राजा महेंद्र प्रताप सिंह: आजादी की लड़ाई का योद्धा, जिसने काबुल में बनाई थी स्वतंत्र भारत की पहली निर्वासित सरकारू

राजा महेंद्र प्रताप सिंह 32 वर्षों तक विदेशों में रहकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ते रहे, लेकिन स्वतंत्रता के बाद कांग्रेसी सरकारों में उनके योगदान को उचित जगह नहीं मिली

राजा महेंद्र प्रताप सिंह

राजा महेंद्र प्रताप सिंह को इतिहास ने पहचाना, लेकिन देर से

हमारी आज़ादी के आंदोलन में कई महान व्यक्तित्वों ने अपना सबकुछ खपा दिया. लेकिन यह देश का दुर्भाग्य रहा है कि आज़ादी के बाद ऐसे राष्ट्र नायक और नायिकाओं को अगली पीढियों को परिचित ही नहीं कराया गया।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजा महेंद्र प्रताप सिंह के संदर्भ में ये शब्द तब कहे थे, जब वो वर्ष 2021 में उनके नाम पर बनी यूनिवर्सिटी का शिलान्यास करने अलीगढ़ पहुंचे थे।
आज राजा महेंद्र प्रताप सिंह की जयंती है। उनका जन्म एक दिसम्बर, 1886 को हाथरस के मुरसान में के एक प्रसिद्ध जाट राजवंश में हुआ था।

राजा महेंद्र प्रताप सिंह न सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, बल्कि एक शिक्षाविद, समाजसेवी और बाद में राजनीतिज्ञ भी रहे। लेकिन उन्हें जिस वजह से सबसे ज्यादा जाना जाता है वो है स्वतंत्र भारत की प्रथम सरकार (निर्वासित) की स्थापना।

स्वतंत्र भारत की पहली निर्वासित सरकार की स्थापना

राजा महेंद्र प्रताप ने 1915 में ही न सिर्फ काबुल जाकर स्वतंत्र भारत की प्रथम निर्वासित सरकार की स्थापना की थी, बल्कि रूस, जर्मनी, जापान और कई देशों के दौरे कर उन्होने इस सरकार को मान्यता भी दिलवाई थी।
कुछ ऐसा ही वर्ष 1942 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी किया था। बहरहाल, सुभाष चंद्र बोस निर्वासित सरकार के गठन के बाद स्वदेश नहीं लौट सके, लेकिन राजा महेंद्र प्रताप सिंह भारत भी लौटे और आज़ादी के बाद राजनीति में भी सक्रिय हुए।

आज़ादी की लड़ाई में उनका योगदान इतना गहरा और अनोखा था कि ब्रिटिश सरकार ने उनके ख़िलाफ़ पूरे विश्व भर में सर्च वारंट जारी कर रखा था।
लेकिन विडंबना यह है कि स्वतंत्र भारत में लंबे समय तक उनकी भूमिका को उतनी जगह नहीं मिली, जितने के वो हकदार थे।

छात्र जीवन में पड़ी ब्रितानी शासन से लड़ाई की बुनियाद

राजा महेंद्र प्रताप, अपने पिता राजा घनश्याम सिंह के तीसरे पुत्र थे। पिता राजा थे, तो बेटे की परवरिश भी उसी राजसी माहौल में हुई। वृंदावन से प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद वो अलीगढ़ पहुंचे, जहां अलीगढ़ के मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलिज (अब AMU) उन्होने फर्स्ट डिविज़न के साथ एम.ए की परीक्षा पास की।
ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ाई और भारत को आज़ाद कराने का सपना भी इस युवा राजकुमार ने यहीं पढ़ाई के दौरान न सिर्फ देखा, बल्कि उसे पूरा करने के लिए अपना सब कुछ दाँव पर भी लगाया।
एक बार जब वो स्नातक के छात्र थे, तो उन्होने देखा कि एक छात्र की किसी मामूली सी बात पर एक पुलिस वाले से झड़प हो गई। प्रधानाचार्य ने इस पर उसे तीन साल के लिए विद्यालय से निकाल दिया। इसके विरोध में राजा महेन्द्र प्रताप के नेतृत्व में छात्रों ने हड़ताल कर दी। उनके भाषण से नाराज़ होकर उन्हें भी विद्यालय से निकाल दिया गया। इस घटना ने युवा महेंद्र प्रताप के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा।

राजा महेन्द्र प्रताप अपने पिता धनश्याम सिंह के साथ ही अपने टीचर अशरफ अली से भी बहुत प्रभावित थे। अशरफ़ अली भले ही मुस्लिम समुदाय से आते थे, लेकिन हिन्दू धर्म व संस्कृति को लेकर उनकी जानकारी कमाल की थी। महेंद्र प्रताप के मन में भी संस्कृति और समाज के प्रति प्रेम की बुनियाद इन दोनों के सानिध्य में ही पड़ी।

कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने पर टूटा संबंध
महेंद्र प्रताप छात्र ही थे कि उनकी शादी पंजाब के एक प्रतिष्ठित राजवंश में कर दी गई। लेकिन ससुर नहीं चाहते थे कि उनका दामाद राजनीति में जाए या स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा ले। 1906 में जब कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल होने के लिए महेंद्र प्रताप सिंह कोलकाता पहुँचे, तो उनके ससुर ने उनसे पूरी तरह संबंध तोड़ लिये।
महेंद्र प्रताप सिंह कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल ज़रूर हुए थे, लेकिन उस रास्ते को लेकर उनके मन में द्वंद था, वहां से लौट कर वो देश भ्रमण पर निकल पड़े। इस दौरान उनका सामना देशवासियों की दुर्दशा, उनकी लाचारी और अंग्रेजी शासन के अत्याचारों से हुआ।

32 वर्ष विदेशों में रहकर जगाई स्वतंत्रता की अलख

बाद में वो वर्ष 2007 में वो विदेश भी गए, जहां उन्होने तकनीकी ज्ञान प्राप्त करने के लिए दुनिया के प्रमुख शहरों का दौरा किया। इस यात्रा के बाद उनके मन में देश को आजाद करवाने की ललक और तेज हो गई।
वो समझ चुके थे कि अंग्रेजों से लड़ाई सिर्फ कांग्रेस के बताए रास्ते से नहीं लड़ी जा सकती, इसके लिए हथियार भी उठाने होंगे, किताबें भी उठानी होंगी।
विदेश से भारत लौटकर उन्होंने अपनी सम्पत्ति से एक विद्यालय की स्थापना की।

इसके बाद उनकी सबसे महत्वपूर्ण विदेश यात्रा दिसंबर 1914 में हुई, जब वे प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत की स्वतंत्रता के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटाने के उद्देश्य से विदेश गए। इस दौरान वो यूरोप और एशिया के कई देशों में गए, जहाँ उन्होंने जर्मनी, बुल्गारिया, तुर्की और अफगानिस्तान की यात्रा की।
दिसम्बर 1915 में उन्होंने काबुल में अपनी अध्यक्षता में भारत की अस्थायी सरकार की। इसमें मौलाना बरकत अली को प्रधानमंत्री बनाया गया।

अगले 31 साल वे जर्मनी, स्विटरजरलैंड, अफगानिस्तान, तुर्की, यूरोप, अमरीका, चीन, जापान, रूस आदि देशों में घूमकर आजादी की अलख जगाते रहे।
उनके इन प्रयासों से अंग्रेजी शासन इतना नाराज़ हुआ कि उन्हें राजद्रोही घोषित कर उनकी सम्पत्ति तक जब्त कर ली गई। वर्ष 1925 में तिब्बत मिशन पर रवाना हुए, जहां ल्हासा जाकर वो दलाई लामा से मिले।
वे भारत की ही नहीं, तो विश्व के हर देश की स्वाधीनता के पक्षधर थे। वर्ष में उन्होंने न्यूयार्क में नीग्रो लोगों की स्वतंत्रता के समर्थन में भाषण दिया।

सितम्बर 1938 में उन्होंने एक सैनिक बोर्ड का गठन किया, जिसमें वे अध्यक्ष थे, जबकि विख्यात स्वंत्रतता सेनानी रास बिहारी बोस उसके उपाध्यक्ष तथा आनंद मोहन सहाय इसके महामंत्री बने।
द्वितीय विश्व युद्ध में उन्हें बंदी बना लिया गया; पर कुछ नेताओं के प्रयास से वे मुक्त करा लिये गये।

कांग्रेस में नहीं मिली खास तरजीह
आखिरकार 1946 में जब वो भारत लौटे तो सबसे पहले वर्धा में महात्मा गांधी से मिलने गए। लेकिन भारतीय राजनीति में उस दौर की कांग्रेस सरकारों के ज़माने में उन्हें कोई अहम ज़िम्मेदारी निभाने का मौक़ा नहीं मिला। आजादी के बाद भी जवाहर लाल नेहरू की विदेश नीति में जर्मनी और जापान मित्र देश नहीं रहे थे और राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने इन देशों से मदद माँगकर आज़ादी की लड़ाई शुरू की थी, ऐसे में राजा महेंद्र प्रताप सिंह को कांग्रेस में बहुत ज़्यादा तरजीह नहीं मिली।
बाद में उन्होने निर्दलीय ही राजनीति में उतरने का फैसला किया और वर्ष 1957 में मथुरा लोकसभा सीट से चुनाव में भी उतरे जहां उन्होने युवा नेता अटल बिहारी वाजपेई को हराया और संसद पहुंचे।

राजा महेन्द्र प्रताप पंचायती राज को ही वास्तविक स्वाधीनता मानते थे। वे आम आदमी के अधिकारों के समर्थक तथा नौकरशाही को दी गई अत्यधिक शक्तियों के विरोधी थे।वेभारतीय स्वाधीनता सेनानी संघतथाअखिल भारतीय जाट महासभाके भी अध्यक्ष रहे।

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