानुगत धरोहर। परिवार का दावा है कि ये उनकी परंपरा और विरासत का हिस्सा हैं, जबकि सेना इसे ऐतिहासिक धरोहर और सुरक्षा कारणों से अपने पास रखे हुए है। देवगढ़ किला और गढ़रियार राजवंश की ये तोपें आज भी परंपरा, आस्था और शौर्य का प्रतीक हैं। यह विवाद सिर्फ़ दो तोपों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सवाल है कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर की असली सुरक्षा किसके हाथ में होनी चाहिए। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि तोपें अपने पुराने स्थान देवगढ़ किले पर लौट पाती हैं या नहीं।