श्रीनिवास रामानुजन: वह प्रतिभा, जिसने संख्याओं को सोच में बदल दिया

कॉलेज के दिनों में उनके जीवन ने निर्णायक मोड़ लिया, जब उन्होंने प्रोफेसर जॉर्ज शूब्रिज की गणित की एक पुस्तक पढ़ी। इसके बाद वे पूरी तरह गणित को समर्पित हो गए।

श्रीनिवास रामानुजन: वह प्रतिभा, जिसने संख्याओं को सोच में बदल दिया

श्रीनिवास रामानुजन: वह प्रतिभा, जिसने संख्याओं को सोच में बदल दिया

महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को तमिलनाडु के इरोड ज़िले के कुम्भकोणम् में हुआ था। यह वही प्रसिद्ध तीर्थस्थल है, जहाँ कुम्भ की परम्परा के अनुसार हर 12 वर्ष में विशाल मेला लगता है—इसी कारण इस स्थान का नाम कुम्भकोणम् पड़ा।

बचपन में रामानुजन एक सामान्य छात्र थे, लेकिन दसवीं कक्षा के बाद गणित में उनकी प्रतिभा असाधारण रूप से उभरकर सामने आई। स्थिति यह थी कि अध्यापक जब तक श्यामपट पर प्रश्न लिखते, रामानुजन उसका हल पहले ही निकाल लेते थे। उनकी ख्याति ऐसी थी कि बड़ी कक्षाओं के छात्र भी उनसे गणित में सहायता लेने आते थे।

कॉलेज के दिनों में उनके जीवन ने निर्णायक मोड़ लिया, जब उन्होंने प्रोफेसर जॉर्ज शूब्रिज की गणित की एक पुस्तक पढ़ी। इसके बाद वे पूरी तरह गणित को समर्पित हो गए। यही समर्पण उनकी कठिनाई भी बना—गणित के अलावा अन्य विषयों में वे अनुत्तीर्ण हो गए और उनकी छात्रवृत्ति बंद हो गई।

रामानुजन कागज़ों पर दिन-रात नए-नए गणितीय सूत्र लिखा करते थे। वे हर महीने हज़ारों कागज़ केवल गणितीय गणनाओं में खर्च कर देते थे। उनके निधन के बाद इन्हीं सूत्रों को संकलित कर प्रसिद्ध ‘फ्रेयड नोटबुक्स’ का निर्माण किया गया, जो आज भी गणित की अमूल्य धरोहर मानी जाती है।

कुछ समय बाद उन्हें मद्रास बंदरगाह पर क्लर्क की नौकरी मिल गई। लेकिन वहाँ भी उनका मन केवल संख्याओं में ही रमा रहता था। इसी काल में मात्र 17 पृष्ठों का उनका पहला शोध पत्र प्रकाशित हुआ, जो किसी तरह कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय पहुँचा। यह दस्तावेज़ जब विख्यात गणितज्ञ प्रोफेसर जी.एच. हार्डी के हाथ लगा, तो वे रामानुजन की प्रतिभा से चकित रह गए।

रामानुजन ने हार्डी को अपने सौ प्रमेय अलग से भेजे थे। उनकी विलक्षण प्रतिभा को पहचानते हुए हार्डी ने भारत आ रहे प्रोफेसर नेविल से आग्रह किया कि वे हर हाल में रामानुजन को कैम्ब्रिज ले आएँ।

कैम्ब्रिज में प्रवेश के बाद हार्डी ने देखा कि रामानुजन में अद्भुत मौलिक प्रतिभा तो है, लेकिन औपचारिक शिक्षा का अभाव भी है। इसके बावजूद उन्हें विश्वविद्यालय में प्रवेश मिला और वहीं से उन्होंने बी.एससी. उत्तीर्ण की। आगे चलकर उन्हें कैम्ब्रिज की फैलोशिप मिली—यह सम्मान पाने वाले वे पहले भारतीय थे। 1918 में वे रॉयल सोसाइटी के सदस्य बने, यह गौरव पाने वाले वे दूसरे भारतीय थे।

इंग्लैंड की जलवायु और खान-पान उनके स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं था। 1919 में वे भारत लौट आए और एक वर्ष बाद मात्र 32 वर्ष की आयु में 26 अप्रैल 1920 को चेन्नई में उनका देहांत हो गया। उनकी असाधारण प्रतिभा का वर्णन करते हुए उनके प्राध्यापक प्रोफेसर आर्थर बेरी ने लिखा— “मैं श्यामपट पर सूत्र हल कर रहा था और बार-बार रामानुजन को देख रहा था। उसका चेहरा चमक रहा था, वह उत्तेजित था। मेरे संकेत पर वह उठा और उसने बिना कागज़-कलम के, मन में ही हल किए गए सूत्र श्यामपट पर लिख दिए।”प्रोफेसर हार्डी ने 1936 में एक व्याख्यान में रामानुजन को ऐसा योद्धा बताया, जो साधनों के अभाव में भी पूरे यूरोप की बौद्धिक शक्ति से लोहा लेने में सक्षम था। आज भी दुनिया भर के गणितज्ञ उनके अनेक सूत्रों को पूरी तरह समझने और हल करने का प्रयास कर रहे हैं।
श्रीनिवास रामानुजन केवल एक गणितज्ञ नहीं थे—वे मानव बुद्धि की असीम संभावनाओं का प्रतीक थे.

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