यूँ तो मैं दिल्ली ग्रैजूएशन के दौरान तीन साल रहा पर कभी कहीं घूमने नही गया। बस लालक़िले के सामने से लगभग हर हफ़्ते निकलना होता था, पर कभी जाने का मन नही हुआ। लेकिन एक बार मौक़ा लगा ये बात 2013 की है। श्रीमति शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री थी, गणतंत्र दिवस के पहले दिल्ली सरकार के कला एवं संस्कृति विभाग की तरफ़ से लालक़िले में एक मुशायरा था। बड़े नामचीन शायर आने वाले थे। अब हमको भी थोड़ा सा शौक़ था बड़े शायरों को सुनने का तो हमने भी उर्दू अकादमी से पास का जुगाड़ किया और पहुँच गए। एक तो हम कभी लालक़िले के अंदर नही गए थे ऊपर से प्रोग्राम रात का था तो थोड़ा इक्सायटेड टाइप की फ़ीलिंग थी।
तो भैया हम थे और एक मित्र थे जो अब मित्र नही हैं। वी॰आई॰पी॰ वाला पास था तो आगे की सीट भी मिल गई। मंच पर श्रीमति शीला दीक्षित, प्रोफ़ेसर किरण वालिया, जनाब हारुन यूसुफ़, डॉक्टर अशोक कुमार वालिया, जनाब शोएब इक़बाल, मौजूद थे। चूँकि इलाक़ा शाहजहानाबाद वाला था और उर्दू से जुड़ा कार्यक्रम था तो ज्यादातर भीड़ मुस्लिम ही थी। चूँकि कार्यक्रम एक सरकारी कार्यक्रम था तो शुरुआत हुई राष्ट्रगान से। अब मुझे देख के ताज्जुब हुआ कि आधे से ज्यादा जनता सीट पर बैठी हुई थी, और खड़े होकर भी उस मुद्रा में नही खड़े थे जोकि राष्ट्रगान की आपेक्षित मुद्रा होती है। और जो बैठे हुए थे वो खड़े हुए लोगों को जिस हिक़ारत जिस भावना से देख रहे थे वो मुझे अब भी याद है। मुझे बड़ी हैरानी हुई क्यूँकि मेरा इस तरह का पहला अनुभव था कि राष्ट्रगान के समय कोई खड़ा ना हो। वरना मुझे घर में सबसे पहली सिखायी बातों में से एक राष्ट्र और राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना था। राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम पर तो विवाद सुना था पर राष्ट्रगान का अनादर पहली बार देखा वो भी जब मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के तीन कैबिनेट मंत्री वहाँ मौजूद हो। वो पहली और आख़िरी बार था जब मुझे किसी समुदाय के इस व्यवहार पर हैरानी हुई।
लब्बोलुआब ये है कि मेरठ नगर-निगम में हंगामा चल रहा है वन्दे मातरम गाने और ना गाने को लेकर। भाजपा पार्षद और मेयर अड़े हुए हैं कि आपको वन्दे मातरम गाना होगा वहीं सामने वाले ना गाने की क़सम खा कर बैठे हैं। अब कुछ कहना है कि वन्दे मातरम ज़रूरी नही है। कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट के सिनमाघरों में राष्ट्रगान को अनिवार्य करने पर भी ख़ूब छाती-कूटी गयी थी। अपना आँखों देखा तजुर्बा आपको बता ही चुका हूँ।
और इन सब में ग़लती हमारी ही है उन्होंने वन्दे मातरम का विरोध उसकी कुछ पंक्तियों का हवाला देकर किया हमने वो पंक्तिया ही हटा दी। उनकी हिम्मत बढ़ी फिर उन्होंने पूरे वन्दे मातरम का विरोध किया और तर्क दिया ग़ैर-इस्लामिक है। आप माने या ना माने वन्दे मातरम हाशिए पर धकेल दिया गया। फिर हिम्मत बढ़ी और अब बात आ गई है राष्ट्रगान तक। मुस्लिम पर्सनल लॉ और शरीयत के हवाले से संविधान को चुनौती दे ही रहे हैं। कश्मीर के हवाले से नक़्शे का सम्मान कितना करते हैं सब जानते ही हैं। आप पर्दा डालते रहिए बात आगे तिरंगे पर भी आएगी, आप के वजूद पर भी आएगी।
समझ जाइए विरोध वन्दे मातरम का नही है, विरोध वन्दे मातरम की उन पंक्तियों का भी नही है जिसमें हिंदू देवी का नाम आता है, विरोध उस संकल्पना उस पुण्य-भूमि का है जिसे हमारे पुरख़ो ने सींचा है। विरोध उस संस्कृति का है जो भारत है।
आप बच कर भागते रहिए वो भगाते रहेंगे, आप वन्दे मातरम से भागे, वो राष्ट्रगान पर आ गये, आप अफ़ग़ानिस्तान से भागे वो सिंध आ गए, सिंध से भाग कर आए वो लाहौर आ गए, आप लाहौर से भाग कर आ गए वो कश्मीर पर आ गए। आप भागते रहिए वो भगाते रहेंगे, एक दिन भागते-भागते नीचे समन्दर आ जाएगा और फिर उसी में डूब कर मरना होगा।
अभी भी देर नही हुई है उठिए और खड़े होकर अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा कीजिए। दुनिया क्रिया-प्रतिक्रियावाद पर चलती है इसलिए प्रतिक्रिया करना सीखिए।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम् ॥
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीं मातरम॥
वन्दे मातरम