सूझबूझ, हिम्मत और वीरता का पर्याय हैं मेजर गोगोई

मेजर गोगोई कश्मीर

कश्मीर में हो रहे अंतरयुद्ध ने एक नया रूप धारण कर लिया है। ये युद्ध सिर्फ अब दो कट्टर शत्रुओं के बीच ही नहीं, दो विपरीत धारा की विचारधाराओं के बीच हो रहा है। मानवता के नाम पर फैलाये जा रहे इस्लामिस्ट साम्राज्यवाद के विषैली सोच और कई वर्षों से शोषित और उपेक्षित राष्ट्रवादी विचारधारा के बीच ये युद्ध हो रहा है। इसी बीच भारतीय थल सेना [माने इंडियन आर्मी] ने एक ऐसा निर्णय लिया है, जो सिर्फ उसी की नहीं, बल्कि हमारे देश पे शासन कर रही सरकार की मंशा भी जगजाहिर करता है। कश्मीरी उग्रवादियों की उकसायी, खून की प्यासी भीड़ से लोकतन्त्र के प्रहरियों की रक्षा हेतु राष्ट्रीय राइफल्स के मेजर नितिन लीचुल गोगोई ने जो साहसिक और अनूठा कदम उठाया था, उसे न सिर्फ प्रशंसित किया है, अपितु थलसेना अध्यक्ष, जनरल बिपिन रावत ने उसे सम्मानित करने का फैसला भी किया है।

जी हाँ, आपने ठीक सुना। भारतीय थलसेना ने मेजर गोगोई जिन्होंने एक पत्थरबाज़ को उठाकर अपने जीप से बांधकर, बिना खून खराबे के निर्वाचन आयोग के अफसर और भारत तिब्बत सीमा पुलिस [आईटीबीपी] के जवानों को सकुशल बाहर निकाला, उन्हें थलसेना अध्यक्ष प्रशस्ति पत्र से पुरस्कृत किया जाएगा। हालांकि सेना के अनुसार ये पुरस्कार इस कारनामे के लिए नहीं बल्कि उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए हैं। थल सेना में ये पुरस्कार चाहे युद्ध हो या शांति, वीरता पुरस्कार की श्रेणी में दिया जाने वाला सबसे प्रथम पुरस्कार हैं, जैसे नागरिकों को केंद्र सरकार पद्मा श्री से सम्मानित करती है।

अब आते हैं इस बात पर की 9 अप्रैल को मेजर गोगोई ने किया क्या था, दरअसल, 9 अप्रैल को श्रीनगर और उससे आस पास सटे हुये क्षेत्रों में उपचुनाव होने थे। आतंकवादियों की पूरी कोशिश की थी कि चुनाव न हों, और सेना और अन्य भारतीय चाहते थे की चुनाव हो और अवश्य हो। ऐसे स्थिति में कुलगाम में एक भीमकाय भीड़ ने निर्वाचन आयोग के स्थानीय केंद्र, बड़गाम को चारों तरफ से घेर लिया। इसमें निर्वाचन आयोग के कुछ अफसर, और उनकी रक्षा में लगे आईटीबीपी के कुछ जवान उपस्थित थे, जिनके बचने का रास्ता लगभग असंभव लग रहा था। मेजर गोगोई की टीम, 57 राष्ट्रीय राइफल्स को निरंतर मदद की गुहार मिल रही थी, पर मेजर गोगोई उस समय धर्मसंकट में थे।

उनके पास दो ही विकल्प थे, या तो अहिंसक तरीके से लोगों को समझाना, जो की इस भीड़ की मंशा को देख कर हास्यास्पद ही लग रहा था, और दूसरा विकल्प भीड़ के लिए बिलकुल उपयुक्त था, परंतु इसी विकल्प के इंतज़ार में इनके पाकिस्तानी आका और उनके भारतीय चमचे घात लगाए बैठे थे, यानी की फ़ाइरिंग का आदेश देना।, जिसमें खून खराबा होना निश्चिंत था, और साथ ही साथ हमारे देश के गद्दारों को भौंकने का उचित अवसर भी मिल जाता।

तभी मेजर गोगोई की दृष्टि एक हट्टे कट्टे से मनुष्य पे पड़ी, जो न तो उस इलाके का लग रहा था, और न ही उनके हाव-भाव से परिचित था, पर भारत विरोधी नारे लगाने के लिए पूरी भीड़ को उकसाने में सबसे आगे थे। नाम था फारूक अहमद डार [इसी नाम का एक और राक्षस कश्मीरी हिंदुओं का नरसंहार कर आज भी बेखौफ़् कश्मीर की वादियों में घूमता है], जिसे आज तथाकथित बुद्धिजीवी गिरोह एक मासूम सा दर्जी बता कर महिमामंडित कर रही है। जैसे ही सेना की नज़र उस पे पड़ी, वह उनके इरादे भाँप गया, और हर कायर आतंकी की तरह वहाँ से नौ दो ग्यारह होने की कोशिश भी की, पर कहाँ ये मोटा पत्थरबाज़ और कहाँ हमारी चुस्त भारतीय सेना। पकड़ा गया और बांध दिया गया जीप में मानव ढाल के रूप में।

इस साहसिक कदम से मेजर गोगोई ने एक तीर से दो शिकार किए। अंग्रेज़ी समाचार चैनल न्यूज़ X को दिये गया साक्षात्कार में मेजर गोगोई ने बताया, की उस पत्थरबाज़ को बांधने से दो कार्य सफल हुये : एक, उस उग्र भीड़ पर सेना को एक गोली नहीं चलनी पड़ी, क्योंकि अपने ही बिरादरी के मनुष्य को कौन पत्थरबाज़ मारने की हिमाकत करता, और दूसरी, बिना हाथ उठाए तथाकथित बुद्धिजीवी और पढे लिखे देशद्रोहियों के चमकते गालों पर एक जोरदार तमाचा पड़ा।

ऐसे साहसिक और अहिंसक कार्य की सराहना तो महात्मा गांधी भी सराहते, पर ये हमारे बुद्धिजीवियों के टिन्नु से मस्तिष्क में कहाँ घुसता? लग गए मेजर गोगोई की मिट्टी पलीद करने में। उमर अब्दुल्लाह से लेकर सागरिका घोस तक, हर भारतीय बुद्धिजीवी ने चुनिन्दा से चुनिन्दा गालियां बाकी अपने कश्मीरी भाइयों की दुर्दशा देख कर। कुछ तो इस हिंसक कारवाई का बदला भी चाहते थे, और उनके डर से जम्मू और कश्मीर पुलिस ने आश्चर्यजनक रूप से 57 राष्ट्रीय राइफल्स पर एफ़आईआर दर्ज़ करने का पाप भी किया। हालांकि सेना ने भी एक जांच बिठाई, पर उसमे न सिर्फ मेजर गोगोई निर्दोष निकले, अपितु उन्हें प्रशस्ति पत्र और प्रशस्ति बिल्ले से सम्मानित भी किया गया, जिससे एक स्पष्ट और कड़ा संदेश हमारे देश के दुश्मनों को मिला है।

वो संदेश साफ है : गए वो दिन, जब देशद्रोहियों और अत्याचारियों को लोकतन्त्र की रक्षा के नाम पर पूजा और सम्मानित किया जाता था, और देशभक्तों को हंसी का पात्र बनाया जाता था। 29 सितम्बर को उरी हमले का सर्जिकल स्ट्राइक्स के जरिये उचित प्रतिशोध से ही ये मंशा साफ होनी चाहिए, पर हमारी भोली जनता की तरह हमारे बुद्धिजीवियों के मस्तिष्क में भी ये बात ज़रा देर से घुसती है। जब इस शौर्य पूर्ण प्रतिशोध के नायकों का राष्ट्रपति ने खुले आम प्रशंसा की और पदक भी प्रदान किए, तो बुद्धिजीवी ये कैसे सोचने गए की 1990 के दशक की तरह ये सरकार अपने ही नायकों को नज़रअंदाज़ कर देगी, और उनके जीवन को नरक बनाएगी ?

शायद वो यह भूल रहे हैं, की ऐसे पाप सिर्फ बुद्धिजीवी, धर्मनिरपेक्ष सरकारों में ही संभव हैं, लोकतान्त्रिक, राष्ट्रवादी सरकारों में नहीं। बुरहान वानी जैसे राक्षस का वध करने वाले वीर सैनिक और मेजर गोगोई को सम्मानित करना उसी संदेश का अभिन्न अंग है। और किसी ने सच ही कहा, है, जहां हो वीरों की पूजा, वहाँ पाले न कोई शत्रु दूजा!

अब हमारे कथित बुद्धिजीवी और असली कट्टरपंथी चाहे जितना विधवा विलाप कर ले, और चाहे जितनी छोड़ियाँ तोड़ ले, बार बार गलती पे माफ करने वाले हिंदुस्तान ने अब अपने शत्रुओं को माफ करना बंद कर दिया है। अब यहाँ सिर्फ वही पूजा जाएगा, जो अपने देश के आदर्शों और उसकी दूरदर्शी सभ्यता की रक्षा करेगा। अभी अभी सुनने में आ रहा है की कश्मीर की हल्दीघाटी, नौशेरा में इंसानियत के दुश्मनों को पनाह देने वाले कई पाकिस्तानी पोस्ट को भारत ने सुनियोजित रूप से ध्वस्त किया है। यानि खेल तो अभी शुरू भयो है!

Exit mobile version