संयुक्त राष्ट्र में हिंदी की गूंज: अटल बिहारी वाजपेयी का ऐतिहासिक संबोधन

अटल बिहारी वाजपेयी की वाणी को हमेशा उस क्षण के रूप में याद किया जाएगा, जब भारत ने विश्व मंच पर अपनी बात अपनी ही आवाज़ में कहना शुरू किया।

अटल बिहारी वाजपेयी

अटल बिहारी वाजपेयी

इसी दिन भारत के प्रमुख नेताओं में से एक, अटल बिहारी वाजपेयी ने इतिहास रचा था, जब उन्होंने पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) को हिंदी में संबोधित किया। 1977 में, मोरारजी देसाई सरकार में भारत के विदेश मंत्री के रूप में, अटल बिहारी वाजपेयी संयुक्त राष्ट्र के मंच पर पहुँचे और कूटनीति की पारंपरिक भाषा अंग्रेज़ी में नहीं, बल्कि भारत के हृदय की भाषा हिंदी में अपना वक्तव्य दिया।

अपने शांत किंतु प्रभावशाली व्यक्तित्व के साथ दिए गए इस संबोधन ने भारत की कूटनीतिक पहचान में एक निर्णायक मोड़ ला दिया। पहली बार विश्व ने वैश्विक शासन के मंच पर हिंदी की गूंज सुनी—जो भारत के सभ्यतागत आत्मविश्वास, लोकतांत्रिक पुनर्जागरण और भाषाई स्वाभिमान का प्रतीक बनी। उस दिन अटल बिहारी वाजपेयी की वाणी को हमेशा उस क्षण के रूप में याद किया जाएगा, जब भारत ने विश्व मंच पर अपनी बात अपनी ही आवाज़ में कहना शुरू किया।

आपातकाल के बाद लोकतंत्र की विजय की घोषणा

जब 1977 में वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र को संबोधित किया, तब भारत हाल ही में आपातकाल के अंधेरे दौर से बाहर निकला था। उनका यह भाषण केवल वैश्विक शांति या परमाणु निरस्त्रीकरण तक सीमित नहीं था, बल्कि यह भारत के नैतिक पुनर्जागरण की घोषणा भी था।

उन्होंने कहा—

इसके माध्यम से उन्होंने विश्व को यह संदेश दिया कि भारत में लोकतंत्र ने तानाशाही पर निर्णायक विजय प्राप्त की है। वह ऐसे राष्ट्र के प्रतिनिधि के रूप में बोले, जिसने अपनी स्वतंत्रता को पुनः खोजा था, और यह स्पष्ट किया कि भारत की आंतरिक लोकतांत्रिक जीत स्वतंत्रता में विश्वास रखने वाले सभी देशों की जीत है। उनके शब्द एक पुनर्जीवित भारत की आत्मा को प्रतिबिंबित करते थे—एक ऐसा भारत जो न तो दबेगा, न चुप रहेगा, और जिसने अपने संविधान तथा जनता की आवाज़ में फिर से विश्वास जताया।

वैश्विक मंच पर हिंदी: सांस्कृतिक आत्मगौरव का प्रतीक

वाजपेयी से पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत के सभी नेता अंग्रेज़ी में ही भाषण देते थे, लेकिन हिंदी में बोलने का उनका निर्णय क्रांतिकारी था। यह केवल भाषा का प्रश्न नहीं था, बल्कि पहचान को पुनः स्थापित करने का प्रयास था। हिंदी को चुनकर वाजपेयी ने यह स्पष्ट संदेश दिया कि भारत अब औपनिवेशिक परंपराओं से बंधा नहीं रहेगा। यह आत्मविश्वास की घोषणा थी—इस बात का ऐलान कि भारत के विचार, मूल्य और संस्कृति अपनी ही भाषा में अभिव्यक्त होने योग्य हैं।

हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों पर समान अधिकार रखने के बावजूद, वाजपेयी ने जानबूझकर हिंदी को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठित किया। वे चाहते थे कि विश्व भारत को केवल एक विकासशील देश नहीं, बल्कि एक महान सभ्यतागत शक्ति के रूप में पहचाने। उसी दिन से यह परंपरा स्थापित हो गई कि भारतीय नेता संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में संबोधन करें—प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाया।

शांति, गुटनिरपेक्षता और वैश्विक सहयोग का संदेश

1977 के अपने भाषण में वाजपेयी ने वैश्विक कूटनीति में भारत के मूल सिद्धांतों—शांति, गुटनिरपेक्षता और सहयोग—को प्रभावशाली ढंग से दोहराया।

उन्होंने कहा— “ यह वक्तव्य भारत की प्राचीन अवधारणा वसुधैव कुटुम्बकम्—संपूर्ण विश्व एक परिवार है—से प्रेरित था। शीत युद्ध के तनावपूर्ण वातावरण में, वाजपेयी ने भारत को संतुलन की नैतिक आवाज़ के रूप में स्थापित किया, जो किसी भी महाशक्ति के पीछे आँख मूंदकर चलने को तैयार नहीं था। उनकी दृष्टि न्याय, समानता और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की थी।

निरंतर वैश्विक नेतृत्व: निरस्त्रीकरण से लोकतंत्र तक

संयुक्त राष्ट्र में वाजपेयी की भूमिका केवल एक ऐतिहासिक भाषण तक सीमित नहीं रही। 1977 से 2003 के बीच उन्होंने विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री के रूप में सात बार संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित किया।

1978 में उन्होंने परमाणु निरस्त्रीकरण का मुद्दा उठाते हुए चेतावनी दी।

जब विश्व परमाणु हथियारों की होड़ में लगा था, तब वाजपेयी ने व्यापक और सत्यापन योग्य निरस्त्रीकरण की आवश्यकता पर बल दिया। दो दशक बाद, 1998 में पोखरण-II परमाणु परीक्षणों के बाद वे प्रधानमंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र लौटे। वहाँ उन्होंने भारत के आत्मरक्षा के अधिकार का समर्थन करते हुए कहा कि भारत को यह कदम मजबूरी में उठाना पड़ा, क्योंकि परमाणु शक्तियों ने निरस्त्रीकरण से इनकार किया और क्षेत्रीय खतरे बने रहे। उनका संतुलित दृष्टिकोण—दृढ़ लेकिन जिम्मेदार—भारत को वैश्विक सम्मान दिलाने वाला सिद्ध हुआ।

राज्य-प्रायोजित आतंकवाद का पर्दाफाश

9/11 के हमलों के बाद, 2001 और 2002 में अपने संयुक्त राष्ट्र संबोधनों में वाजपेयी ने उस पीड़ा को वैश्विक मंच पर रखा, जिसे भारत लंबे समय से झेल रहा था—राज्य-प्रायोजित आतंकवाद। उन्होंने उन देशों की कड़ी निंदा की जो आतंकवादियों को संरक्षण देते हैं और अंतरराष्ट्रीय सहयोग से ऐसे नेटवर्क को समाप्त करने का आह्वान किया। 2002 में उन्होंने दक्षिण एशिया में “परमाणु ब्लैकमेल” को राज्य-प्रायोजित आतंकवाद का नया हथियार बताया—यह पाकिस्तान की ओर स्पष्ट संकेत था। जब विश्व इस खतरे को पूरी तरह समझ भी नहीं पाया था, तब वाजपेयी ने इसकी चेतावनी दे दी थी।

संयुक्त राष्ट्र सुधार की मांग

2003 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए गए अपने अंतिम भाषण में वाजपेयी ने यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया। संयुक्त राष्ट्र में आस्था जताते हुए भी उन्होंने उसकी सीमाओं की ओर स्पष्ट संकेत किया।

इराक का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा—उन्होंने संगठन की संरचना और कार्यप्रणाली में व्यापक सुधार की आवश्यकता पर बल दिया। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं, जब भारत सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग कर रहा है।

एक वैश्विक राजनेता की विरासत

संयुक्त राष्ट्र में वाजपेयी के योगदान ने भारत की कूटनीति को सिद्धांतनिष्ठ, स्वतंत्र और सभ्यतागत मूल्यों से युक्त स्वरूप दिया।

दस बार लोकसभा सांसद रहे, कवि, वक्ता और दूरदर्शी राजनेता वाजपेयी ने नैतिक शक्ति को व्यावहारिक नेतृत्व से जोड़ा।

16 अगस्त 2018 को उनके निधन पर भारत ने केवल एक नेता नहीं, बल्कि ऐसे राजनेता को खोया, जिसने भारत की आवाज़ को विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाया।

वह नेता जिसने भारत को अपनी आवाज़ दी

1977 में संयुक्त राष्ट्र में अटल बिहारी वाजपेयी का हिंदी में दिया गया भाषण केवल एक संबोधन नहीं था—यह भारत की संप्रभु पहचान की घोषणा थी। हिंदी में बोलकर उन्होंने भारतीय कूटनीति को औपनिवेशिक छाया से मुक्त किया। उनकी वाणी में शांति, लोकतंत्र और सहअस्तित्व में विश्वास रखने वाली एक प्राचीन सभ्यता की शक्ति थी। आज जब भारतीय नेता संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में बोलते हैं, तो वह परंपरा अटल बिहारी वाजपेयी की ही देन है। जब वे बोले, तो केवल अटल बिहारी वाजपेयी नहीं बोले—भारत बोला, आत्मविश्वासी, गरिमामय और शाश्वत।

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