ज़ायरा वसीम केस में कहा मर गए असहिष्णुता के पैरोकार?

ज़ायरा वसीम असहिष्णुता

अगर असहिष्णुता ब्रिगेड का दोगलापन जानना हो तो इससे बढ़िया कोई समय नहीं हो सकता। मोटी ऐनक के पीछे छिपी, मेढकनुमा आँखों वाले इन बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रियाएं कितनी पक्षपाती हैं, इनकी दलीलें कितनी खोखली हैं, इनके आदर्श कितने नकली और इनकी मंशा कितनी जहरीली है, इसको समझने का समय भी यही है।

तकरीबन डेढ़ साल पहले गोमांस के नाम पे हुई अख़लाक़ की निर्मम हत्या पर इन्होने पूरे देश पर असहिष्णुता का ठप्पा लगा दिया था।

अख़लाक़ को क्यों मारा गया ये आज भी शोध का विषय है। शायद पारिवारिक तनाव था या फिर प्रेम प्रसंग, धार्मिक उन्माद भी हो सकता है लेकिन इतना सोचने का समय किसके पास था। कवितायें लिखी गयी, पोस्टरबाजी हुई, मीडिया को जंग का मैदान बना दिया गया, सोशल मीडिया को पहलवानी का अखाड़ा बना दिया गया। तलवे चाट कर या पैसे से खरीदे हुए पुरस्कार लौटा दिए गए। और जब किसी ने पूछा की अरे भाई आखिर हुआ क्या है तो कह दिया गया – मोदी के राज में असहिष्णुता बढ़ी है।

कहा गया की:
इस देश के मुसलमान बेचारे हैं
असहिष्णुता

इस देश के हिन्दू हत्यारे हैं
असहिष्णुता

मोदी के राज में दम घुटता है
असहिष्णुता

गौरक्षकों को पकड़ो
असहिष्णुता

अख़लाक़ को इन्साफ दिलाओ
असहिष्णुता

जब मोहम्मद शमी की बेग़म को मज़हबी मेंढको ने तन ढकने की राय दी, भद्दी भद्दी गालियाँ दी गयी, औरत से काला शामियाना बनने की सलाह दी तब ये सारे बुद्धिजीवी कम्बल तान के सो गए, बोले अभी काम में फंसे हैं, फुर्सत मिलते ही प्रतिक्रिया देंगे।

जब मोहम्मद कैफ ने सूर्य नमस्कार की तसवीरें लगायी तो मज़हबी मेंढको की फौज ने उन्हें काफ़िर घोषित कर दिया। भद्दी गालियों से लेकर धमकियां तक मिली, बुद्धिजीवी इन्टरनेट का कनेक्शन काट कर बैठे रहे।

मज़हबी मेंढको की सबसे ताज़ातरीन शिकार है सोलह साल की ज़ायरा वसीम, जिसने दंगल में सबको अपने अभिनय का लोहा मनवाया।

ज़ायरा वसीम की गलती बस इतनी थी की वो जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती से मिलने चली गयी। वो महबूबा मुफ़्ती जिसने कश्मीरी मुसलमान होते हुए भी भारतीय जनता पार्टी जैसे “हिंदूवादी” पार्टी से हाथ मिलाया। इसलिए ज़ायरा वसीम को डराया गया, धमकाया गया, गन्दी गन्दी गालियाँ दी गयी।

और बुद्धिजीवी? वो दूर, एकाकी, चिंतामग्न बैठे रहे, अगले अख़लाक़ की इंतज़ार में। जी हाँ देश में असहिष्णुता में नहीं आ पायी, या आई तो उसमे वो पहले वाली बात नहीं थी।

मीडिया वालो ने बढ़ चढ़ कर खबर छापी कहा ज़ायरा वसीम को ट्रोल कर दिया गया। ट्रोल का असली मतलब क्या होता ये है मुझे नहीं पता पर इसके सामान्य उपयोग से ये पता चलता है की ट्रोलिंग फूहड़ मज़ाक को कहते हैं।

क्या जान से मारने की धमकी फूहड़ मजाक है?
क्या एक औरत का चरित्र-हनन करना फूहड़ मज़ाक है?
क्या डराना धमकाना फूहड़ मजाक है?
क्या किसी को उसके मज़हब का कलंक बताना फूहड़ मजाक है?
क्या किसी से माफीनामा लिखवाना फूहड़ मजाक है?

मेरे नज़र में तो ये आतंकवाद है, एक अलग तरह का लेकिन आतंकवाद है। आतंकवाद ट्रोलिंग कबसे बन गया? शायद बुद्धिजीवी ऐसे ही सोंचते हैं।

वो बुद्धिजीवी जिन्हें ना मालदा की हिंसा दिखती है, ना केरल में भाजपा समर्थको की हत्या, ना कैराना का पलायन। जिन्हें धूलागढ़ मनगढ़ंत कहानी लगती है।

इन्हें दिखता है तो बस अख़लाक़ और दो हज़ार दो।

मेरा ये लेख उन बुद्धिजीवियों के लिए नहीं है, ना है उनके अनन्य उपासकों के लिए। मेरा ये लेख है उन वैशाखनंदनों के लिए जो ऐसे बुद्धिजीवियों के बहकावे में आते हैं। ये बुद्धिजीवी नहीं परजीवी हैं पैरासाइट, जो हमारी देश में चिपक कर उसी का खून चूसते हैं। ये बुद्धिजीवियों नहीं बौद्धिक आतंकवादी हैं जो बौद्धिक फिदायीन दस्ते बनाते हैं और छोड़ देते हैं वैशाखनंदनों के सामूहिक बौद्धिक हत्या के लिए।

Exit mobile version