जिस देश में 80% जनता कृषक हो वहाँ तो खेती की दशा कितनी उन्नत होनी चाहिए थी? पर खेती-किसानी की क्या दशा है, ये किसी से छुपी नही है। कोई भी ठोस या आमूलचूल परिवर्तन अबतक भारतीय खेती में नही किया गया। हरित क्रांति का भी सीमित फ़ायदा पंजाब, हरियाणा के ही किसानों को मिला वो भी बड़ी जोत वाले किसानों को। हालात ये हैं कि किसान कम होता जा रहा है और मज़दूर बढ़ता जा रहा है। ये जो हम यूपी-बिहार से दिल्ली-मुंबई आने वाली ट्रेनों में भीड़ देखते हैं, वो भीड़ जिसको देख हम नाक-भौंह सिकोड़ लेते हैं। वो जिन्हें जाहिल और गँवार कह कर घृणा के अस्थायी भाव का संचार हमारे अंदर हो जाता है ना, ये सब कभी छोटे-छोटे किसान ही हुआ करते थे। पर हमारी सरकारों और नीति-निर्माताओं की अदूरदर्शिता का परिणाम है जो आज इनकी ये हालत हुई है।
किसान की दुर्दशा भारत का इतिहास रही है। और सरकार की उपेक्षा की ये कहानी 1947 या 1757 से शुरू नही हुई, बल्कि ये तो 13वीं शताब्दी से ही भारत के काश्तकारों को उत्पीड़न झेलना पड़ा।
जबसे दिल्ली की गद्दी में ग़ुलाम वंश आसीन हुआ तभी से भारतीय किसानों का अंधयुग प्रारंभ हो गया। मूलतः ये विदेशी आक्रमणकारी ऐसे इलाक़ों से आए थे जहाँ खेती का कोई ख़ास योगदान वहाँ की अर्थव्यवस्था पर नही होता था।
युद्ध, लूट-मार, राजनीतिक अस्थिरता ही मध्य-पूर्व की जीवन-शैली हुआ करती थी। खेती और उपज की उपयोगिता भले ही उन शासकों को ज्ञात रही। पर कृषि-कार्यों में पड़ने वाली ज़रूरतों से वो अनभिज्ञ ही थे। उस पर भारतीय जन-समुदाय से ग़ुलाम-वंश और उसके उत्तराधिकारी वंशों का लगाव केवल उत्पीड़न तक ही सीमित रहा। हालाँकि इल्तुमिश ने इक्ता और ख़ालिसा में ज़मीन को बाँटा और भूमी की पैमाईश की व्यवस्था की। पर वो सभी प्रयोजन अधिकाधिक लगान वसूल कर राजसी शानो-शौक़त बढ़ा दरबार को फ़ारस के दरबार की तरह भव्य बनाने के लिए थे। लड़ाईयों के दौरान खड़ी फ़सल काट देने के फ़रमान सुनाए जाते थे, और मुआवज़ा तो दूर की कौड़ी था। हालाँकि अलाउद्दीन ख़िलजी ने कुछ सुधार ज़रूर किए पर वो भी सैन्य ज़रूरतों की पूर्ति के लिए। चूँकि सुल्तान से लेकर उसके सिपहसलार गैरिसन शहरों में रहा करते थे, जनता से कोई संवाद नही अतः खेती-किसानी के लिए कुछ परिवर्तन नही हो सका।
उसके बाद 16वीं शताब्दी से भारत के भाग्यविधाता बने मुग़ल वही मुग़ल जिन्होंने हुमायूँ के मक़बरे से लेकर ताजमहल जैसे नायाब वास्तुकला के नमूने खड़े किए। और एक वंश के रूप में सबसे लम्बे समय तक भारत पर शासन किया। बस फ़र्क़ इतना हुआ कि इक्ते की जगह मनसब ने ले ली पर काश्तकारों की हालत सुधारने के लिए कोई प्रयास नही किया गया। शेरशाह सूरी का योगदान ज़रूर रहा कि खड़ी फ़सल काटना लगभग बंद हो गया और भूमी पर कर उसकी उत्पादक क्षमता के अनुरूप लगाया जाने लगा। खेती की फ़िक्र केवल मालवाजिब पाने के लिए थे। टोडरमल हो या मुज़फ्फर खाँ सभी की फ़िक्र राजस्व बढ़ाने को लेकर थी। खेती की कितनी चिंता मुग़ल बादशाहों को रही की पहली नहर की खुदाई महान सम्राट अकबर के काल में नही बल्कि शाहजहाँ के काल में हुई। मुग़लकाल के प्रशासन और सैन्य कुशलता की चाहे कितनी भी तारीफ़ भारतीय विद्वान(वामपंथी विद्वान) करें पर अगर उनसे कृषि के लिए मुग़लई योगदान के बारे में उनसे पूछ लीजिए तो यक़ीनन उनको सांप सूंघ जाएगा।
देसी राजे-रजवाड़ों की भी स्तिथि कमोबेश यही रही। वो अपनी लड़ाईयों में ही इतने व्यस्त रहे कि समय ही नही मिला, हालाँकि चोल और उसके बाद मलिक अंबर और मध्य में शिवा जी ने ज़रूर खेती के लिए नहर, ऋण आदि की व्यवस्था की परंतु 1679 में विस्तृत भू निरीक्षण के अगले वर्ष ही शिवाजी महाराज का देहांत हो गया।
उसके बाद शुरू हुआ कम्पनीराज 1757 में प्लासी और 1761 में पानीपत के तीसरे युद्ध ने कम्पनी को भारत के शासन पर पकड़ मज़बूत कर दी। दिल्ली अब नाममात्र रही गयी असली खेल तो कम्पनी बहादुर खेल रही थी। ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नही होगा कि चाय के बाग़ान हो या, नील की खेती, या फिर कपास के खेत सभी में भारतीय किसानों के ख़ून से सिंचाई की जाती थी। फिर पदार्पण हुआ महलवाड़ी, रैयतवाड़ी और ज़मींदारी प्रथा का। अब इनके बारे में मैं क्या ही लिखूँ, मुंशी प्रेमचंद की कोई एक कहानी पढ़ लीजिएगा | गोरे तो गोरे काले अंग्रेज़ों ने भी कोई कसर नही छोड़ी किसानों का ख़ून चूसने में। हालाँकि अंग्रेज़ी हुकूमत ने नहरें भी बनायी और आधुनिक यंत्र-तंत्र से भी भारत को परिचित करवाया पर सिर्फ़ अधिकाधिक लगान वसूलने के लिए। चंपारण हो या बारदोली, नील के बाग़ान हो या पाबना, तेभागा हो या तेलंगाना सभी जगह किसानों ने यथा संभव विद्रोह किया। भारत में ब्रिटिश शासन का इतिहास किसानों के ख़ून से लिखा गया।
दूसरों से क्या ही उम्मीद की जाती थे तो आख़िर विदेशी ही ना। पर 1947 में भारतीय सत्ता मिली ब्रिटिश हुकूमत के पसंदीदा ब्लू आईं बोय नेहरु जी को। अब इसे आप दुर्भाग्य ही कहिए की किसानों के देश की सत्ता बारदोली जैसे किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाले सरदार की जगह अंग्रेज़ी तौर-तरीक़े से पले-बढ़े चाचा नेहरु के हाथ आयी।
ख़ैर नेहरु जी रूस से सीख कर पंचवर्षीय योजना भारत में लेकर आए। पहली पंचवर्षीय योजना लघु-उद्योग और कृषि को समर्पित थी। जिसका उद्देश्य खाद्यान्नों के मामले में कम से कम सम्भव अवधि में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना था। पर दूसरी पंचवर्षीय योजना पिछली के उलट भारी उद्योग और औद्योगिक उत्पादन के लिए थी। तो क्या पहली पंचवर्षीय योजना ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति करली थी? जवाब अगर हाँ तो फिर ठीक है, और अगर नही है तो फिर ऐसा क्या हुआ कि चाचा नेहरु का पहली पंचवर्षीय योजना के बाद ही गांधी जी के कृषि और कुटीर उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था से विश्वास उठ गया। नेहरु जी एकतरफ़ ख़ुद को वैश्विक स्तर का नेता बनाने में जुटे हुए थे इधर हम अपनी ज़मीन, जवान खो रहे थे और कृषि से नेहरु जी का कितना लगाव था कि 65 में ही शास्त्री जी को देश से व्रत रखने की अपील करनी पड़ी।
और उसके बाद की सरकारों का कृषि के लिए योगदान हमको पता ही है। कृषि के उद्धार के नाम पर बस क़र्ज़माफ़ी ही एक रास्ता हमारे राजनेताओं को पता है। किसान को क़र्ज़माफ़ी तक आने की नौबत क्यूँ आती है ये सोचने की ज़हमत किसी महापुरुष ने अब तक नही उठायी। इंदिरा जी को आपातकाल, नसबंदी, रियासतों से फ़ुर्सत नही मिली, और राजीव जी कम्प्यूटर उठा कर विदेश से भारत में ला रहे थे। ग़ैर-कांग्रेसी सरकारें अपने आपसी झगड़े से ही बाहर नही आ पाती।
इतना सब लिखने का प्रयोजन ये था कि कुछ दिनों से देख-पढ़ रहा हूँ तमिलनाड़ू से आए हमारे किसान अनशन पर बैठे हैं। साथ में अपने मृत साथियों के कंकाल भी लाए हैं। कभी सड़क पर डाल कर चावल-सांभर खा कर रोष प्रकट करते हैं तो कभी सांप खाते हैं तो कभी चूहे। कभी मोदी का मुखौटा पहन एक-दूसरे को कोड़े मारते हैं। आज तो देख के मैं चकित रह गया कि वो स्वमूत्र पीने को विवश हो गए ताकि सरकार उनकी बात सुन सके। वामपंथी और लिबरल जमात को एक और मौक़ा मिल गया है केंद्र सरकार को घेरने का। भारतीय वामपंथियों के साथ सबसे बड़ी दिक़्क़त ये हैं कि इनके हित केवल समस्याएँ गिनवाने से जुड़े हैं, उनके समाधान से नही। वरना कम से कम इतने सालों के वामपंथी शासन के बाद पश्चिम बंगाल भारत में सबसे ज़्यादा मज़दूर निर्यात करने वाला राज्य ना होता। अगर मुझ जैसा एक लड़का इतना विश्लेषण कर सकता है तो क्या कोई वामपंथी प्रबुद्ध वर्ग का विद्वान ये नही सोच पाया।
ख़ैर अपना मुद्दा ये वामपंथी जमात नही बल्कि वो तमिल किसान हैं जो जंतर-मंतर पर बैठे हैं। मुझे वास्तव में नही पता उनकी असल परेशानी क्या है और भाजपा तमिलनाड़ू में कभी विपक्ष में भी नही रही, सरकार में आना तो दूर की बात है। केंद्र में सरकार बने भी तीन साल ही हुए हैं। ये भी तर्कसंगत नही कि सूखे के लिए सरकार ज़िम्मेदार हो। हाँ हो सकता है ये किसान उपेक्षित महसूस कर रहे हों, ये भी हो सकता है कि प्रदर्शन राजनीति से प्रेरित प्रदर्शन हो, हो सकता है उनकी माँगे तर्कसम्मत हो पर कुछ सवाल हैं जिनके जवाब तो मिलना दूर बल्कि ख़ुद सवाल ही सवालों के घेरे में है, आइए थोड़ी सरसरी नज़र डालते हैं,
1- अगर माँग सूखे की है तो इसमें केंद्र सरकार का क्या दोष? क्या दिल्ली से सरकार बारिश होने या ना होने के निर्देश देती है?
2- अगर माँग सूखे की समस्या के निदान के लिए समुचित उपाय ना करने का है तो यह केंद्र का मुद्दा नही है।
3- अगर विरोध ऋण माफ़ी को लेकर है तो वह भी केंद्र के अधिकार क्षेत्र से बाहर का विषय है।
4- ऐसा क्या है कि तमिल के किसान तमिल नेताओं से बराबर संपर्क में रहते हुए भी उनके सामने अपनी माँग नही रख सकते या रखना नही चाहते? संदेह का विषय है
5- बाक़ी ये वाला पोइंट ऑब्ज़र्वेशन है, कि एक सा ड्रेस कोड, संयमित व्यवहार, नपा-तुला कोर्डिंनेशन, विरोध के लिए चुना स्थान, संगठित आयोजन इस विरोध को एक सुनियोजित आयोजन की तरह देखने पर मजबूर करता है।
हाँ एक और ग़ौर करने वाली बात इस विरोध के लिए मुखर आवाज़ उठाने वाले किसानों की इस दशा का जिम्मेदार मोदी को मानकर सरकार सरकार को संवैधानिक मूल्यों का हत्यारा भी बता रहे हैं तो मैं जिनको नही पता उनको बता देता हूँ, जिनको पता है उनको याद दिला देता हूँ, कि संघीय ढाँचे को बनाए रखने के लिए तीन सूचियाँ होती हैं
1 – संघ सूची 2 – राज्य सूची 3 – समवर्ती सूची।
कृषि और सिंचाई दोनो ही राज्य सूची के विषय हैं। केंद्र सरकार का नही, हाल ही में उत्तर प्रदेश के ऋण माफ़ करने के सवाल पर केंद्र की तरफ़ से स्पष्ट किया गया था कि यह विषय केंद्र सरकार का नही है। तमिलनाडू में भाजपा ना इस समय सरकार में है और ना पूर्व में कभी रही है। और तो और तमिलनाडु का कोई दल भी एन॰डी॰ए॰ का घटक नही है। ऐसे में दोष केंद्र सरकार पर डालना ?
पर कुछ भी हो हैं तो वो किसान आंदोलन ही, हैं तो हमारे ही देश के किसान ना, और हो सकता कि वास्तव में अपनी बात सरकार तक पहुँचाने को विवश हों। तो सरकार से एक नागरिक होने के नाते आग्रह तो कर ही सकते हैं कि सरकार की तरफ़ से एक शिष्टमंडल उन किसानों की समस्या सुनने और समझने के लिए भेजा जाए। क्या इतना समय प्रधानमंत्री नही निकाल पा रहे। मेन्स्ट्रीम मीडिया से किसी ख़बर के तथ्यों की पड़ताल की उम्मीद रखना घोषित मूर्खता है। और हाँ अगर वास्तव में देश के किसानों को पेशाब पीना पड़ रहा है तो ये देश का दुर्भाग्य है।
“जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त,
शाह-राहों पे ग़रीबों का लहू बहता है।
आग सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ,
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है।”- फ़ैज़