23 दिसम्बर बलिदान-दिवस: परावर्तन के अग्रदूत — स्वामी श्रद्धानन्द

बरेली में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रवचनों से वे गहराई से प्रभावित हुए। अस्पृश्यता और जातीय भेदभाव के विरुद्ध उन्होंने जीवनभर संघर्ष किया

भारत में परावर्तन आंदोलन के सबसे प्रभावशाली और निर्भीक अग्रदूत स्वामी श्रद्धानन्द थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि भारत में निवास करने वाले मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू ही थे और उन्हें उनके मूल, पवित्र धर्म से पुनः जोड़ना राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का अनिवार्य अंग है।

संन्यास से पूर्व उनका नाम मुंशी राम था। उनका जन्म 1856 ई. में ग्राम तलबन (जिला जालन्धर, पंजाब) में हुआ। उनके पिता नानकचन्द जी पुलिस अधिकारी थे। मात्र 12 वर्ष की आयु में उनका विवाह हो गया।

स्वामी दयानन्द से प्रेरणा और सामाजिक क्रांति

बरेली में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रवचनों से वे गहराई से प्रभावित हुए। अस्पृश्यता और जातीय भेदभाव के विरुद्ध उन्होंने जीवनभर संघर्ष किया। सामाजिक समरसता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने अपनी पुत्री अमृतकला तथा पुत्रों पंडित हरिश्चन्द्र विद्यालंकार और पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति के अंतरजातीय विवाह कराए। 1917 में संन्यास ग्रहण करने के बाद वे स्वामी श्रद्धानन्द कहलाए।

स्वतंत्रता आंदोलन और गांधी से संबंध

स्वामी श्रद्धानन्द और महात्मा गांधी एक-दूसरे से गहरे प्रभावित थे। गांधी जी को सबसे पहले ‘महात्मा’ कहकर संबोधित करने वाले भी स्वामी श्रद्धानन्द ही थे—जो आगे चलकर गांधी जी की पहचान बन गया।

30 मार्च 1919, दिल्ली के चाँदनी चौक में रौलट एक्ट के विरुद्ध हुए सत्याग्रह का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानन्द ने किया। जब सैनिकों ने सत्याग्रहियों पर लाठियाँ बरसाईं और अधिकारी ने उनका सीना छलनी कर देने की धमकी दी, तो स्वामी जी ने निर्भीक होकर अपना सीना खोल दिया। उनका तेज देखकर सेना पीछे हट गई।स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें एक वर्ष चार माह का कारावास हुआ।

परावर्तन आंदोलन और शुद्धि सभा

जेल से रिहा होकर उन्होंने अछूतोद्धार और परावर्तन आंदोलन को अपना जीवन-कार्य बना लिया।
1924 में ‘शुद्धि सभा’ की स्थापना कर उन्होंने लगभग 30,000 मलकाना राजपूत मुसलमानों को पुनः हिन्दू धर्म में लौटाया।

इसी वर्ष वे अखिल भारत हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने।

शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक योगदान

21 मार्च 1902, होली के शुभ अवसर पर उन्होंने हरिद्वार के समीप ‘गुरुकुल कांगड़ी’ की स्थापना की।
इसके लिए नजीबाबाद (बिजनौर) के चौधरी अमन सिंह ने 120 बीघा भूमि और 11,000 रुपये दान में दिए। व्यवस्था हेतु स्वामी श्रद्धानन्द ने अपना घर तक बेच दिया और सबसे पहले अपने दोनों पुत्रों को वहीं प्रवेश दिलवाया।

उन्होंने जालन्धर और देहरादून में कन्या पाठशालाओं की भी स्थापना की।

राष्ट्रीय नेतृत्व और निर्भीकता

जलियाँवाला बाग नरसंहार के बाद जब पंजाब में कांग्रेस अधिवेशन के लिए कोई स्वागताध्यक्ष बनने को तैयार नहीं था, तब 1920 में अमृतसर अधिवेशन का दायित्व स्वामी श्रद्धानन्द ने संभाला।
उन्होंने अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया—जबकि उससे पहले कांग्रेस अधिवेशनों में अंग्रेज़ी का ही प्रयोग होता था।

बलिदान

परावर्तन आंदोलन से विचलित होकर कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं ने स्वामी श्रद्धानन्द के विरुद्ध फतवे जारी किए।
अंततः 23 दिसम्बर 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक कट्टरपंथी युवक ने उनके सीने में तीन गोलियाँ दाग दीं।

स्वामी श्रद्धानन्द के मुख से अंतिम शब्द निकले—“ॐ  और उन्होंने राष्ट्र व धर्म के लिए प्राण त्याग दिए।

निष्कर्ष

स्वामी श्रद्धानन्द केवल एक संन्यासी नहीं थे— वे समाज सुधारक, राष्ट्रवादी, शिक्षाविद् और निर्भीक योद्धा थे।
उनका बलिदान आज भी भारत की सांस्कृतिक चेतना को दिशा देता है।

स्वामी श्रद्धानन्द — अमर हैं।

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