ट्रंप की मध्य-पूर्व शांति पहल: गाज़ा समझौते पर दबाव, नेतन्याहू अब भी संशय में

इस बार चर्चा के केंद्र में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हैं, जिन्होंने गाज़ा में जारी युद्ध को खत्म करने के लिए अचानक शांति योजना पेश कर दी है। ट्रंप ने खुले शब्दों में कहा है कि अगर दोनों पक्ष जल्द नहीं मानते, तो भयावह रक्तपात सामने होगा।

ट्रंप की मध्य-पूर्व शांति पहल: गाज़ा समझौते पर दबाव, नेतन्याहू अब भी संशय में

इतिहास यह भी कहता है कि मध्य-पूर्व की शांति हमेशा अस्थायी रही है।

मध्य-पूर्व की राजनीति एक बार फिर उबाल पर है। लेकिन इस बार चर्चा के केंद्र में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हैं, जिन्होंने गाज़ा में जारी युद्ध को खत्म करने के लिए अचानक फास्ट-ट्रैक शांति योजना पेश कर दी है। ट्रंप ने खुले शब्दों में कहा है कि अगर दोनों पक्ष जल्द नहीं मानते, तो भयावह रक्तपात सामने होगा। लेकिन, इस बार समीकरण पहले से कहीं अधिक पेचीदा हैं। एक ओर ट्रंप की जल्दबाज़ी और अंतरराष्ट्रीय छवि की चिंता है, दूसरी ओर इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की राजनीतिक विवशता और सुरक्षा आशंकाएं।

ट्रंप की चेतावनी

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति और अब फिर से सत्ता में लौटे ट्रंप ने अपने मंच ट्रुथ सोशल पर संदेश दिया है कि मैं चाहता हूं कि यह समझौता इस हफ्ते पूरा हो। समय बहुत कम है। अगर हम जल्दी नहीं बढ़े तो भारी जनहानि होगी। इस वक्तव्य ने पूरे पश्चिम एशिया में हलचल मचा दी। यह स्पष्ट संकेत था कि ट्रंप एक बार फिर मध्य-पूर्व में निर्णायक भूमिका निभाने की इच्छा रखते हैं। वही इलाका जहां उन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में अब्राहम समझौतों के जरिए अरब देशों और इज़रायल के बीच रिश्तों का नया अध्याय खोला था।

इस बार ट्रंप की पहल गाज़ा के युद्धविराम और बंधकों की रिहाई पर केंद्रित है। उनके अनुसार, पहले चरण में हमास के कब्जे से इज़रायली बंधकों को छोड़ा जाएगा और इज़रायली सेना सीमित इलाकों से पीछे हटेगी। इसके बाद दूसरा चरण शुरू होगा, गाज़ा के पुनर्निर्माण और स्थायी शांति व्यवस्था पर। ट्रंप के शब्दों में यह योजना चल पड़ी है, तकनीकी टीमें मिस्र में मिल रही हैं और विवरण तय कर रही हैं।

हमास ने दिखाई नरमी

दिलचस्प बात यह है कि महीनों से लड़ाई में उलझे हमास ने पहली बार कुछ नरमी दिखाई है। संगठन ने ट्रंप की योजना के कुछ हिस्सों को स्वीकार करते हुए युद्धविराम, आंशिक वापसी, कैदियों की अदला-बदली और राहत कार्यों की अनुमति जैसी बातों पर सहमति जताई है। लेकिन, उसने यह शर्त रखी है कि इज़रायल आगे किसी भी सैन्य कार्रवाई न करने की गारंटी दे और गाज़ा से जबरन पलायन या विस्थापन न हो। ट्रंप के अनुसार, यह आंशिक स्वीकृति भी बड़ी उपलब्धि है। उनके शब्दों में यह “शांति की खिड़की” है जो लंबे समय बाद खुली है।

लेकिन, यहीं से नेतन्याहू का संदेह शुरू हो जाता है। इज़रायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने इस प्रस्ताव को सावधानी से देखने की बात कही है। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि हम बंधकों की रिहाई के बहुत करीब हैं, लेकिन यह अभी अंतिम नहीं है। हमारी सेना गाज़ा में सक्रिय रहेगी और हमास का पूर्ण निरस्त्रीकरण या तो कूटनीतिक रूप से होगा या सैन्य रूप से। नेतन्याहू का यह वक्तव्य इस बात का संकेत था कि इज़रायल किसी जल्दबाज़ी में नहीं है। उन्हें डर है कि जल्दबाजी में किया गया कोई भी समझौता सुरक्षा के मोर्चे पर इज़रायल को कमजोर कर सकता है।

ट्रंप और नेतन्याहू के बीच हालिया टकराव इस अविश्वास को और स्पष्ट करता है। अमेरिकी मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक दोनों नेताओं के बीच हुई एक टेलीफोन वार्ता बेहद तनावपूर्ण रही। ट्रंप ने नेतन्याहू से कहा कि मुझे समझ नहीं आता कि तुम हमेशा इतने नकारात्मक क्यों रहते हो। यह जीत है, इसे मानो। इस पर नेतन्याहू ने जवाब दिया कि यह कोई जीत नहीं है, यह हमास की रणनीतिक चाल है। यह संवाद दोनों नेताओं के दृष्टिकोण का फर्क दिखाता है, ट्रंप अपने लिए कूटनीतिक जीत चाहते हैं और नेतन्याहू सुरक्षा व घरेलू राजनीति के समीकरण में फंसे हैं।

हालांकि, इज़रायल के भीतर नेतन्याहू पर दबाव बढ़ रहा है। देश के अति-दक्षिणपंथी गुट किसी भी प्रकार के युद्धविराम को कमज़ोरी के रूप में देखते हैं। वहीं, ट्रंप चाहते हैं कि समझौता तुरंत लागू हो ताकि वे इसे अपनी राजनयिक सफलता के रूप में प्रस्तुत कर सकें। उन्होंने कहा कि हम पहले ही बहुत देर कर चुके हैं। हर पल की देरी निर्दोष नागरिकों के लिए मौत का कारण बन रही है।

इस बीच मिस्र फिर से मध्यस्थ की भूमिका में आ चुका है। काहिरा में हमास और इज़रायल के प्रतिनिधि मिले हैं और मिस्र की खुफिया एजेंसियां इस बातचीत की कमान संभाले हुए हैं। हालांकि, मिस्र की भूमिका हमेशा से दोहरी रही है, एक ओर वह इज़रायल की सुरक्षा चिंताओं को समझता है, दूसरी ओर अरब दुनिया में अपनी मध्यस्थता की छवि भी बनाए रखना चाहता है। मिस्र के लिए यह सिर्फ कूटनीतिक नहीं बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता का प्रश्न भी है, क्योंकि गाज़ा की सीमा उसी के साथ लगती है।

ट्रंप की योजना दो चरणों में बंटी है। पहला युद्धविराम, बंधकों की रिहाई और मानवीय सहायता की बहाली। दूसरा है हमास का पूर्ण निरस्त्रीकरण और गाज़ा का डिमिलिटराइजेशन। यही दूसरा चरण सबसे कठिन है, क्योंकि हमास ने अब तक अपने हथियार डालने से साफ इंकार किया है। नेतन्याहू कहते हैं कि अगर यह राजनीतिक रूप से नहीं होता, तो सैन्य रूप से होगा। जबकि ट्रंप का कहना है कि डिप्लोमेसी से यह भी संभव है, अगर सभी पक्ष गंभीर हों।

कूटनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक ट्रंप की यह योजना उनकी पुरानी पीस टू प्रॉस्पेरिटी नीति से मिलती-जुलती है, लेकिन इस बार उनका ध्यान गाज़ा की सुरक्षा और पुनर्निर्माण पर है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब स्थिति कहीं ज्यादा जटिल और राजनीतिक रूप से अस्थिर है। ट्रंप के लिए यह पहल न केवल मध्य-पूर्व में अपनी पकड़ दोबारा स्थापित करने का मौका है, बल्कि घरेलू राजनीति में खुद को वैश्विक शांति निर्माता के रूप में पेश करने का भी प्रयास है।

इजराइल के सामने दुविधा

इज़रायल के लिए यह रणनीतिक दुविधा का दौर है। नेतन्याहू जानते हैं कि अगर वे अमेरिकी दबाव में समझौते की दिशा में बढ़ते हैं तो दक्षिणपंथी सहयोगी उनका साथ छोड़ सकते हैं। अगर वे इंकार करते हैं तो अमेरिका से संबंध बिगड़ सकते हैं। वह अमेरिका, जिसने दशकों तक इज़रायल को हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर बचाए रखा है।

वहीं हमास के लिए यह अस्तित्व का प्रश्न है। उसका आंशिक हां, दरअसल समय खरीदने की रणनीति मानी जा रही है। युद्ध से थके नागरिकों के बीच उसे थोड़ी राहत चाहिए, ताकि वह अपनी पकड़ बनाए रख सके। ट्रंप इस स्थिति को एक कूटनीतिक अवसर मान रहे हैं। वह अवसर जो इतिहास में उन्हें फिर डील मेकर के रूप में स्थापित कर सकता है।

फिलहाल काहिरा में बातचीत जारी है। बमों की आवाज़ फिलहाल थमी हुई है, लेकिन भरोसा नहीं लौटा है। दोनों पक्ष एक-दूसरे पर निगाह रखे हुए हैं। ट्रंप की टीम का कहना है कि अगर यह शांति योजना लागू हुई तो 72 घंटों के भीतर बंधकों की रिहाई और मानवीय कॉरिडोर शुरू हो जाएंगे। लेकिन, वास्तविकता यह है कि गाज़ा की धरती पर हर शांति संधि अब तक अस्थायी ही साबित हुई है।

ट्रंप का यह कदम चाहे राजनीतिक महत्वाकांक्षा से प्रेरित हो या वास्तविक चिंता से, इतना तो तय है कि इससे मध्य-पूर्व की भू-राजनीति में नई हलचल पैदा हुई है। नेतन्याहू इसे समय से पहले कीबोर्ड डिप्लोमेसी मानते हैं, जबकि ट्रंप इसे आखिरी मौका कहते हैं। दोनों अपने-अपने कारणों से सही भी हैं, क्योंकि एक तरफ है अमेरिकी चुनावी मौसम का दबाव और दूसरी तरफ है इज़रायल की जमीनी सुरक्षा।

गाज़ा की यह कहानी फिलहाल अधूरी है। लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि इस बार मध्य-पूर्व की शांति का खेल अब सिर्फ अरब और यहूदियों के बीच नहीं है। यह अब दो राजनेताओं के बीच की निजी प्रतिस्पर्धा में बदल चुका है, जिनमें से एक अपनी राजनीतिक विरासत बचाना चाहता है और दूसरा अपनी खोई हुई कूटनीतिक महिमा लौटाना।

अगर यह समझौता सच में आगे बढ़ता है तो यह केवल इज़रायल या हमास की जीत नहीं होगी, बल्कि उस उम्मीद की जीत होगी जो हर युद्ध के बीच दबी रहती है कि एक दिन बंदूकें थक जाएंगी और बातचीत जीत जाएगी। लेकिन, इतिहास यह भी कहता है कि मध्य-पूर्व की शांति हमेशा अस्थायी रही है। शायद ट्रंप की यह शांति पहल भी उसी परंपरा का एक नया अध्याय बनने जा रही है, जहां कूटनीति का हर मोड़ फिर किसी नए विस्फोट की प्रस्तावना बन जाता है।

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