हिंदू दीपू दास की इस्लामी भीड़ के हाथों बर्बर हत्या उस्मान हादी हत्याकांड का ‘साइड इफेक्ट’ नहीं है, ये मजहबी कट्टरता को आत्मसात कर चुके बांग्लादेश का नया सच है

बांग्लादेश

बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ मॉबलिंचिंग जैसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं

बांग्लादेश इस समय गहरी अस्थिरता से गुज़र रहा है। दुर्भाग्य से ये अस्थिरता सिर्फ राजनैतिक नहीं है, ये नैतिक और सामाजिक भी है। अलग भाषाई अस्मिता और संस्कृति की बुनियाद पर बने इस मुल्क में जो कुछ भी हो रहा है, वह केवल राजनीतिक उठापटक नहीं है, यह वहां समाज, राज्य और वैश्विक मानवाधिकार व्यवस्था—तीनों की गंभीर विफलता को उजागर करता है।

बांग्लादेश में इस्लामवादी छात्र नेता शरीफ उस्मान हादी की हत्या कर दी गई। ये घटना यकीनन दुर्भाग्यपूर्ण थी, लेकिन इसके बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया नज़र आई है, वो कम से कम उन उद्देश्यों से बिल्कुल विपरीत है- जिनके नाम पर बीते वर्ष बांग्लादेश की कथित क्रांति सामने आई थी।
आनन फ़ानन में इस हत्याकांड को भारत से जोड़ दिया गया, फिर क्या था ? अराजक वर्ग को जैसे लाइसेंस मिल गया कि भारत विरोध के नाम पर पर खुलेआम मीडिया संस्थानों, पत्रकारों और अल्पसंख्यकों को निशाना बना सकें।
जबकि इस हत्याकांड में न तो भारत की इन्वॉलमेंट से जुड़ा कोई सबूत सामने आया है, न किसी आधिकारिक जाँच में इसकी पुष्टि हुई है, सिर्फ ISI के एजेंडे के मुताबिक़ गुस्से की दिशा जानबूझकर बाहर की ओर मोड़ दी गई, ताकि बांग्लादेशी समाज की सड़ांध और सरकार की विफलता से ध्यान हटाया जा सके।

देश के भीतर मौजूद इस्लामवादी गुटों ने इसी रास्ते को चुना। इससे साफ हो गया कि बांग्लादेश आज किस रास्ते पर है और वहां जनभावनाओं को कितनी आसानी से भड़काया और मोड़ा जा सकता है।

लेकिन इसी बीच एक और ख़बर सामने आई जिसे हादी हत्याकांड के उबाल में दबा दिया गया- वो थी एक हिंदू युवक की ईशनिंदा के आरोप में सार्वजनिक हत्या।

ढाका से क़रीब 120 किलोमीटर की दूरी पर मैमनसिंह में एक हिंदू युवक दीपू दास के साथ बेहरमी की हदें पार कर दी गईं। 25 वर्ष के दीपू दास एक कपड़ा फैक्ट्री में काम करते थे और अपने परिवार के इकलौते कमाने वाले थे। उन पर मज़हब के अपमान का मनगढ़ंत आरोप लगाया गया और फिर जैसा कि ईशनिंदा के दूसरे अमानवीय मामलों का एक पैटर्न बन चुका है- भीड़ पहुंची और दीपू दास की पिटाई शुरू कर दी गई। पीट-पीट कर उन्हें अधमरा कर दिया गया। हत्यारों का मन इससे भी नहीं भरा तो उन्होने उसे पूरी तरह निवस्त्र कर एक पेड़ से फंदे में लटका दिया और फिर सैकड़ों लोगों के सामने उन्हें पेट्रोल से नहला कर सरेआम जला दिया गया।
इस दौरान वहां सैकड़ों लोग मौजूद थे, लेकिन किसी की आंखों में न तो क़ानून का डर था और न ही अपने ईश्वर का। उल्टा भीड़ इस पाशविक कृत्य का जश्न मनाती नज़र आई, जैसे ये कोई बेहद पवित्र अनुष्ठान हो और हर कोई उसमें अपने स्तर पर सम्मिलित होना चाहता हो। हत्यारे बर्बरता और अमानवीयता की चरम सीमा पार कर रहे थे और वहां मौजूद धर्मांध भीड़ का स्वर उसी अनुपात में ऊंचा होता जा रहा था।
यही इस हत्याकांड का सबसे दुखद पहलू है, जहां समाज का एक हिस्सा ही इस जघन्य अपराध का न सिर्फ साक्षी बन रहा है, बल्कि उसे सेलेब्रेट भी कर रहा है, वो भी मज़हब और मजहबी दायित्व के नाम पर। लेकिन दुर्भाग्य से बांग्लादेशी समाज में फैलती कट्टरता और मजहबी सड़ांध को दर्शाने वाली इस ख़बर को उस्मान हादी की मृत्यु से कुछ ऐसे जोड़ दिया गया, जैसे ये सिर्फ एक बड़ी घटना का मामूली सा कोलेट्रल डैमेज हो।

यही नहीं इसके लिए भी भारत को ही ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश की गई।
कहा गया कि भारत अगर शेख हसीना को शरण नहीं देता तो ऐसा नहीं होता। भारत में SIR हो रहा है, घुसपैठियों को निकाला जा रहा है और दीपू जैसे गरीब बांग्लादेशी इसी का खामिजाया भुगत रहे हैं।
यानी जो भीड़ एक काफ़िर युवक की हत्या को एक पवित्र अनुष्ठान मान कर उसका हिस्सा बन रही है, जश्न मना रही हो, जैसे कि वो उसका नैतिक और मजहबी दायित्व हो, लेकिन जब बात जवाबदेही की आती है तो वही समाज और उसके पैरोकार विक्टिम कार्ड निकालते हुए जिम्मेदारी भारत के ऊपर डाल देते हैं।

हादी, जो एक इस्लामवादी और कट्टर विचारधारा का प्रतिनिधि था, उसके लिए राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया। राज्य की पूरी मशीनरी ने प्रदर्शनकारियों के सामने सिर झुका दिया।
कई मौकों पर तो वो दंगाइयों के पीछे हाथ बांधे खड़ी नजर आई। लेकिन जिस हिंदू युवक को पीट-पीटकर जिंदा जला दिया गया, उसके लिए सन्नाटा छाया रहा। शुरुआती दो दिनों तक तो पुलिस ने कोई मुकदमा तक दर्ज नहीं किया और न ही कोई गिरफ्तारी हुई जबकि प्रत्यक्ष वीडियो सबूत मौजूद थे।

भारत को उस आंतरिक अराजकता के लिए दोषी ठहराया जा रहा है, जिसे उसने पैदा ही नहीं किया। हादी की मौत में भारत की कोई भूमिका नहीं थी। फिर भी भारत-विरोधी भावनाएं जानबूझकर गढ़ी गईं। और यही गुस्सा बाद में देश के भीतर अल्पसंख्यकों पर टूट पड़ा।
वैसे यह पैटर्न नया नहीं है।
यूनुस-नेतृत्व वाली व्यवस्था और उसके सहयोगियों की भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठते हैं। राजनीतिक अस्थिरता कुछ समूहों को प्रासंगिक बनाए रखती है और कट्टर ताकतों को “जनाक्रोश” की आड़ में काम करने का अवसर देती है।
इन सबके बीच असली पीड़ित आम लोग हैं—खासकर अल्पसंख्यक।

मानवाधिकार के ठेकेदारों का पाखंड
अब वैश्विक मानवाधिकार रक्षक कहां हैं? जो रोज़ लोकतंत्र और आज़ादी पर भाषण देते हैं, उनकी आवाज़ आज क्यों खामोश है? क्या उन्होंने वह भयावह वीडियो नहीं देखा? क्या उन्हें कोई गुस्सा नहीं आया?
अमेरिका की तरफ़ हादी की मृत्यु पर तो अफ़सोस जताया जाता है, लेकिन समाज को झकझोर देने वाले इस पैशाचिक कृत्य पर चुप्पी साध ली जाती है, ज़ाहिर ये यह चुप्पी पाखंड और सेलेक्टिव एप्रोच को उजागर करती है।
कभी अपनी सांस्कृतिक विरासत, बोली, भाषा और अस्मिता के लिए मजहबी कट्टरपंथ से लड़कर बना बांग्लादेश एक ऐसे समाज में बदल रहा है- जो अपना नैतिक दिशासूचक खो चुका है।
आज बांग्लादेश न सिर्फ राजनैतिक रूप से बल्कि सामाजिक, नैतिक रूप से भी कमजोर नजर आ रही है। ढाका से लेकर कॉक्सबाजार तक पाकिस्तान जैसी मौकापरस्त मजहबी, जिहादी ताकतों का दबदबा है।
मौजूदा घटनाक्रम ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि बांग्लादेश की यूनुस सरकार सभी नागरिकों की समान सुरक्षा में असमर्थ है और मानवाधिकारों के वैश्विक ठेकेदार एक बड़े संकट को दरकिनार कर सिर्फ अपनी सुविधा के लिहाज से प्रतिक्रिया दे रहे हैं।

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