मोदी के एक फैसले ने उत्तर प्रदेश चुनाव की दिशा बदल दी

विमुद्रीकरण

उत्तर प्रदेश का राजनैतिक माहौल आगामी चुनावों से पहले तल्ख़ हुआ जा रहा है. जहाँ पहले समाजवादी पार्टी के आंतरिक भेदभाव की पटकथा अपनी पराकाष्ठा पर थी, अब प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के विमुद्रीकरण के ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद आगामी चुनावों मे एक अनसुना अनकहा मोड़ आ गया है !

राजतंत्र में काले धन की महत्ता और चुनावों में वोटों की खरीद एक ऐसा पहलू है जो जगजाहिर होने के बाद भी अपनी लज्जा बचा ही लेता है !

सीटों का आवंटन हो या चुनाव का प्रचार, लाखों की भीड़ हो या बाहुबल का उपयोग; ये सारी गोपियाँ इस श्याम धन के सिवा किसी के बस में नहीं आतीं, सिलसिलेवार अगर कुछ मुद्दों पे गौर फरमाया जाए तो ये नया चुनावी समीकरण समझने मे आसानी होगी :

१. जहाँ पार्टियाँ एक दूसरे पर हमेशा से ही सीटों के आवंटन में ख़रीदफ़रोख़्त का लांछन आदिकाल से लगाती आ रही हैं, वास्तव में ये कुरीति हर पार्टी मे व्याप्त है !

अब गौरतलब है की भाजपा ने विमुद्रीकरण करके अपनी और अपने उम्मीदवारो की बेदाग छवि का प्रमाणपत्र तो दे दिया, समस्या मे वो उम्मीदवार हैं जिन्होने बाकी पार्टियों के तथाकथित सीटों के स्वयंवर में हिस्सा भी ले लिया होगा और विजयश्री भी हासिल कर ली होगी.

जिनका अबतक का रण-कौशल काले धन पर निर्भर था, और जिनकी नारायाणी सेना “आज नकद, कल उधार” का परचम उँचा किए शस्त्र डाले बैठी होगी !

बसपा की छवि हमेशा से ही सीटों के आवंटन को लेकर धूल धूसरित रही है, और अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर यह मान लिया जाए की इस विमुद्रीकरण का सबसे ज़्यादा असर बसपा की चुनावी महत्वाकानच्छाओ को ही पड़ेगा ! कॉंग्रेस वैसे तो शुरू से ही सत्ता की होड़ से बाहर है इसलिए यह विमुद्रीकरण शायद अब उन्हे अपनी मर्यादा बचाने की होड़ मे ले आएगा और ऐसा माना जा सकता है की सीटों के आवंटन के माध्यम को धक्का लगने से पार्टी कोष को भी अवश्यंभावी छति होगी ! समाजवादी पार्टी, जो अभी तक तथाकथित वंशवाद के दंश का ढोंग रचा कर बैठी थी; को अब शायद अपने बाहुबली सांसदों और उनके बाहुबल से वंचित ना होना पड़े !

२. चुनावों में मतदाताओं के मत की ख़रीदफ़रोख़्त की गुंजाइश तो अब भी बचती है, पर आंशिक !

जो मतदाता कल तक फर्जी मत डालते दिखते थे, नकद नारायण के अभाव में अब अपने मताधिकार का ही उपयोग करलें तो बड़ी बात है !

इन मतदाताओं को वैसे धर्म, कर्म, जाति, राष्ट्र, विकास जैसे अनेकादिक चुनावी जुमलों से कोई लेना देना नहीं होता और इनका मत केवल धन से अर्जित किया जा सकता है !

संभावना तो यह भी बनती है की ग्रामीण इलाक़ों में मतदान में एकाएक गिरावट आ जाए और वर्षों से चुनाव आते ही उत्साहित होने वाली जनता उदासीन सी रोजमर्रा के कामों मे लगी रहे !

३. काले धन के अभाव में उम्मीदवार भी अपने चुनाव प्रचार का बोझ खुद उठाने में असमर्थ होकर अपने अपने पार्टी हाई-कमान की ओर रुख़ करेंगे !

पार्टी फंड और उसका वितरण जो आदिकाल की बातें थीं, अब शायद इस चुनाव में एक अहम और सामरिक भूमिका में दिखाई दें !

सपा जहाँ इसका एक बड़ा हिस्सा मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव के महिमामंडन में लगाएगी, कॉंग्रेस को अभी भी श्री राहुल गाँधी की “आलू की फॅक्टरी” की छतिपूर्ति करनी है !

बसपा सुप्रिमो सुश्री मायावती और उनकी पार्टी के लिए ये निर्णय निर्णायक होगा ! जहाँ एक तरफ दलितों का उनसे पिछले चुनाव में ही मोह-भंग हो गया था, श्री अखिलेश यादव की छवि और प्रादेशिक राजनीति मे उनका कद सुश्री मायावती से कहीं भी कॅम-कर नहीं आँका जा सकता !

बसपा की भरपूर कोशिश होगी उम्मीदवारों के चुनाव प्रचार में फंड केंद्रित करना और हर-संभव अपनी बची हुई ज़मीन को ना ही भाजपा और ना ही सपा को हथियाने देना !

मोदी सरकार के विमुद्रीकरण के निर्णय ने भाजपा को इस चुनाव में ना सिर्फ़ सामरिक बढ़त दी है, बल्कि कई बाहुबालिओं से उनके असंवैधानिक अस्त्र-शस्त्र-कवच-कुंडल छीन कर उन्हे रण-भूमि का सामना करने के साहस से भी वंचित कर दिया है !

दशकों बाद शायद इस चुनाव में ना सिर्फ़ प्रदेश की राजनीति से बाहुबल और अराजकता का अंत लगभग निश्चित है, भाजपा सत्ता में वापस आने की भी प्रबल दावेदार बन गई है !

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